भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आईनों से रहित कमरा / मुत्तुलक्ष्मी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=मुत्तुलक्ष्मी
 
|रचनाकार=मुत्तुलक्ष्मी
}}{{KKAnthologyDeshBkthi}}
+
}}
{{KKCatKavita‎}}<poem>जहां भी जिस तरफ भी मुड़े  
+
{{KKCatKavita‎}}
 +
<poem>
 +
जहां भी जिस तरफ भी मुड़े  
 
सामने से आनेवाले लोगों के अंदर
 
सामने से आनेवाले लोगों के अंदर
 
अपने ही सरिस कोई तत्व देखने से
 
अपने ही सरिस कोई तत्व देखने से

11:30, 2 जनवरी 2015 के समय का अवतरण

जहां भी जिस तरफ भी मुड़े
सामने से आनेवाले लोगों के अंदर
अपने ही सरिस कोई तत्व देखने से
मन में उठे भय के कारण
मेरा दुबका कोई स्थान
आईनों से रहित कमरा

'फलां ही है' कहकर
पहचान कराने वाले
आईने से रहित कमरा

सदा की तरह् नहीं हूं
किसी की तरह् नहीं हूं
ना, ना, यो
अपने भीतर बुदबुदाते
मंत्रों से पूरित कमरा

सदा की तरह की किसी चीज को
नकारते हुए
बदलते हुए
सजाया गया कमरा

कभी प्रवेश करने वाले व्यक्ति से
कहती रहती हूं
आईनों से रहित
बदली हुई सजावट वाला है
मेरा यह कमरा
वही मैं बोल रही हूं
और
सुन रही हूं वही मैं|

अनुवाद- डॉ. एच. बालसुब्रहमण्यम‌