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"रहीम दोहावली - 1" के अवतरणों में अंतर

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देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन । <BR/>
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लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ॥ 1 ॥ <BR/><BR/>
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|रचनाकार=रहीम
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|संग्रह=रहीम दोहावली
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तैं रहीम मन आपुनो, कीन्‍हों चारु चकोर।
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निसि बासर लागो रहै, कृष्‍णचंद्र की ओर॥1॥
  
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस । <BR/>
+
अच्‍युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥ 2 ॥ <BR/><BR/>
+
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल॥2॥
  
रहिमन कुटिल कुठार ज्यों, कटि डारत द्वै टूक । <BR/>
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अधम वचन काको फल्‍यो, बैठि ताड़ की छाँह।
चतुरन को कसकत रहे, समय चूक की हूक ॥ 3 ॥ <BR/><BR/>
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रहिमन काम न आय है, ये नीरस जग माँह॥3॥
  
अच्युत चरन तरंगिनी, शिव सिर मालति माल । <BR/>
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अन्‍तर दाव लगी रहै, धुआँ प्रगटै सोइ।
हरि बनायो सुरसरी, कीजो इंदव भाल ॥ 4 ॥ <BR/><BR/>
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कै जिय आपन जानहीं, कै जिहि बीती होइ॥4॥
  
अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि । <BR/>
+
अनकीन्‍हीं बातैं करै, सोवत जागे जोय।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ॥ 5 ॥ <BR/><BR/>
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ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय॥5॥
  
अधम बचन ते को फल्यो, बैठि ताड़ की छाह । <BR/>
+
अनुचित उचित रहीम लघु, क‍रहिं बड़ेन के जोर।
रहिमन काम न आइहै, ये नीरस जग मांह ॥ 6 ॥ <BR/><BR/>
+
ज्‍यों ससि के संजोग तें, पचवत आगि चकोर॥6॥
  
अनुचित बचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि । <BR/>
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अनुचित वचन न मानिए जदपि गुराइसु गाढ़ि।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि ॥ 7 ॥ <BR/><BR/>
+
है र‍हीम रघुनाथ तें, सुजस भरत को बाढ़ि॥7॥
  
अनुचित उचित रहीम लघु, करहि बड़ेन के जोर । <BR/>
+
अब रहीम चुप करि रहउ, समुझि दिनन कर फेर।
ज्यों ससि के संयोग से, पचवत आगि चकोर ॥ 8 ॥ <BR/><BR/>
+
जब दिन नीके आइ हैं बनत न लगि है देर॥8॥
  
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम । <BR/>
+
अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ॥ 9 ॥ <BR/><BR/>
+
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥9॥
  
ऊगत जाही किरण सों, अथवत ताही कांति । <BR/>
+
अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
त्यों रहीम सुख दुख सबै, बढ़त एक ही भांति ॥ 10 ॥
+
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि॥10॥
  
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल । <BR/>
+
अमृत ऐसे वचन में, रहिमन रिस की गाँस।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल ॥ 11 ॥ <BR/><BR/>
+
जैसे मिसिरिहु में मिली, निरस बाँस की फाँस॥11॥
आदर घटे नरेस ढिग, बसे रहे कछु नाहिं । <BR/>
+
जो रहीम कोटिन मिले, धिक जीवन जग माहिं ॥ 12 ॥ <BR/><BR/>
+
  
आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधे सनेह । <BR/>
+
अरज गरज मानैं नहीं, रहिमन ए जन चारि।
जीरन होत न पेड़ ज्यों, थामें बरै बरेह ॥ 13 ॥ <BR/><BR/>
+
रिनिया, राजा, माँगता, काम आतुरी नारि॥12॥
  
अरज गरज मानै नहीं, रहिमन ये जन चारि । <BR/>
+
असमय परे रहीम कहि, माँगि जात तजि लाज।
रिनियां राजा मांगता, काम आतुरी नारि ॥ 14 ॥ <BR/><BR/>
+
ज्‍यों लछमन माँगन गये, पारासर के नाज॥13॥
  
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय । <BR/>
+
आदर घटे नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ॥ 15 ॥ <BR/><BR/>
+
जो रहीम कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं॥14॥
  
अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो जाय । <BR/>
+
आप काहू काम के, डार पात फल फूल।
जिन आंखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय ॥ 16 ॥ <BR/><BR/>
+
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल॥15॥
  
