"कबीर दोहावली / पृष्ठ ८" के अवतरणों में अंतर
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+ | सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । | ||
+ | कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥ | ||
− | + | अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । | |
− | + | यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥ | |
− | + | यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । | |
− | + | सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥ | |
− | + | गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । | |
− | + | लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥ | |
− | + | आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । | |
− | + | शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ | |
− | + | द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । | |
− | + | कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥ | |
− | + | उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । | |
− | + | कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥ | |
− | + | कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर । | |
− | कहैं कबीर | + | जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥ |
− | + | गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय । | |
− | + | कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥ | |
− | गुरु | + | गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग । |
− | कहैं कबीर | + | कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ |
− | + | यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग । | |
− | + | सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥ | |
− | + | ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत । | |
− | + | सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥ | |
− | + | दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । | |
− | + | सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ | |
− | + | शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । | |
− | + | लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥ | |
− | + | ॥ दासता पर दोहे ॥ | |
− | + | ||
− | |||
+ | कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त । | ||
+ | तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥ | ||
− | कबीर गुरु | + | कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय । |
− | + | जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥ | |
− | + | सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग । | |
− | + | रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ | |
− | + | गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास । | |
− | + | रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥ | |
− | + | लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ । | |
− | + | कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥ | |
− | + | काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय । | |
− | + | फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥ | |
− | + | दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास । | |
− | + | अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ | |
− | + | दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन । | |
− | + | कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥ | |
− | दासातन हिरदै | + | दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । |
− | + | पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥ | |
− | + | ॥ भक्ति पर दोहे ॥ | |
− | + | ||
− | |||
+ | भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय । | ||
+ | भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥ | ||
− | भक्ति | + | भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । |
− | + | ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥ | |
− | भक्ति | + | भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । |
− | + | सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥ | |
− | भक्ति | + | भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय । |
− | + | और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥ | |
− | भक्ति | + | भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम । |
− | + | सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥ | |
− | भक्ति | + | भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय । |
− | + | प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥ | |
− | भक्ति | + | भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश । |
− | + | भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ | |
− | भक्ति | + | कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज । |
− | + | बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ | |
− | + | भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय । | |
− | + | मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ | |
− | भक्ति | + | भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय । |
− | + | शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥ | |
− | भक्ति | + | भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय । |
− | + | जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥ | |
− | भक्ति | + | गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । |
− | + | बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥ | |
− | + | भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव । | |
− | बिना | + | भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥ |
− | + | कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास । | |
− | + | मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥ | |
− | कबीर गुरु की भक्ति | + | कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार । |
− | + | धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ | |
− | + | जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय । | |
− | + | कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥ | |
− | + | देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । | |
− | + | बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥ | |
− | + | आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय । | |
− | + | करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥ | |
− | + | जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । | |
− | + | कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥ | |
− | + | पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत । | |
− | + | मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ | |
− | + | निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । | |
− | + | निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥ | |
− | + | तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान । | |
− | + | सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥ | |
− | + | खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर । | |
− | + | भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ | |
− | + | ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय । | |
− | भक्ति | + | देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥ |
− | + | भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट । | |
− | + | निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ | |
− | + | भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । | |
− | + | परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ | |
− | + | भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । | |
− | + | जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥ | |
− | + | और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । | |
− | + | कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥ | |
− | + | विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । | |
− | + | सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥ | |
− | + | भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । | |
− | + | नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ | |
− | भक्ति | + | भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । |
− | + | पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ | |
− | + | ॥ चेतावनी ॥ | |
− | + | ||
− | |||
+ | कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ । | ||
+ | हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ | ||
− | कबीर गर्ब न कीजिये, | + | कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास । |
− | + | काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ | |
− | कबीर गर्ब न कीजिये, | + | कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस । |
− | + | टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥ | |
− | कबीर गर्ब न कीजिये, | + | कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस । |
− | + | ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । |
− | + | दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । |
− | दिवस | + | दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥ |
− | कबीर | + | कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । |
− | + | सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । |
− | + | यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । |
− | + | इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव । |
− | + | कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । |
− | + | चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । |
− | + | खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । |
− | + | दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । |
− | + | जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । |
− | + | जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । |
− | + | साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । |
− | + | केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । |
− | + | एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । |
− | + | हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥ | |
− | + | एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । | |
− | + | राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥ | |
− | + | ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । | |
− | + | औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥ | |
− | + | मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । | |
− | + | ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥ | |
− | + | कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय । | |
− | + | ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । |
− | + | कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥ | |
− | + | कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । | |
− | + | सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥ | |
− | + | हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । | |
− | + | सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥ | |
− | + | आज काल के बीच में, जंगल होगा वास । | |
− | + | ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥ | |
− | + | ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । | |
− | + | रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥ | |
− | + | पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । | |
− | + | काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ | |
− | + | आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत । | |
− | + | अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥ | |
− | + | आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल । | |
− | + | आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥ | |
− | + | कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय । | |
− | + | मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥ | |
− | + | सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग । | |
− | + | ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ | |
− | + | ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । | |
− | + | वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥ | |
− | ऊँचा | + | ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय । |
− | + | एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥ | |
− | ऊँचा | + | ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल । |
− | + | एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥ | |
− | + | पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय । | |
− | + | ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥ | |
− | + | मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । | |
− | + | मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥ | |
− | + | घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । | |
− | + | आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥ | |
− | + | हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार । | |
− | + | अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ | |
− | + | पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । | |
− | अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ | + | अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ |
− | + | पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । | |
− | + | दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥ | |
− | + | कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि । | |
− | + | घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥ | |
− | + | यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ । | |
− | + | टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥ | |
− | + | कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । | |
− | + | इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ | |
− | + | जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । | |
− | + | जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ | |
− | + | [[कबीर दोहावली / पृष्ठ ९|अगला भाग >>]] | |
− | जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । | + | |
− | जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ | + | |
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09:54, 13 जून 2013 के समय का अवतरण
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥
॥ दासता पर दोहे ॥
कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥
॥ भक्ति पर दोहे ॥
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥
॥ चेतावनी ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥
मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥
कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥
आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥
आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥
ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥
ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥
ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥
मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥
घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥
पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥
कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि ।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ ।
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥
जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि ।
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥
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