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खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार</div>
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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
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<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : आदिवासी ('''रचनाकार:''' [[अनुज लुगुन ]])</div>
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</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
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वे जो सुविधाभोगी हैं
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या मौक़ा परस्त हैं
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या जिन्हें आरक्षण चाहिए
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कहते हैं हम आदिवासी हैं,
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वे जो वोट चाहते हैं
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कहते हैं तुम आदिवासी हो,
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वे जो धर्म प्रचारक हैं
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कहते हैं
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तुम आदिवासी जंगली हो ।
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वे जिनकी मानसिकता यह है
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कि हम ही आदि निवासी हैं
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कहते हैं तुम वनवासी हो,
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और वे जो नंगे पैर
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<div style="text-align: center;">
चुपचाप चले जाते हैं जंगली पगडंडियों में
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रचनाकार: [[त्रिलोचन]]
कभी नहीं कहते कि
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हम आदिवासी हैं
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वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से
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<div style="background: #fff; border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; margin: 0 auto; padding: 0 20px; white-space: pre;">
अपना इलाज करना
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खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
वे जानते हैं जंतुओं की हरकतों से
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अपरिचित पास आओ
मौसम का मिजाज समझना
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सारे पेड़-पौधे, पर्वत-पहाड़
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आँखों में सशंक जिज्ञासा
नदी-झरने जानते हैं
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मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा
कि वे कौन हैं ।
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जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं
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स्तम्भ शेष भय की परिभाषा
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हिलो-मिलो फिर एक डाल के
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खिलो फूल-से, मत अलगाओ
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सबमें अपनेपन की माया
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अपने पन में जीवन आया
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19:38, 7 मार्च 2015 के समय का अवतरण

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार

रचनाकार: त्रिलोचन

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार अपरिचित पास आओ

आँखों में सशंक जिज्ञासा मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं स्तम्भ शेष भय की परिभाषा हिलो-मिलो फिर एक डाल के खिलो फूल-से, मत अलगाओ

सबमें अपनेपन की माया अपने पन में जीवन आया