अंतर दाव लगी रहै, धुआं न प्रगटै सोय । <BR/>
+
आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह।
कै जिय जाने आपुनो, जा सिर बीती होय ॥ 17 ॥ <BR/><BR/>
+
जीरन होत न पेड़ ज्‍यौं, थामे बरै बरेह॥16॥
  
असमय परे रहीम कहि, मांगि जात तजि लाज । <BR/>
+
उरग, तुरंग, नारी, नृपति, नीच जाति, हथियार।
ज्यों लछमन मांगन गए, पारसार के नाज ॥ 18 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन इन्‍हें सँभारिए, पलटत लगै न बार॥17॥
  
अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिककन पान । <BR/>
+
ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही कॉंति।
हस्ती ढकका कुल्हड़िन, सहैं ते तरुवर आन ॥ 19 ॥ <BR/><BR/>
+
त्‍यौं रहीम सुख दुख सवै, बढ़त एक ही भाँति॥18॥
  
उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार । <BR/>
+
एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।
रहिमन इन्हें संभारिए, पलटत लगै न बार ॥ 20 ॥ <BR/><BR/>
+
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड॥19॥
  
करत निपुनई, गुण बिना, रहिमन निपुन हजीर । <BR/>
+
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि, मोहिं समान को कूर ॥ 21 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥20॥
  
ओछो काम बड़ो करैं, तो न बड़ाई होय । <BR/>
+
रहीम दर दर फिरहिं, माँगि मधुकरी खाहिं।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय ॥ 22 ॥ <BR/><BR/>
+
यारो यारी छो‍ड़िये वे रहीम अब नाहिं॥21॥
कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय । <BR/>
+
पुरूष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय ॥ 23 ॥ <BR/><BR/>
+
  
कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय । <BR/>
+
ओछो काम बड़े करैं तौ बड़ाई होय।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्यों फजीहत होय ॥ 24 ॥ <BR/><BR/>
+
ज्‍यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय॥22॥
  
करमहीन रहिमन लखो, धसो बड़े घर चोर । <BR/>
+
अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जगत ह्रैगो भोर ॥ 25 ॥ <BR/><BR/>
+
जिन आँखिन सों हरि लख्‍यो, रहिमन बलि बलि जाय॥23॥
  
कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात । <BR/>
+
अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिक्‍कन पान।
घटै बढ़े उनको कहा, घास बेचि जे खात ॥ 26 ॥ <BR/><BR/>
+
हस्‍ती-ढक्‍का, कुल्‍हड़िन, सहैं ते तरुवर आन॥24॥
  
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत । <BR/>
+
कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्‍वाति एक गुन तीन।
बिपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत ॥ 27 ॥ <BR/><BR/>
+
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥25॥
  
कहि रहीम या जगत तें, प्रीति गई दै टेर । <BR/>
+
कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।
रहि रहीम नर नीच में, स्वारथ स्वारथ टेर ॥ 28 ॥ <BR/><BR/>
+
पुरुष पुरातन की बधू, क्‍यों न चंचला होय॥26॥
  
कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय । <BR/>
+
कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछिताय ॥ 29 ॥ <BR/><BR/>
+
प्रभु की सो अपनी कहै, क्‍यों न फजीहत होय॥27॥
  
कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय । <BR/>
+
करत निपुनई गुन बिना, रहिमन निपुन हजूर।
तन सनेह कैसे दुरै, दूग दीपक जरु होय ॥ 30 ॥ <BR/><BR/>
+
मानहु टेरत बिटप चढ़ि मोहि समान को कूर॥28॥
  
कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्रै जाय । <BR/>
+
करम हीन रहिमन लखो, धँसो बड़े घर चोर।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय ॥ 31 ॥ <BR/><BR/>
+
चिंतत ही बड़ लाभ के, जागत ह्वै गौ भोर॥29॥
  
काज परे कछु और है, काज सरे कछु और । <BR/>
+
कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर ॥ 32 ॥ <BR/><BR/>
+
तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय॥30॥
  
कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग । <BR/>
+
कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥ 33 ॥ <BR/><BR/>
+
घटै बढ़ै उनको कहा, घास बेंचि जे खात॥31॥
कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय । <BR/>
+
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय ॥ 34 ॥ <BR/><BR/>
+
  
काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई । <BR/>
+
कहि रहीम य जगत तैं, प्रीति गई दै टेर।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई ॥ 35 ॥ <BR/><BR/>
+
रहि रहीम नर नीच में, स्‍वारथ स्‍वारथ हेर॥32॥
  
कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर । <BR/>
+
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगस सों बैर ॥ 36 ॥ <BR/><BR/>
+
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत॥33॥
  
काह कामरी पागरी, जाड़ गए से काज । <BR/>
+
कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिलै अनाज ॥ 37 ॥ <BR/><BR/>
+
माया ममता मोह परि, अंत चले पछिताय॥34॥
  
कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छांह । <BR/>
+
कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
रहिमन ढाक सुहावनै, जो गल पीतम बांह ॥ 38 ॥ <BR/><BR/>
+
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥35॥
  
कुटिलत संग रहीम कहि, साधू बचते नांहि । <BR/>
+
कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्वै जाय।
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहि ॥ 39 ॥ <BR/><BR/>
+
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय॥36॥
  
को रहीम पर द्वार पै, जात न जिय सकुचात । <BR/>
+
कागद को सो पूतरा, सहजहि मैं घुलि जाय।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जात ॥ 40 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय॥37॥
  
गगन चढ़े फरक्यो फिरै, रहिमन बहरी बाज । <BR/>
+
काज परै कछु और है, काज सरै कछु और।
फेरि आई बंधन परै, अधम पेट के काज ॥ 41 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन भँवरी के भए नदी सिरावत मौर॥38॥
  
खरच बढ़यो उद्द्म घटयो, नृपति निठुर मन कीन । <BR/>
+
काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन ॥ 42 ॥ <BR/><BR/>
+
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई॥39॥
  
खैर खून खासी खुसी, बैर प्रीति मदपान । <BR/>
+
कहा करौं बै‍कुंठ लै, कल्‍प बृच्‍छ की छाँह।
रहिमन दाबे न दबैं, जानत सकल जहान ॥ 43 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बाँह॥40॥
  
खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय । <BR/>
+
काह कामरी पामरी, जाड़ गए से काज।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ॥ 44 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन भूख बुताइए, कैस्‍यो मिलै अनाज॥41॥
गति रहीम बड़ नरन की, ज्यों तुरंग व्यवहार । <BR/>
+
दाग दिवावत आप तन, सही होत असवार ॥ 45 ॥ <BR/><BR/>
+
  
गहि सरनागत राम की, भव सागर की नाव । <BR/>
+
कुटिलन संग रहीम क‍हि, साधू बचते नाहिं।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछु उपाव ॥ 46 ॥ <BR/><BR/>
+
ज्‍यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहिं॥42॥
  
गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि । <BR/>
+
कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर।
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतौरी आहिं ॥ 47 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगर सों वैर॥43॥
  
गुनते लेत रहीम जन, सलिल कूपते काढ़ि । <BR/>
+
कोउ रहीम जनि काहु के, द्वार गये पछिताय।
कूपहु ते कहुं होत है, मन काहू के बाढ़ि ॥ 48 ॥ <BR/><BR/>
+
संपति के सब जात हैं, विपति सबै लै जाय॥44॥
  
गरज आपनी आप सों, रहिमन कही न जाय । <BR/>
+
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।
जैसे कुल की कुलवधु, पर घर जात लजाय ॥ 49 ॥ <BR/><BR/>
+
केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गये रहीम॥45॥
  
चढ़िबो मोम तुरंग पर, चलिबो पावक मांहि । <BR/>
+
खरच बढ्यो, उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं ॥ 50 ॥ <BR/><BR/>
+
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन॥46॥
  
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस । <BR/>
+
खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय।
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देस ॥ 51 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन करुए मुखन को, चहिअत इहै सजाय॥47॥
  
छोटेन सों सोहैं बड़े, कहि रहीम यह लेख । <BR/>
+
खैंचि चढ़नि, ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति।
सहसन को हय बांधियत, लै दमरी की मेख ॥ 52 ॥ <BR/><BR/>
+
आज काल मोहन गही, बंस दिया की रीति॥48॥
  
चरन छुए मस्तक छुए, तेहु नहिं छांड़ति पानि । <BR/>
+
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि ॥ 53 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान॥49॥
  
