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<div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;">
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
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खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार</div>
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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
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<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अन्वेषण ('''रचनाकार:''' [[रामनरेश त्रिपाठी ]])</div>
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</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
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मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
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तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥
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तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।
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<div style="text-align: center;">
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥
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रचनाकार: [[त्रिलोचन]]
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मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
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<div style="background: #fff; border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; margin: 0 auto; padding: 0 20px; white-space: pre;">
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥
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खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
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अपरिचित पास आओ
  
बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
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आँखों में सशंक जिज्ञासा
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥
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मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा
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जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं
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स्तम्भ शेष भय की परिभाषा
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हिलो-मिलो फिर एक डाल के
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खिलो फूल-से, मत अलगाओ
  
बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
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सबमें अपनेपन की माया
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥
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अपने पन में जीवन आया  
 
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मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
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उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥
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बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
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मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥
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तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं।
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तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥
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तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था।
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पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में॥
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क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही।
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तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में॥
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प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना।
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तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में॥
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आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में।
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मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में॥
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कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है।
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हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में॥
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तू रूप की किरन में सौंदर्य है सुमन में।
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तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में॥
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तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में।
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तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में॥
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हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू।
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देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में॥
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कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
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मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में॥
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दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ।
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ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में॥
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19:38, 7 मार्च 2015 के समय का अवतरण

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार

रचनाकार: त्रिलोचन

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार अपरिचित पास आओ

आँखों में सशंक जिज्ञासा मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं स्तम्भ शेष भय की परिभाषा हिलो-मिलो फिर एक डाल के खिलो फूल-से, मत अलगाओ

सबमें अपनेपन की माया अपने पन में जीवन आया