"कबीर दोहावली / पृष्ठ ६" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
|सारणी=दोहावली / कबीर | |सारणी=दोहावली / कबीर | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatDoha}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । | ||
+ | कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥ | ||
− | + | गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । | |
− | + | हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ | |
− | + | यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । | |
− | + | सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥ | |
− | + | बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय । | |
− | + | कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥ | |
− | + | गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग । | |
− | + | कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥ | |
− | गुरु बिचारा क्या | + | गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर । |
− | + | नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥ | |
− | + | कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । | |
− | + | गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥ | |
− | + | ॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ | |
− | गुरु | + | |
− | |||
+ | शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । | ||
+ | कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥ | ||
− | + | हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय । | |
− | + | ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥ | |
− | + | ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक । | |
− | + | जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥ | |
− | + | शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय । | |
− | + | कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥ | |
− | + | स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय । | |
− | + | चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥ | |
− | + | गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । | |
− | + | बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥ | |
− | + | सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय । | |
− | + | जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥ | |
− | + | देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल । | |
− | + | जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥ | |
− | + | ॥ भक्ति के विषय में दोहे ॥ | |
− | + | ||
− | |||
+ | कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय । | ||
+ | माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥ | ||
− | कबीर गुरु की भक्ति बिन, | + | कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय । |
− | + | गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥ | |
− | + | जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात । | |
− | + | सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥ | |
− | + | चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं । | |
− | + | तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥ | |
− | + | हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह । | |
− | + | सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥ | |
− | + | झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह । | |
− | + | माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥ | |
− | + | कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार । | |
− | + | सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय । |
− | + | बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ | |
− | + | पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज । | |
− | + | ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥ | |
− | + | कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार । | |
− | + | कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥ | |
− | + | साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग । | |
− | + | ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥ | |
− | + | शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार । | |
− | + | बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥ | |
− | + | कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय । | |
− | + | बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥ | |
− | + | साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय । | |
− | + | जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥ | |
− | साकट | + | साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय । |
− | + | दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥ | |
− | साकट | + | कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय । |
− | + | एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥ | |
− | + | संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ । | |
− | + | कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥ | |
− | + | साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान । | |
− | + | ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥ | |
− | + | टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि । | |
− | + | टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥ | |
− | + | साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है । | |
− | टेक | + | कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥ |
− | + | निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार । | |
− | + | देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥ | |
− | + | हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो । | |
− | + | भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥ | |
− | + | खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय । | |
− | + | एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥ | |
− | + | घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास । | |
− | + | वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥ | |
− | + | आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल । | |
− | + | साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥ | |
− | + | कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय । | |
− | + | जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय । |
− | + | अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि । |
− | + | ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥ | |
− | + | कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय । | |
− | + | कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥ | |
− | + | दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय । | |
− | कबीर साधु दरश ते | + | कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥ |
− | + | तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय । | |
− | कबीर | + | यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥ |
− | + | दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार । | |
− | + | कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥ | |
− | + | बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय । | |
− | + | कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥ | |
− | + | पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय । | |
− | कहैं | + | यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥ |
− | + | बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष । | |
− | + | कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥ | |
− | बरस | + | छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय । |
− | + | कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥ | |
− | + | मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त । | |
− | + | यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥ | |
− | + | मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि । | |
− | + | साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥ | |
− | + | साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान । | |
− | + | कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥ | |
− | + | इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय । | |
− | + | कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥ | |
− | + | खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय । | |
− | कहै कबीर | + | कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥ |
− | + | सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि । | |
− | कहै कबीर | + | कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥ |
− | + | कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय । | |
− | कहै कबीर | + | यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥ |
− | + | टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर । | |
− | + | साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥ | |
− | + | कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि । | |
− | + | कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥ | |
− | + | साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह । | |
− | + | माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥ | |
− | साधु | + | साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय । |
− | + | मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥ | |
− | साधु | + | साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन । |
− | + | धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥ | |
− | साधु | + | साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर । |
− | + | सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥ | |
− | साधु | + | साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट । |
− | + | शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥ | |
− | साधु | + | साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार । |
− | + | जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥ | |
− | साधु | + | साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग । |
− | + | तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥ | |
− | साधु | + | आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय । |
− | + | कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥ | |
− | + | छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय । | |
− | + | जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥ | |
− | + | सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह । | |
− | + | परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥ | |
− | + | बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर । | |
− | परमारथ के कारने, | + | परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥ |
− | + | सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध । | |
− | + | कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥ | |
− | + | साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव । | |
− | + | चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥ | |
− | + | कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल । | |
− | + | कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥ | |
− | + | हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि । | |
− | + | तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥ | |
− | + | क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान । | |
− | + | वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥ | |
− | + | जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप । | |
− | + | जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥ | |
− | + | साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड । | |
− | + | सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥ | |
− | + | कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय । | |
− | + | कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥ | |
− | + | आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद । | |
− | + | षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥ | |
− | + | कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय । | |
− | + | जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥ | |
− | + | वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस । | |
− | + | गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥ | |
− | + | सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान । | |
− | + | शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥ | |
− | + | साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं । | |
− | + | पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥ | |
− | साधु | + | साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार । |
− | + | डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥ | |
− | साधु | + | साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । |
− | + | चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥ | |
− | साधु | + | साधु चाल जु चालई, साधु की चाल । |
− | + | बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥ | |
− | साधु | + | साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल । |
− | + | परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥ | |
− | साधु | + | साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास । |
− | + | टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥ | |
− | + | साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि । | |
− | + | अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥ | |
− | + | साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट । | |
− | + | ||
− | + | ||
− | साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट । | + | |
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591 | माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591 | ||
− | साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । | + | साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । |
− | कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ | + | कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | साधु | + | साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ । |
− | न | + | सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥ |
− | + | साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय । | |
− | + | न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥ | |
− | + | साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर । | |
− | + | शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥ | |
− | + | सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार । | |
− | + | आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥ | |
− | + | दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप । | |
− | + | उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥ | |
− | + | सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय । | |
− | + | छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥ | |
− | + | साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक । | |
− | + | बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥ | |
− | + | सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात । | |
− | + | निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥ | |
− | + | [[कबीर दोहावली / पृष्ठ ७|अगला भाग >>]] | |
− | | | + | |
− | + |
09:54, 13 जून 2013 के समय का अवतरण
जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥
बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥
गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥
गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥
कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥
॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक ।
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय ।
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥
॥ भक्ति के विषय में दोहे ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥
साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥
टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥
कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद ।
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥
दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥
सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥
अगला भाग >>