चारा प्यारा जगत में, छाल हित कर लेइ । <BR/>
+
गरज आपनी आपसों, रहिमन कही न जाय।
ज्यों रहीम आटा लगे, त्यों मृदंग सुर देह ॥ 54 ॥ <BR/><BR/>
+
जैसे कुल की कुलबधू, पर घर जाय लजाय॥50॥
  
छमा बड़ेन को चाहिए, छोटेन को उत्पात । <BR/>
+
गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
का रहीम हरि जो घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥ 55 ॥ <BR/><BR/>
+
रहिमन जगत उधार कर, और न कछू उपाव॥51॥
जलहिं मिलाइ रहीम ज्यों, कियों आपु सग छीर । <BR/>
+
अगवहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर ॥ 56 ॥ <BR/><BR/>
+
  
जब लगि जीवन जगत में, सुख-दु:ख मिलन अगोट । <BR/>
+
गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते का‍ढ़ि।
रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुन सिर चोट ॥ 57 ॥ <BR/><BR/>
+
कूपहु ते कहुँ होत है, मन काहू को बा‍ढ़ि॥52॥
  
जहां गांठ तहं रस नहीं, यह रहीम जग जोय । <BR/>
+
गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि।
मंडप तर की गांठ में, गांठ गांठ रस होय ॥ 58 ॥ <BR/><BR/>
+
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतोरी आहि॥53॥
  
जब लगि विपुने न आपनु, तब लगि मित्त न कोय । <BR/>
+
चरन छुए मस्‍तक छुए, तेहु नहिं छाँड़ति पानि।
रहिमन अंबुज अंबु बिन, रवि ताकर रिपु होय ॥ 59 ॥ <BR/><BR/>
+
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि॥54॥
  
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह । <BR/>
+
चारा प्‍यारा जगत में, छाला हित कर लेय।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छांड़ति छोह ॥ 60 ॥ <BR/><BR/>
+
ज्‍यों रहीम आटा लगे, त्‍यों मृदंग स्‍वर देय॥55॥
  
जे अनुचितकारी तिन्हे, लगे अंक परिनाम । <BR/>
+
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
लखे उरज उर बेधिए, क्यों होहि मुख स्याम ॥ 61 ॥ <BR/><BR/>
+
जिनको कछू चाहिए, वे साहन के साह॥56॥
  
जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग । <BR/>
+
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ॥ 62 ॥ <BR/><BR/>
+
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥57॥
  
जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिय बिचमौन । <BR/>
+
चिंता बुद्धि परेखिए, टोटे परख त्रियाहि।
तासों सुख-दुख कहन की, रही बात अब कौन ॥ 63 ॥ <BR/><BR/>
+
उसे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनी किआहि॥58॥
  
जेहि अंचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात । <BR/>
+
छिमा बड़न को चाहिए, छोटेन को उतपात।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु है जात ॥ 64 ॥ <BR/><BR/>
+
का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥59॥
  
जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि । <BR/>
+
छोटेन सो सोहैं बड़े, कहि रहीम यह रेख।
चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत ते बाढ़ि ॥ 65 ॥ <BR/><BR/>
+
सहसन को हय बाँधियत, लै दमरी की मेख॥60॥
 
+
</poem>
जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह । <BR/>
+
धरती ही पर परत हैं, सीत घाम और मेह ॥ 66 ॥ <BR/><BR/>
+
जो पुरुषारथ ते कहूं, संपति मिलत रहीम । <BR/>
+
पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥ 67 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं । <BR/>
+
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं ॥ 68 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो घर ही में घुसि रहै, कदली सुपत सुडील । <BR/>
+
तो रहीम तिन ते भले, पथ के अपत करील ॥ 69 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि । <BR/>
+
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि ॥ 70 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को यही हवाल । <BR/>
+
तो काहे कर पर धरयो, गोबर्धन गोपाल ॥ 71 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग । <BR/>
+
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥ 72 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ ही इतराय । <BR/>
+
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय ॥ 73 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो मरजाद चली सदा, सोइ तो ठहराय । <BR/>
+
जो जल उमगें पार तें, सो रहीम बहि जाय ॥ 74 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय । <BR/>
+
बारे उजियारे लगै, बढ़े अंधेरो होय ॥ 75 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट । <BR/>
+
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥ 76 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ । <BR/>
+
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावण साथ ॥ 77 ॥ <BR/><BR/>
+
जो रहीम मन हाथ है, तो मन कहुं किन जाहि । <BR/>
+
ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं ॥ 78 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम होती कहूं, प्रभु गति अपने हाथ । <BR/>
+
तो काधों केहि मानतो, आप बढ़ाई साथ ॥ 79 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस । <BR/>
+
निठुरा आगे रोयबो, आंसु गारिबो खीस ॥ 80 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात । <BR/>
+
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात ॥ 81 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार । <BR/>
+
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥ 82 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
जो रहीम रहिबो चहो, कहौ वही को ताउ । <BR/>
+
जो नृप वासर निशि कहे, तो कचपची दिखाउ ॥ 83 ॥ <BR/><BR/>
+
 
