"प्रलय की छाया / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की | थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की | ||
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सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में! | सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में! | ||
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और उस दिन तो; | और उस दिन तो; | ||
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निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से | निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से | ||
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सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ। | सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ। | ||
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दूरागत वंशी रव | दूरागत वंशी रव | ||
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गूँजता था धीवरों की छोटी-छोटी नावों से। | गूँजता था धीवरों की छोटी-छोटी नावों से। | ||
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मेरे उस यौवन के मालती-मुकुल में | मेरे उस यौवन के मालती-मुकुल में | ||
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रंध्र खोजती थी, रजनी की नीली किरणें | रंध्र खोजती थी, रजनी की नीली किरणें | ||
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उसे उकसाने को-हँसाने को। | उसे उकसाने को-हँसाने को। | ||
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पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगन्ध से | पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगन्ध से | ||
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कस्तरी मृग जैसी। | कस्तरी मृग जैसी। | ||
पश्चिम जलधि में, | पश्चिम जलधि में, | ||
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मेरी लहरीली नीली अलकावली समान | मेरी लहरीली नीली अलकावली समान | ||
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लहरें उठती थी मानों चूमने को मुझको, | लहरें उठती थी मानों चूमने को मुझको, | ||
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और साँस लेता था संसार मुझे छुकर। | और साँस लेता था संसार मुझे छुकर। | ||
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नृत्यशीला शैशव की स्फूर्तियाँ | नृत्यशीला शैशव की स्फूर्तियाँ | ||
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दौड़कर दूर जा खड़ी हो हँसने लगी। | दौड़कर दूर जा खड़ी हो हँसने लगी। | ||
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मेरे तो, | मेरे तो, | ||
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चरण हुए थे विजड़ित मधु भार से। | चरण हुए थे विजड़ित मधु भार से। | ||
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हँसती अनंग-बालिकाएँ अन्तरिक्ष में | हँसती अनंग-बालिकाएँ अन्तरिक्ष में | ||
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मेरी उस क्रीड़ा के मधु अभिषेक में | मेरी उस क्रीड़ा के मधु अभिषेक में | ||
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नत शिर देख मुझे। | नत शिर देख मुझे। | ||
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कमनीयता थी जो समस्त गुजरात की | कमनीयता थी जो समस्त गुजरात की | ||
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हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में, | हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में, | ||
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पलकें मदिर भार से थीं झुकी पड़ती। | पलकें मदिर भार से थीं झुकी पड़ती। | ||
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नन्दन की शत-शत दिव्य कुसुम-कुन्तला | नन्दन की शत-शत दिव्य कुसुम-कुन्तला | ||
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अप्सराएँ मानो वे सुगन्ध की पुतलियाँ | अप्सराएँ मानो वे सुगन्ध की पुतलियाँ | ||
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आ आकर चूम रहीं अरुण अधर मेरा | आ आकर चूम रहीं अरुण अधर मेरा | ||
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जिसमें स्वयं ही मुस्कान खिल पड़ती। | जिसमें स्वयं ही मुस्कान खिल पड़ती। | ||
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नूपुरों की झनकार घुली-मिली जाती थी | नूपुरों की झनकार घुली-मिली जाती थी | ||
