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"कबीर दोहावली / पृष्ठ ८" के अवतरणों में अंतर

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|सारणी=दोहावली / कबीर
 
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सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
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कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥
  
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय <BR/>
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अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।  
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय 701 <BR/><BR/>
+
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय 702 ॥  
  
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय <BR/>
+
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।  
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय 702 <BR/><BR/>
+
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय 703 ॥  
  
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय <BR/>
+
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।  
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय 703 <BR/><BR/>
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लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल 704 ॥  
  
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल <BR/>
+
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।  
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल 704 <BR/><BR/>
+
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल 705 ॥  
  
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल <BR/>
+
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।  
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल 705 <BR/><BR/>
+
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय 706 ॥  
  
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय <BR/>
+
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।  
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय 706 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख 707 ॥  
  
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । <BR/>
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कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख 707 <BR/><BR/>
+
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर 708 ॥  
  
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर <BR/>
+
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।  
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर 708 <BR/><BR/>
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कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय 709 ॥  
  
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय <BR/>
+
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।  
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय 709 <BR/><BR/>
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कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग 710 ॥  
  
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग <BR/>
+
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।  
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग 710 <BR/><BR/>
+
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग 711 ॥  
  
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग <BR/>
+
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।  
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग 711 <BR/><BR/>
+
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत 712 ॥  
  
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत <BR/>
+
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।  
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत 712 <BR/><BR/>
+
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान 713 ॥  
  
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान <BR/>
+
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।  
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान 713 <BR/><BR/>
+
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय 714 ॥  
  
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । <BR/>
+
दासता पर दोहे ॥  
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय 714 <BR/><BR/>
+
  
॥ दासता पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
 
  
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कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।
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तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥
  
कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त <BR/>
+
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।  
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त 715 <BR/><BR/>
+
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय 716 ॥  
  
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै कोय <BR/>
+
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु छोड़े संग ।  
जब लग आश शरीर की, तब लग दास होय 716 <BR/><BR/>
+
रंग लागै का, व्यापै सतगुरु रंग 717 ॥  
  
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग <BR/>
+
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।  
रंग लागै का, व्यापै सतगुरु रंग 717 <BR/><BR/>
+
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति छोड़े पास 718 ॥  
  
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास <BR/>
+
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।  
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास 718 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ 719 ॥  
  
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ <BR/>
+
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।  
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ 719 <BR/><BR/>
+
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय 720 ॥  
  
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय <BR/>
+
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।  
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय 720 <BR/><BR/>
+
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास 721 ॥  
  
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास <BR/>
+
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।  
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास 721 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन 722 ॥  
  
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन <BR/>
+
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।  
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन 722 <BR/><BR/>
+
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास 723 ॥  
  
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । <BR/>
+
भक्ति पर दोहे ॥  
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास 723 <BR/><BR/>
+
  
॥ भक्ति पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
 
  
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भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।
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भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥
  
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय <BR/>
+
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।  
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय 724 <BR/><BR/>
+
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त 725 ॥  
  
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त <BR/>
+
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।  
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त 725 <BR/><BR/>
+
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय 726 ॥  
  
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय <BR/>
+
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।  
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय 726 <BR/><BR/>
+
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय 727 ॥  
  
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय <BR/>
+
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।  
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय 727 <BR/><BR/>
+
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम 728 ॥  
  
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम <BR/>
+
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।  
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम 728 <BR/><BR/>
+
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय 729 ॥  
  
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय <BR/>
+
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।  
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय 729 <BR/><BR/>
+
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश 730 ॥  
  
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश <BR/>
+
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।  
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश 730 <BR/><BR/>
+
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज 731 ॥  
  
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज <BR/>
+
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।  
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज 731 <BR/><BR/>
+
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय 732 ॥  
  
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय <BR/>
+
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।  
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय 732 <BR/><BR/>
+
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय 733 ॥  
  
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय <BR/>
+
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।  
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय 733 <BR/><BR/>
+
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय 734 ॥  
  
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय <BR/>
+
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।  
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय 734 <BR/><BR/>
+
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार 735 ॥  
  
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । <BR/>
+
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार 735 <BR/><BR/>
+
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव 736 ॥  
  
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव <BR/>
+
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।  
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव 736 <BR/><BR/>
+
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास 737 ॥  
  
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास <BR/>
+
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।  
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास 737 <BR/><BR/>
+
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार 738 ॥  
  
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार <BR/>
+
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।  
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार 738 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय 739 ॥  
  
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय <BR/>
+
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।  
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय 739 <BR/><BR/>
+
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग 740 ॥  
  
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग <BR/>
+
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।  
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग 740 <BR/><BR/>
+
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय 741 ॥  
  
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय <BR/>
+
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।  
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय 741 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव 742 ॥  
  
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव <BR/>
+
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।  
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव 742 <BR/><BR/>
+
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत 743 ॥  
  
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत <BR/>
+
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।  
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत 743 <BR/><BR/>
+
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान 744 ॥  
  
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । <BR/>
+
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।  
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान 744 <BR/><BR/>
+
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान 745 ॥  
  
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान <BR/>
+
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।  
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान 745 <BR/><BR/>
+
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर 746 ॥  
  
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर <BR/>
+
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।  
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर 746 <BR/><BR/>
+
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय 747 ॥  
  
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय <BR/>
+
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।  
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय 747 <BR/><BR/>
+
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट 748 ॥  
  
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट <BR/>
+
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।  
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट 748 <BR/><BR/>
+
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव 749 ॥  
  
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव <BR/>
+
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।  
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव 749 <BR/><BR/>
+
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय 750 ॥  
  
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय <BR/>
+
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।  
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय 750 <BR/><BR/>
+
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म 751 ॥  
  
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म <BR/>
+
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।  
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म 751 <BR/><BR/>
+
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान 752 ॥  
  
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान <BR/>
+
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।  
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान 752 <BR/><BR/>
+
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय 753 ॥  
  
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय <BR/>
+
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।  
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय 753 <BR/><BR/>
+
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव 754 ॥  
  
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । <BR/>
+
चेतावनी  ॥  
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव 754 <BR/><BR/>
+
  
॥ चेतावनी  ॥ <BR/><BR/>
 
  
 +
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
 +
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥
  
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ <BR/>
+
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।  
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ 755 <BR/><BR/>
+
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास 756 ॥  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास <BR/>
+
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।  
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास 756 <BR/><BR/>
+
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास 757 ॥  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस <BR/>
+
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।  
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास 757 <BR/><BR/>
+
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस 758 ॥  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस <BR/>
+
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।  
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस 758 <BR/><BR/>
+
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल 759 ॥  
  
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल <BR/>
+
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।  
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल 759 <BR/><BR/>
+
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह 760 ॥  
  
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह <BR/>
+
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।  
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह 760 <BR/><BR/>
+
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान 761 ॥  
  
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान <BR/>
+
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।  
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान 761 <BR/><BR/>
+
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय 762 ॥  
  
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय <BR/>
+
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।  
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय 762 <BR/><BR/>
+
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ 763 ॥  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ <BR/>
+
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।  
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ 763 <BR/><BR/>
+
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव 764 ॥  
  
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव <BR/>
+
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।  
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव 764 <BR/><BR/>
+
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल 765 ॥  
  
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल <BR/>
+
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।  
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल 765 <BR/><BR/>
+
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि 766 ॥  
  
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि <BR/>
+
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।  
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि 766 <BR/><BR/>
+
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल 767 ॥  
  
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल <BR/>
+
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।  
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग भूल 767 <BR/><BR/>
+
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन देन 768 ॥  
  
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन <BR/>
+
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।  
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन 768 <BR/><BR/>
+
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार 769 ॥  
  
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार <BR/>
+
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।  
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार 769 <BR/><BR/>
+
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन 770 ॥  
  
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन <BR/>
+
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।  
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन 770 <BR/><BR/>
+
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए 771 ॥  
  
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए <BR/>
+
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।  
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए 771 <BR/><BR/>
+
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय 772 ॥  
  
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय <BR/>
+
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।  
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय 772 <BR/><BR/>
+
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार 773 ॥  
  
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार <BR/>
+
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।  
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार 773 <BR/><BR/>
+
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय 774 ॥  
  
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह <BR/>
+
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।  
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय 774 <BR/><BR/>
+
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि 775 ॥  
  
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि <BR/>
+
मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।  
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि 775 <BR/><BR/>
+
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम 776 ॥  
  
मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम <BR/>
+
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।  
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम 776 <BR/><BR/>
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ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय 777 ॥  
  
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय <BR/>
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कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।  
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय 777 <BR/><BR/>
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कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक 778 ॥  
  
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक <BR/>
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कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।  
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक 778 <BR/><BR/>
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सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत 779 ॥  
  
कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत <BR/>
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हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।  
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत 779 <BR/><BR/>
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सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास 780 ॥  
  
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आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।  
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ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास 781 ॥  
  
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास <BR/>
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ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।  
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास 781 <BR/><BR/>
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रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार 782 ॥  
  
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार <BR/>
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पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।  
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काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज 783 ॥  
  
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आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।  
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अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत 784 ॥  
  
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आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।  
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आज काल के करत ही, औसर जासी चाल 785 ॥  
  
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कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।  
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल 785 <BR/><BR/>
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मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय 786 ॥  
  
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सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।  
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ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग 787 ॥  
  
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ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।  
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वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय 788 ॥  
  
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एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥  
  
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ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।  
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एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज 790 ॥  
  
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पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।  
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ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय 791 ॥  
  
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मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।  
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मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन 792 ॥  
  
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घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।  
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आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत 793 ॥  
  
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हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।  
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अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान 794 ॥  
  
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पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।  
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पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।  
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घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि 797 ॥  
  
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कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।  
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09:54, 13 जून 2013 के समय का अवतरण

सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥

अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥

यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥

आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥

द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥

उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥

कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥

गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥

गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥

यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥

शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥

॥ दासता पर दोहे ॥


कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥

कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥

सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥

गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥

लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥

काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥

दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥

दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥

॥ भक्ति पर दोहे ॥


भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥

भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥

भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥

भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥

भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥

भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥

भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥

कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥

भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥

भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥

भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥

गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥

कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥

कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥

जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥

देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥

आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥

जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥

पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥

निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥

तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥

खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥

ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥

भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥

भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥

भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥

और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥

विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥

भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥

॥ चेतावनी ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥

कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥

कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥

कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥

कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥

कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥

कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥

कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥

कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥

कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥

कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥

कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥

कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥

कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥

कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥

एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥

ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥

मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥

कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥

कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥

कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥

हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥

आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥

ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥

पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥

आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥

आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥

कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥

सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥

ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥

ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥

ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥

पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥

मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥

घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥

हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥

पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥

पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥

कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि ।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥

यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ ।
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥

कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥

जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि ।
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥
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