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"दरद दिसावर भाग-4 / भागीरथसिंह भाग्य" के अवतरणों में अंतर

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<poem>सूका सूका खेतडा पण नैणा मै बाढ ।
 
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कितरा ही दुहा लिखूँ अकथ रहीज्या भाव ।
 
कितरा ही दुहा लिखूँ अकथ रहीज्या भाव ।
 
परदेसी रो दरद तो है गूंगै रो भाव ॥  
 
परदेसी रो दरद तो है गूंगै रो भाव ॥  
कठिन राजस्थानी शब्दो के हिन्दी अर्थ :-
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जठै - जहां
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पर पूठ = पीछे से
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रूंखडा = पेड़
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खळा = खलिहान
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धोरा = टीला
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बां खातर = उसके लिये
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तज =त्याग
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बिरथा = व्यर्थ
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जूण = योनी
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चौपड़= चौसर ( एक प्रकार का खेल )
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ठीडै = जगह
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ठुकरेश = राजपूती हेकडी
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ठोड अर ठांयचै = जगह ठिकाना
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हिरण्यां और कीरत्यां = एक प्रकार के तारे जो रात्री में समय देखने के काम आते है
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पाण्डियो =पंडित
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जजमान = यजमान
+
* बेलिया -साथी
+
* बध बध - आगे आकर
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* ओळमा - उलाहना
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*बाँथ- आलिंगन
+
*पैली - एक
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*सायना -हम उमर
+
*सेज़ाँ - शयन करने की जगह
+
*गौरडी - गणगौर जैसी नायिका
+
* गेल -पिछला
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*परणेत - पत्नी
+
*बेली- साथी
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*लोगडा - आम आदमी
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*घूमन - फिरना
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*बेलिया- साथिया
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*पीसां - पैसे
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*सगळा -सभी
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*कग्यो - कह गया
+
*मांड्या - लिखना
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*कंवळै - दीवार पर
+
*मैडी - ऊंचा स्थान
+
*दोरा सोरा - जैसे तैसे किसी कार्य को करना
+
*गैला - पागल
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*लाजां - लज्जा
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*चीरडा - चिथड़े
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* रात्यूं - रात भर
+
*फाग - एक प्रकार की ओढ़नी जो फाल्गुन में राजस्थानी औरते पहनती है
+
*सून्पी- सौंप दिया
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* र्रैँतां थका - होने के बावजूद
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*सूगली - गंदी
+
*डूंगरी - पहाडी
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*कैडो - कैसा
+
*जिण रो - जिस का
+
पण - परंतु
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कोनी- नही
+
सूँ- से
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साढ- आषाढ (महिना)
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मेह- बारिश
+
पून- हवा
+
सोळा- सोलह
+
निपजैली- पैदा होगी
+
टीबडी - छोटा खेत जिसमे एक छोटा टीला भी हो
+
मांडूला - शादी तय करूंगा
+
मोकळा - प्रयाप्त
+
करजै - कर्ज
+
रूखाळी - रखवाली
+
चान्दो - चन्द्र्मा ( नायक को दी गयी उपमा )
+
पिणघट - पनघट
+
ठांव - अड्डा
+
पिरमा- प्रेमा नाम का अपभ्रंश रूप
+
पीव - प्रेमी
+
घिरसत - गृहस्थी
+
घाटै - गरीबी
+
बिक्या- बिकना (विक्रय)
+
हुसी- होगा
+
जद- जब
+
अकथ- जो कहा न जा सके
+
सगळा - सब
+
नीरती - पशुधन को भोजन देना
+
डांगर ढोर - पशुधन
+
बावडै - वापिस आना
+
मिस- बहाना करना
+
मांडदी - लिख दी
+
अचपळी - नटखट
+
घणी - ज्यादा
+
कुचमाद - बदमाशी
+
रवै - रहना
+
जाग्या - जागना
+
आवै - आना
+
आवडै - पसन्द आना
+
कींकर - कैसे
+
छान - फूस की छत
+
घरघूल्या - घरौन्दे
+
पाछी - वापस
+
लेग्या- लेकर जाना
+
ओपरा - पराया
+
लूकै - छिपना
+
जांटी - खेजडी ( राजस्थानी वृक्ष )
+
आण - ओट मे , सोगन्ध </poem>
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14:12, 30 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण