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चरण अलक्तक की लाली से | चरण अलक्तक की लाली से | ||
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जैसे अन्तरिक्ष की अरुणिमा | जैसे अन्तरिक्ष की अरुणिमा | ||
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पी रही दिगन्त व्यापी सन्ध्या संगीत को। | पी रही दिगन्त व्यापी सन्ध्या संगीत को। | ||
कितनी मादकता थी? | कितनी मादकता थी? | ||
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लेने लगी झपकी मैं | लेने लगी झपकी मैं | ||
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सुख रजनी की विश्रम्भ-कथा सुनती; | सुख रजनी की विश्रम्भ-कथा सुनती; | ||
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जिसमें थी आशा | जिसमें थी आशा | ||
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अभिलाषा से भरी थी जो | अभिलाषा से भरी थी जो | ||
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कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद में | कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद में | ||
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जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी। | जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी। | ||
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"आँखे खुली; | "आँखे खुली; | ||
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देखा मैने चरणों में लोटती थी | देखा मैने चरणों में लोटती थी | ||
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विश्व की विभव-राशि, | विश्व की विभव-राशि, | ||
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और थे प्रणत वहीं गुर्ज्जर-महीप भी। | और थे प्रणत वहीं गुर्ज्जर-महीप भी। | ||
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वह एक सन्ध्या था।" | वह एक सन्ध्या था।" | ||
− | + | "श्यामा सृष्टि युवती थी | |
− | + | तारक-खचिक नीलपट परिधान था | |
− | "श्यामा | + | |
− | + | ||
− | तारक-खचिक | + | |
− | + | ||
अखिल अनन्त में | अखिल अनन्त में | ||
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चमक रही थी लालसा की दीप्त मणियाँ | चमक रही थी लालसा की दीप्त मणियाँ | ||
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ज्योतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी | ज्योतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी | ||
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बहती थी धीरे-धीरे सरिता | बहती थी धीरे-धीरे सरिता | ||
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उस मधु यामिनी में | उस मधु यामिनी में | ||
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मदकल मलय पवन ले ले फूलों से | मदकल मलय पवन ले ले फूलों से | ||
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मधुर मरन्द-बिन्दु उसमें मिलाता था। | मधुर मरन्द-बिन्दु उसमें मिलाता था। | ||
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चाँदनी के अंचल में। | चाँदनी के अंचल में। | ||
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हरा भरा पुलिन अलस नींद ले रहा। | हरा भरा पुलिन अलस नींद ले रहा। | ||
सृष्टि के रहस्य भी परखने को मुझको | सृष्टि के रहस्य भी परखने को मुझको | ||
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तारिकाएँ झाँकती थी। | तारिकाएँ झाँकती थी। | ||
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शत शतदलों की | शत शतदलों की | ||
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मुद्रित मधुर गन्ध भीनी-भीनी रोम में | मुद्रित मधुर गन्ध भीनी-भीनी रोम में | ||
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बहाती लावण्य धारा। | बहाती लावण्य धारा। | ||
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स्मर शशि किरणें | स्मर शशि किरणें | ||
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स्पर्श करती थी इस चन्द्रकान्त मणि को | स्पर्श करती थी इस चन्द्रकान्त मणि को | ||
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स्निग्धता बिछलाती थी जिस मेरे अंग पर। | स्निग्धता बिछलाती थी जिस मेरे अंग पर। | ||
अनुराग पूर्ण था हृदय उपहार में | अनुराग पूर्ण था हृदय उपहार में | ||
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गुर्ज्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के, | गुर्ज्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के, | ||
