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"न होंठ तक कभी आई, न मन के द्वार गयी / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
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हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने | हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने | ||
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− | + | किसीके रूप का उन्माद कैसे भूले कोई! | |
पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी | पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी | ||
− | + | पलटके देखा जो तुमने लजीली आँखों से | |
लगा कि फिर से मुझे ज़िन्दगी पुकार गयी | लगा कि फिर से मुझे ज़िन्दगी पुकार गयी | ||
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वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी | वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी | ||
− | भरी सभा में | + | भरी सभा में सबोंसे नज़र चुराती हुई |
कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी | कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी | ||
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00:00, 9 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
न होंठ तक कभी आई, न मन के द्वार गयी
वो एक बात मेरी चेतना सँवार गयी
हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने
जिया है प्यार जहाँ ज़िन्दगी थी हार गयी
किसीके रूप का उन्माद कैसे भूले कोई!
पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी
पलटके देखा जो तुमने लजीली आँखों से
लगा कि फिर से मुझे ज़िन्दगी पुकार गयी
घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई
बड़ी ही शान से आई थी, तार-तार गयी
जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खाई तुमने
वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी
भरी सभा में सबोंसे नज़र चुराती हुई
कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी