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<div style="background: transparent; width:95%; height:450px; overflow:auto; border:0px inset #aaa; padding:10px">
  
<table width=100% style="background:transparent">
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<div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;">
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
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खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार</div>
<td rowspan=2>
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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
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<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अघोषित उलगुलान ('''रचनाकार:''' [[अनुज लुगुन ]])</div>
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</td>
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</tr>
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</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
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अघोषित उलगुलान (आंदोलन)
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अल सुबह दान्डू का काफ़िला
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<div style="text-align: center;">
रुख़ करता है शहर की ओर
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रचनाकार: [[त्रिलोचन]]
और साँझ ढले वापस आता है
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</div>
परिन्दों के झुण्ड-सा,
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अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
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<div style="background: #fff; border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; margin: 0 auto; padding: 0 20px; white-space: pre;">
और कटती है रात
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खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
अधूरे सनसनीखेज क़िस्सों के साथ
+
अपरिचित पास आओ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
+
दबी रह जाती है
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जीवन की पदचाप
+
बिल्कुल मौन !
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वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
+
आँखों में सशंक जिज्ञासा
ज़हर-बुझे तीर से
+
मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा
या खेलते थे
+
जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं
रक्त-रंजित होली
+
स्तम्भ शेष भय की परिभाषा
अपने स्वत्व की आँच से
+
हिलो-मिलो फिर एक डाल के
खेलते हैं शहर के
+
खिलो फूल-से, मत अलगाओ
कंक्रीटीय जंगल में
+
जीवन बचाने का खेल
+
  
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
+
सबमें अपनेपन की माया
शहर में
+
अपने पन में जीवन आया
अघोषित उलगुलान में
+
</div>
लड़ रहे हैं जंगल
+
</div></div>
 
+
लड़ रहे हैं ये
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नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ़
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जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ़
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गुफ़ाओं की तरह टूटती
+
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ़
+
 
+
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
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जो या तो अभावग्रस्त हैं
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या तनावग्रस्त हैं
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बाकी तटस्थ हैं
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या लूट में शामिल हैं
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मंत्री जी की तरह
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जो आदिवासीयत का राग भूल गए
+
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद ।
+
 
+
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
+
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
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पहाड़ों के टूटने पर
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नदियों के सूखने पर
+
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
+
तुरिया की लवारिस लाश पर
+
कोई कुछ नहीं बोलता
+
 
+
बोलते हैं बोलने वाले
+
केवल सियासत की गलियों में
+
आरक्षण के नाम पर
+
बोलते हैं लोग केवल
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उनके धर्मांतरण पर
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चिंता है उन्हें
+
उनके 'हिन्दू’ या 'ईसाई’ हो जाने की
+
 
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यह चिंता नहीं कि
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रोज कंक्रीट के ओखल में
+
पिसते हैं उनके तलबे
+
और लोहे की ढेंकी में
+
कूटती है उनकी आत्मा
+
 
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बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
+
 
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लड़ रहे हैं आदिवासी
+
अघोषित उलगुलान में
+
कट रहे हैं वृक्ष
+
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
+
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल ।
+
 
+
दान्डू जाए तो कहाँ जाए
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कटते जंगल में
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या बढ़ते जंगल में ।
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</pre></center></div>
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19:38, 7 मार्च 2015 के समय का अवतरण

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार

रचनाकार: त्रिलोचन

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार अपरिचित पास आओ

आँखों में सशंक जिज्ञासा मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं स्तम्भ शेष भय की परिभाषा हिलो-मिलो फिर एक डाल के खिलो फूल-से, मत अलगाओ

सबमें अपनेपन की माया अपने पन में जीवन आया