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तिरते थे | तिरते थे | ||
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मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में। | मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में। | ||
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पीते मकरन्द थे | पीते मकरन्द थे | ||
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मेरे इस अधखिले आनन सरोज का | मेरे इस अधखिले आनन सरोज का | ||
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कितना सोहाग था, कैसा अनुराग था? | कितना सोहाग था, कैसा अनुराग था? | ||
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खिली स्वर्ण मल्लिका की सुरभित वल्लरी-सी | खिली स्वर्ण मल्लिका की सुरभित वल्लरी-सी | ||
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गुर्ज्जर के थाले में मरन्द वर्षा करती मैं।" | गुर्ज्जर के थाले में मरन्द वर्षा करती मैं।" | ||
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"और परिवर्तन वह! | "और परिवर्तन वह! | ||
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क्षितिज पटी को आन्दोलित करती हुई | क्षितिज पटी को आन्दोलित करती हुई | ||
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नीले मेघ माला-सी | नीले मेघ माला-सी | ||
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नियति-नटी थी आई सहसा गगन में | नियति-नटी थी आई सहसा गगन में | ||
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तड़ित विलास-सी नचाती भौहें अपनी।" | तड़ित विलास-सी नचाती भौहें अपनी।" | ||
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"पावक-सरोवर में अवभृथ स्नान था | "पावक-सरोवर में अवभृथ स्नान था | ||
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आत्म-सम्मान-यज्ञ की वह पूर्णाहुति | आत्म-सम्मान-यज्ञ की वह पूर्णाहुति | ||
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सुना-जिस दिन पद्मिनी का जल मरना | सुना-जिस दिन पद्मिनी का जल मरना | ||
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सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य-गाथा | सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य-गाथा | ||
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गूँज उठी भारत के कोने-कोने जिस दिन; | गूँज उठी भारत के कोने-कोने जिस दिन; | ||
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उन्नत हुआ था भाल | उन्नत हुआ था भाल | ||
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महिला-महत्त्व का। | महिला-महत्त्व का। | ||
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दृप्त मेवाड़ के पवित्र बलिदान का | दृप्त मेवाड़ के पवित्र बलिदान का | ||
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ऊर्जित आलोक | ऊर्जित आलोक | ||
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आँख खोलता था सबकी। | आँख खोलता था सबकी। | ||
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सोचने लगी थी कुल-वधुएं, कुमारिकाएँ | सोचने लगी थी कुल-वधुएं, कुमारिकाएँ | ||
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जीवन का अपने भविष्य नये सिर से; | जीवन का अपने भविष्य नये सिर से; | ||
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उसी दिन | उसी दिन | ||
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बींधने लगी थी विषमय परतंत्रता। | बींधने लगी थी विषमय परतंत्रता। | ||
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देव-मन्दिरों की मूक घंटा-ध्वनि | देव-मन्दिरों की मूक घंटा-ध्वनि | ||
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व्यंग्य करती थी जब दीन संकेत से | व्यंग्य करती थी जब दीन संकेत से | ||
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जाग उठी जीवन की लाज भरी निद्रा से। | जाग उठी जीवन की लाज भरी निद्रा से। | ||
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मै भी थी कमला, | मै भी थी कमला, | ||
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रूप-रानी गुजरात की। | रूप-रानी गुजरात की। | ||
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सोचती थी | सोचती थी | ||
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पद्मिनी जली थी स्वयं किन्तु मैं जलाऊँगी | पद्मिनी जली थी स्वयं किन्तु मैं जलाऊँगी | ||
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वह दवानल ज्वाला | वह दवानल ज्वाला | ||
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जिसमें सुलतान जले। | जिसमें सुलतान जले। | ||
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देखे तो प्रचंड रूप-ज्वाला की धधकती | देखे तो प्रचंड रूप-ज्वाला की धधकती | ||
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मुझको सजीव वह अपने विरुद्ध। | मुझको सजीव वह अपने विरुद्ध। | ||
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आह! कैसी वह स्पर्द्धा थी? | आह! कैसी वह स्पर्द्धा थी? | ||
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स्पर्द्धा थी रूप की | स्पर्द्धा थी रूप की | ||
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पद्मिनी की वाह्य रूप-रेखा चाहे तुच्छ थी, | पद्मिनी की वाह्य रूप-रेखा चाहे तुच्छ थी, | ||
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मेरे इस साँचे मे ढले हुए शरीर के | मेरे इस साँचे मे ढले हुए शरीर के | ||
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सन्मुख नगण्य थी। | सन्मुख नगण्य थी। | ||
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देखकर मुकुर, पवित्र चित्र पद्मिनी का | देखकर मुकुर, पवित्र चित्र पद्मिनी का | ||
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तुलना कर उससे, | तुलना कर उससे, | ||
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मैने समझा था यही। | मैने समझा था यही। | ||
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वह अतिरंजित-सी तूलिका चितेरी की | वह अतिरंजित-सी तूलिका चितेरी की | ||
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फिर भी कुछ कम थी। | फिर भी कुछ कम थी। | ||
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किन्तु था हृदय कहाँ? | किन्तु था हृदय कहाँ? | ||
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वैसा दिव्य | वैसा दिव्य | ||
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अपनी कमी थी इतरा चली हृदय की | अपनी कमी थी इतरा चली हृदय की | ||
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लधुता चली थी माप करने महत्त्व की। | लधुता चली थी माप करने महत्त्व की। | ||
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"अभिनय आरम्भ हुआ | "अभिनय आरम्भ हुआ | ||
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अन-हलवाड़ा में अनल चक्र घूमा फिर | अन-हलवाड़ा में अनल चक्र घूमा फिर | ||
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चिर अनुगत सौन्दर्य के समादर में | चिर अनुगत सौन्दर्य के समादर में | ||
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गुर्ज्जरेश मेरी उन इंगितों में नाच उठे। | गुर्ज्जरेश मेरी उन इंगितों में नाच उठे। | ||
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नारी के चयन! त्रिगुणात्मक ये सन्निपात | नारी के चयन! त्रिगुणात्मक ये सन्निपात | ||
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किसको प्रमत्त नहीं करते | किसको प्रमत्त नहीं करते | ||
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धैर्य किसका नहीं हरते ये? | धैर्य किसका नहीं हरते ये? | ||
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वही अस्त्र मेरा था। | वही अस्त्र मेरा था। | ||
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एक झटके में आज | एक झटके में आज | ||
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गुर्जर स्वतंत्र साँस लेता था सजीव हो। | गुर्जर स्वतंत्र साँस लेता था सजीव हो। | ||
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क्रोध सुलतान का दग्ध करने लगा | क्रोध सुलतान का दग्ध करने लगा | ||
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दावानल बनकर | दावानल बनकर | ||
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हरा भरा कानन प्रफुल्ल गुजरात का। | हरा भरा कानन प्रफुल्ल गुजरात का। | ||
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बालको की करुण पुकारें, और वृद्धों की | बालको की करुण पुकारें, और वृद्धों की | ||
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आर्तवाणी, | आर्तवाणी, | ||
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क्रन्दन रमणियों का, | क्रन्दन रमणियों का, | ||
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भैरव संगीत बना, तांडव-नृत्य-सा | भैरव संगीत बना, तांडव-नृत्य-सा | ||
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होने लगा गुर्जर में। | होने लगा गुर्जर में। | ||
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अट्टहास करती सजीव उल्लास से | अट्टहास करती सजीव उल्लास से | ||
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फाँद पड़ी मैं भी उस देश की विपत्ति में। | फाँद पड़ी मैं भी उस देश की विपत्ति में। | ||
वही कमला हूँ मैं! | वही कमला हूँ मैं! | ||
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देख चिरसंगिनी रणांगण में, रंग में, | देख चिरसंगिनी रणांगण में, रंग में, | ||
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मेरे वीर पति आह कितने प्रसन्न थे | मेरे वीर पति आह कितने प्रसन्न थे | ||
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बाधा, विध्न, आपदाएँ, | बाधा, विध्न, आपदाएँ, | ||
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अपनी ही क्षुद्रता में टलती-बिचलती | अपनी ही क्षुद्रता में टलती-बिचलती | ||
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हँसते वे देख मुझे | हँसते वे देख मुझे | ||
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मै भी स्मित करती। | मै भी स्मित करती। | ||
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किन्तु शक्ति कितनी थी उस कृत्रिमता में? | किन्तु शक्ति कितनी थी उस कृत्रिमता में? | ||
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संबल बचा न जब कुछ भी स्वदेश में | संबल बचा न जब कुछ भी स्वदेश में | ||
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छोड़ना पड़ा ही उसे। | छोड़ना पड़ा ही उसे। | ||
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निर्वासित हम दोनों खोजते शरण थे, | निर्वासित हम दोनों खोजते शरण थे, | ||
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किन्तु दुर्भाग्य पीछा करने में आगे था। | किन्तु दुर्भाग्य पीछा करने में आगे था। | ||
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"वह दुपहरी थी, | "वह दुपहरी थी, | ||
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लू से झुलसानेवाली; प्यास से जलानेवाली। | लू से झुलसानेवाली; प्यास से जलानेवाली। | ||
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थके सो रहे थे तरुछाया में हम दोनों | थके सो रहे थे तरुछाया में हम दोनों | ||
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तुर्कों का एक दल आया झंझावात-सा। | तुर्कों का एक दल आया झंझावात-सा। | ||
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मेरे गुर्ज्जरेश ! | मेरे गुर्ज्जरेश ! | ||
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आज किस मुख से कहूँ? | आज किस मुख से कहूँ? | ||
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सच्चे राजपूत थे, | सच्चे राजपूत थे, | ||
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वह खंग लीला खड़ी देखती रही मैं वही | वह खंग लीला खड़ी देखती रही मैं वही | ||
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गत-प्रत्यागत में और प्रत्यावर्तन में | गत-प्रत्यागत में और प्रत्यावर्तन में | ||
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दूर वे चले गये, | दूर वे चले गये, | ||
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और हुई बन्दी मै। | और हुई बन्दी मै। | ||
वाह री नियति! | वाह री नियति! | ||
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उस उज्जवल आकाश में | उस उज्जवल आकाश में | ||
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पद्मिनी की प्रतिकृति-सी किरणों में बनकर | पद्मिनी की प्रतिकृति-सी किरणों में बनकर | ||
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व्यंग्य-हास करती थी। | व्यंग्य-हास करती थी। | ||
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एक क्षण भ्रम के भुलावे में डालकर | एक क्षण भ्रम के भुलावे में डालकर | ||
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आज भी नचाता वही, | आज भी नचाता वही, | ||
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आज सोचती हूँ जैसे पद्मिनी थी कहती- | आज सोचती हूँ जैसे पद्मिनी थी कहती- | ||
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"अनुकरण कर मेरा" | "अनुकरण कर मेरा" | ||
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समझ सकी न मैं। | समझ सकी न मैं। | ||
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पद्मिनी की भूल जो थी समझने को | पद्मिनी की भूल जो थी समझने को | ||