+
ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात । <BR/>
+
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपने हाथ ॥ 84 ॥ <BR/><BR/>
+
 
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तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान । <BR/>
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कहि रहीम परकाज हित, संपति-सचहिं सुजान ॥ 85 ॥ <BR/><BR/>
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तैं रहीम मन आपनो, कीन्हो चारु चकोर । <BR/>
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निसि वासर लाग्यो रहै, कृष्ण्चन्द्र की ओर ॥ 86 ॥ <BR/><BR/>
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तन रहीम है करम बस, मन राखौ वहि ओर । <BR/>
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जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥ 87 ॥ <BR/><BR/>
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तै रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय । <BR/>
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खस काजद को पूतरा, नमी मांहि खुल जाय ॥ 88 ॥ <BR/><BR/>
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तबहीं लो जीबो भलो, दीबो होय न धीम । <BR/>
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जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥ 89 ॥ <BR/><BR/>
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तासो ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस । <BR/>
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रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास ॥ 90 ॥ <BR/><BR/>
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दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि । <BR/>
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पै रहीम चाकत रटनि, सरवर को कोउ नाहि ॥ 91 ॥ <BR/><BR/>
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थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात । <BR/>
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धनी पुरुष निर्धन भए, करे पाछिली बात ॥ 92 ॥ <BR/><BR/>
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दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अन्धु । <BR/>
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भली विचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥ 93 ॥ <BR/><BR/>
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दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय । <BR/>
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जो रहीम दीनहिं लखत, दीबन्धु सम होय ॥ 94 ॥ <BR/><BR/>
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दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि । <BR/>
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सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥ 95 ॥ <BR/><BR/>
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दीरघ दोहा अरथ के, आरवर थोरे आहिं । <BR/>
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ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहि ॥ 96 ॥ <BR/><BR/>
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दुरदिन परे रहीम कहि, दुश्थल जैयत भागि । <BR/>
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ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ॥ 97 ॥ <BR/><BR/>
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दु:ख नर सुनि हांसि करैं, धरत रहीम न धीर । <BR/>
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कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥ 98 ॥ <BR/><BR/>
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धनि रहीम जलपंक को, लघु जिय पियत अघाय । <BR/>
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उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय ॥ 99 ॥ <BR/><BR/>
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धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात । <BR/>
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जैसे कुल की कुलवधु, चिथड़न माहि समात ॥ 100 ॥ <BR/><BR/>
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13:16, 11 जून 2015 के समय का अवतरण

तैं रहीम मन आपुनो, कीन्‍हों चारु चकोर।
निसि बासर लागो रहै, कृष्‍णचंद्र की ओर॥1॥

अच्‍युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल॥2॥

अधम वचन काको फल्‍यो, बैठि ताड़ की छाँह।
रहिमन काम न आय है, ये नीरस जग माँह॥3॥

अन्‍तर दाव लगी रहै, धुआँ न प्रगटै सोइ।
कै जिय आपन जानहीं, कै जिहि बीती होइ॥4॥

अनकीन्‍हीं बातैं करै, सोवत जागे जोय।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय॥5॥

अनुचित उचित रहीम लघु, क‍रहिं बड़ेन के जोर।
ज्‍यों ससि के संजोग तें, पचवत आगि चकोर॥6॥

अनुचित वचन न मानिए जदपि गुराइसु गाढ़ि।
है र‍हीम रघुनाथ तें, सुजस भरत को बाढ़ि॥7॥

अब रहीम चुप करि रहउ, समुझि दिनन कर फेर।
जब दिन नीके आइ हैं बनत न लगि है देर॥8॥

अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥9॥

अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि॥10॥

अमृत ऐसे वचन में, रहिमन रिस की गाँस।
जैसे मिसिरिहु में मिली, निरस बाँस की फाँस॥11॥