सूका सूका खेतडा पण नैणा मै बाढ ।
घर मँ कोनी बाजरी ऊपर सूँ दो साढ ॥

जद सूँ पाकी बाजरी काचर मोठ समेत ।
दिन भर नापै चाव सूँ पटवारी जी खेत ॥

फिर फिर आवै बादळी घिर घिर आवै मेह ।
सर सर करती पून मँ थर थर कांपै देह ॥

होगी सोळा साल री बेटी करै बणाव ।
कद निपजैली टीबडी कद मांडूला ब्याव ॥

टूटी फूटी झूँपडी बरसै गरजै गाज ।
इण चौमासै रामजी दोराँ रहसी लाज ॥

टाबर टीकर मोकळाँ करजै री भरमार ।
राम रूखाळी राखजै थाँ सरणै घरबार ॥

निरधनियाँ नै धन मिल्यो रोजणख्याँ नै राग ।
राम बता कद जागसी परदेसी रा भाग ॥

उगतो पिणघट ऊपराँ सुणतो मिठी बात ।
गळी गुवाडी घूमतो चान्दो सारी रात ॥

ना पिणघट ना बावडी ना कोयल ना छाँव ।
तो भी चोखो सहर सूँ म्हारो आधो गांव ॥

सांझ ढळ्याँ नित जांवता देखै सारो गांव ।
पिरमा थारी लाडली पटवारी रै ठांव ॥

पैली उठती गौरडी पाछै उठती भोर ।
झांझर कै ही नीरती सगळा डांगर ढोर ॥

छैल सहर सूँ बावडै खरचै धोबा धोब ।
पडै गांव मै रात दिन पटवारी सा रोब ॥

जद मन तरस्यो गांव नै जद जद हुयो अधीर ।
दूहा रै मिस मांडदी परदेसी री पीर ॥

प्रीत आपरी अचपळी घणी करै कुचमाद ।
सुपना मै सामी रवै जाग्या आवै याद ॥

पाती लिख रियो गांव नै अपरंच ओ समचार ।
दुख पावुँ परदेस मँ जीवूँ हूँ मन मार ॥


राग रंग नी आवडै कींकर उपजै तान ।
घर मै कोनी बाजरी अर टूट्योडी छान ॥

घर दे घर रूजगार दे घर घर री दे साख ।
ना देवै तो सांवरा जीवण पाछो राख ॥

बिन हरियाळी रूंखडा घरघूल्या सा ठांव ।
’राही’ दीखै दूर सूँ थारो आधो गांव ॥

लेग्या तो हा गांव सूँ कंचन देही राज ।
पाछी ल्याया सहर सूँ खांसी कब्जी खाज ॥

गाय चराती छोरडयाँ जोबन सूँ अणजाण ।
देख ओपरा जा लूकै कर जांटी री आण ।।

जोध जुवानी बेलड्याँ मिलसी करयाँ बणाव ।
आखडजै मत पावणा पगडंड्या रै गांव ॥

के तडपासी बादळी के कोयल री कूक ।
पैली ही सूँ काळजो हुयो पड्यो दो टूक ॥

अजब पीर परदेस री म मर जीवै जीव ।
घर मै तरसै गोरडी परदेसाँ मै पीव ।।

ना आंचळ ना घूंघटो ना हीवडै मै लाज ।
घिरसत पाळै गोरडी रोटी पोवै राज ॥

घाटै रो घर दे दिये दुख दीजै अणचींत ।
मतना दीजे सांवरा परदेसी री प्रीत ॥

धान महाजन रै घराँ ढोर बिक्या बे दाम ।
करज पुराणो बाप रो कीयाँ चुकै राम ॥

बेटो तो परदेस मै घर बूढा मा बाप ।
दोनो पीढी दो जघाँ दुख भोगै चुपचाप ॥

ठाला बिन रूजगार कै ताना देता लोग ।
भरी न अब तक गांव सूँ मनस्या बळण जोग ॥

जद जासी परदेस तूँ हुसी जद बरबाद ।
दरद दिसावर ई कडया रोज करैलो याद ॥

कितरा ही दुहा लिखूँ अकथ रहीज्या भाव ।
परदेसी रो दरद तो है गूंगै रो भाव ॥