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सिंहिनी की दृप्त मूर्ति धारण कर | सिंहिनी की दृप्त मूर्ति धारण कर | ||
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सन्मुख सुलतान के | सन्मुख सुलतान के | ||
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मारने की, मरने की अटल प्रतिज्ञा हुई। | मारने की, मरने की अटल प्रतिज्ञा हुई। | ||
उस अभिमान में | उस अभिमान में | ||
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मैने ही कहा था - छाती ऊँची कर उनसे - | मैने ही कहा था - छाती ऊँची कर उनसे - | ||
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"ले चलो मैं गुर्जर की रानी हूँ, कमला हूँ" | "ले चलो मैं गुर्जर की रानी हूँ, कमला हूँ" | ||
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वाह री! विचित्र मनोवृत्ति मेरी! | वाह री! विचित्र मनोवृत्ति मेरी! | ||
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कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास-शील था? | कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास-शील था? | ||
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उस आपदा में आया ध्यान निज रूप का। | उस आपदा में आया ध्यान निज रूप का। | ||
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रूप यह! | रूप यह! | ||
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देखे तो तुरुष्कपति मेरा भी | देखे तो तुरुष्कपति मेरा भी | ||
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कितनी महीन और कितनी अभूतपूर्व ? | कितनी महीन और कितनी अभूतपूर्व ? | ||
बन्दिनी मैं बैठी रही | बन्दिनी मैं बैठी रही | ||
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देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी। | देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी। | ||
− | |||
यह ऐश्वर्य की दुलारी, प्यारी क्रूरता की | यह ऐश्वर्य की दुलारी, प्यारी क्रूरता की | ||
− | + | एक छलना-सी, सजने लगी थी सन्ध्या में। | |
− | एक छलना-सी, सजने लगी | + | |
− | + | ||
कृष्णा वह आई फिर रजनी भी। | कृष्णा वह आई फिर रजनी भी। | ||
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खोलकर ताराओं की विरल दशन पंक्ति | खोलकर ताराओं की विरल दशन पंक्ति | ||
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अट्टहास करती थी दूर मानो व्योम में । | अट्टहास करती थी दूर मानो व्योम में । | ||
+ | जो न सुन पड़ा अपने ही कोलाहल में! | ||
कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का | कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का | ||
− | |||
कभी निज रूप सुन्दरता की अनुभूति | कभी निज रूप सुन्दरता की अनुभूति | ||
− | |||
क्षणभर चाहती जगाना मैं | क्षणभर चाहती जगाना मैं | ||
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सुलतान ही के उस निर्मम हृदय में, | सुलतान ही के उस निर्मम हृदय में, | ||
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नारी मैं! | नारी मैं! | ||
− | |||
कितनी अबला थी और प्रमदा थी रूप की! | कितनी अबला थी और प्रमदा थी रूप की! | ||
− | + | साहस उमड़ता था वेग-पूर्-ओघ-सा | |
− | + | ||
− | साहस उमड़ता था वेग | + | |
− | + | ||
किन्तु हलकी थी मैं, | किन्तु हलकी थी मैं, | ||
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तृण बह जाता जैसे | तृण बह जाता जैसे | ||
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वैसे मैं विचारों में ही तिरती-सी फिरती। | वैसे मैं विचारों में ही तिरती-सी फिरती। | ||
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कैसी अवहेलना थी यह मेरी शत्रुता की | कैसी अवहेलना थी यह मेरी शत्रुता की | ||
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इस मेरे रूप की। | इस मेरे रूप की। | ||
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आज साक्षात होगा कितने महीनों पर | आज साक्षात होगा कितने महीनों पर | ||
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लहरी-सदृश उठती-सी गिरती-सी मैं | लहरी-सदृश उठती-सी गिरती-सी मैं | ||
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अदूभूत! चमत्कार!! दृप्त निज गरिमा में | अदूभूत! चमत्कार!! दृप्त निज गरिमा में | ||
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एक सौंदर्यमयी वासना की आँधी-सी | एक सौंदर्यमयी वासना की आँधी-सी | ||
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पहुँची समीप सुलतान के। | पहुँची समीप सुलतान के। | ||