अरज गरज मानैं नहीं, रहिमन ए जन चारि।
रिनिया, राजा, माँगता, काम आतुरी नारि॥12॥

असमय परे रहीम कहि, माँगि जात तजि लाज।
ज्‍यों लछमन माँगन गये, पारासर के नाज॥13॥

आदर घटे नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं।
जो रहीम कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं॥14॥

आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल॥15॥

आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह।
जीरन होत न पेड़ ज्‍यौं, थामे बरै बरेह॥16॥

उरग, तुरंग, नारी, नृपति, नीच जाति, हथियार।
रहिमन इन्‍हें सँभारिए, पलटत लगै न बार॥17॥

ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही कॉंति।
त्‍यौं रहीम सुख दुख सवै, बढ़त एक ही भाँति॥18॥

एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड॥19॥

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥20॥

ए रहीम दर दर फिरहिं, माँगि मधुकरी खाहिं।
यारो यारी छो‍ड़िये वे रहीम अब नाहिं॥21॥

ओछो काम बड़े करैं तौ न बड़ाई होय।
ज्‍यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय॥22॥

अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय।
जिन आँखिन सों हरि लख्‍यो, रहिमन बलि बलि जाय॥23॥

अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिक्‍कन पान।
हस्‍ती-ढक्‍का, कुल्‍हड़िन, सहैं ते तरुवर आन॥24॥

कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्‍वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥25॥

कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की बधू, क्‍यों न चंचला होय॥26॥

कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्‍यों न फजीहत होय॥27॥

करत निपुनई गुन बिना, रहिमन निपुन हजूर।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि मोहि समान को कूर॥28॥

करम हीन रहिमन लखो, धँसो बड़े घर चोर।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जागत ह्वै गौ भोर॥29॥

कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय।
तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय॥30॥

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
घटै बढ़ै उनको कहा, घास बेंचि जे खात॥31॥

कहि रहीम य जगत तैं, प्रीति गई दै टेर।
रहि रहीम नर नीच में, स्‍वारथ स्‍वारथ हेर॥32॥

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत॥33॥

कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय।
माया ममता मोह परि, अंत चले पछिताय॥34॥

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥35॥

कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्वै जाय।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय॥36॥

कागद को सो पूतरा, सहजहि मैं घुलि जाय।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय॥37॥

काज परै कछु और है, काज सरै कछु और।
रहिमन भँवरी के भए नदी सिरावत मौर॥38॥

काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई॥39॥

कहा करौं बै‍कुंठ लै, कल्‍प बृच्‍छ की छाँह।
रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बाँह॥40॥

काह कामरी पामरी, जाड़ गए से काज।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्‍यो मिलै अनाज॥41॥

कुटिलन संग रहीम क‍हि, साधू बचते नाहिं।
ज्‍यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहिं॥42॥

कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगर सों वैर॥43॥

कोउ रहीम जनि काहु के, द्वार गये पछिताय।
संपति के सब जात हैं, विपति सबै लै जाय॥44॥

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।
केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गये रहीम॥45॥

खरच बढ्यो, उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन॥46॥

खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहिअत इहै सजाय॥47॥

खैंचि चढ़नि, ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति।
आज काल मोहन गही, बंस दिया की रीति॥48॥

खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान॥49॥

गरज आपनी आपसों, रहिमन कही न जाय।
जैसे कुल की कुलबधू, पर घर जाय लजाय॥50॥

गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछू उपाव॥51॥

गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते का‍ढ़ि।
कूपहु ते कहुँ होत है, मन काहू को बा‍ढ़ि॥52॥

गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि।
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतोरी आहि॥53॥

चरन छुए मस्‍तक छुए, तेहु नहिं छाँड़ति पानि।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि॥54॥

चारा प्‍यारा जगत में, छाला हित कर लेय।
ज्‍यों रहीम आटा लगे, त्‍यों मृदंग स्‍वर देय॥55॥

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह॥56॥

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥57॥

चिंता बुद्धि परेखिए, टोटे परख त्रियाहि।
उसे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनी किआहि॥58॥

छिमा बड़न को चाहिए, छोटेन को उतपात।
का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥59॥

छोटेन सो सोहैं बड़े, कहि रहीम यह रेख।
सहसन को हय बाँधियत, लै दमरी की मेख॥60॥