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तातारी दासियों मे मुझको झुकाना चाहा | तातारी दासियों मे मुझको झुकाना चाहा | ||
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मेरे ही घुटनों पर, | मेरे ही घुटनों पर, | ||
− | |||
किन्तु अविचल रही। | किन्तु अविचल रही। | ||
− | |||
मणि-मेखला में रही कठिन कृपानी जो | मणि-मेखला में रही कठिन कृपानी जो | ||
− | |||
चमकी वह सहसा | चमकी वह सहसा | ||
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मेरे ही वक्ष का रुधिर पान करने को। | मेरे ही वक्ष का रुधिर पान करने को। | ||
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किन्तु छिन गई वह | किन्तु छिन गई वह | ||
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और निरुपाय मैं तो ऐंठ उठी डोरी-सी, | और निरुपाय मैं तो ऐंठ उठी डोरी-सी, | ||
− | |||
अपमान-ज्वाला में अधीर होके जलती। | अपमान-ज्वाला में अधीर होके जलती। | ||
अन्त करने का और वहीं मर जाने का | अन्त करने का और वहीं मर जाने का | ||
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मेरा उत्साह मन्द हो चला। | मेरा उत्साह मन्द हो चला। | ||
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उसी क्षण बचकर मृत्यु महागर्त से सोचने लगी थी मैं- | उसी क्षण बचकर मृत्यु महागर्त से सोचने लगी थी मैं- | ||
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"जीवन सौभाग्य हैं; जीवन अलभ्य हैं।" | "जीवन सौभाग्य हैं; जीवन अलभ्य हैं।" | ||
− | |||
चारों और लालसा भिखरिणी-सी माँगती थी | चारों और लालसा भिखरिणी-सी माँगती थी | ||
− | |||
प्राणों के कण-कण दयनीय स्पृहणीय | प्राणों के कण-कण दयनीय स्पृहणीय | ||
− | |||
अपने विश्लेषण रो उठे अकिंचन जो | अपने विश्लेषण रो उठे अकिंचन जो | ||
− | |||
"जीवन अनन्त हैं, | "जीवन अनन्त हैं, | ||
− | |||
इसे छिन्न करने का किसे अधिकार हैं?" | इसे छिन्न करने का किसे अधिकार हैं?" | ||
− | |||
जीवन की सीमामयी प्रतिमा | जीवन की सीमामयी प्रतिमा | ||
− | |||
कितनी मधुर हैं? | कितनी मधुर हैं? | ||
− | |||
विश्व-भर से मैं जिसे छाती मे छिपाये रही। | विश्व-भर से मैं जिसे छाती मे छिपाये रही। | ||
कितनी मधुर भीख माँगते हैं सब ही:- | कितनी मधुर भीख माँगते हैं सब ही:- | ||
− | |||
अपना दल-अंचल पसारकर बन-राजी, | अपना दल-अंचल पसारकर बन-राजी, | ||
− | |||
माँगती हैं जीवन का बिन्दु-बिन्दु ओस-सा | माँगती हैं जीवन का बिन्दु-बिन्दु ओस-सा | ||
− | |||
क्रन्दन करता-सा जलनिधि भी | क्रन्दन करता-सा जलनिधि भी | ||
− | |||
माँगता हैं नित्य मानो जरठ भिखारी-सा | माँगता हैं नित्य मानो जरठ भिखारी-सा | ||
− | |||
जीवन की धारा मीठी-मीठी सरिताओं से। | जीवन की धारा मीठी-मीठी सरिताओं से। | ||
− | |||
व्याकुल हो विश्व, अन्ध तम से | व्याकुल हो विश्व, अन्ध तम से | ||
− | |||
भोर में ही माँगता हैं | भोर में ही माँगता हैं | ||
− | |||
"जीवन की स्वर्णमयी किरणें प्रभा भरी। | "जीवन की स्वर्णमयी किरणें प्रभा भरी। | ||
− | + | जीवन ही प्यारा हैं जीवन सौभाग्य है।" | |
− | जीवन ही प्यारा हैं जीवन सौभाग्य | + | |
रो उठी मैं रोष भरी बात कहती हुई | रो उठी मैं रोष भरी बात कहती हुई | ||
− | |||
"मारकर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम? | "मारकर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम? | ||
− | |||
मानती हूँ शक्तिशाली तुम सुलतान हो | मानती हूँ शक्तिशाली तुम सुलतान हो | ||
− | |||
और मैं हूँ बन्दिनी। | और मैं हूँ बन्दिनी। | ||
− | |||
राज्य हैं बचा नहीं, | राज्य हैं बचा नहीं, | ||
− | |||
किन्तु क्या मनुष्यता भी मुझमें रही नहीं | किन्तु क्या मनुष्यता भी मुझमें रही नहीं | ||
− | |||
इतनी मैं रिक्त हूँ ?" | इतनी मैं रिक्त हूँ ?" | ||
− | |||
क्षोभ से भरा कंठ फिर चुप हो रही। | क्षोभ से भरा कंठ फिर चुप हो रही। | ||
शक्ति प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की | शक्ति प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की | ||
− | |||
अनुनय भरी वाणी गूँज उठा कान में। | अनुनय भरी वाणी गूँज उठा कान में। | ||
− | |||
"देखता हूँ मरना ही भारत की नारियों का | "देखता हूँ मरना ही भारत की नारियों का | ||
− | |||
एक गीत-भार हैं! | एक गीत-भार हैं! | ||
− | |||
रानी तुम बन्दिनी हो मेरी प्रार्थनाओं में | रानी तुम बन्दिनी हो मेरी प्रार्थनाओं में | ||
− | |||
पद्मिमी को खो दिया हैं | पद्मिमी को खो दिया हैं | ||
− | |||
किन्तु तुमको नहीं! | किन्तु तुमको नहीं! | ||
− | |||
शासन करोगी इन मेरी क्रुरताओं पर | शासन करोगी इन मेरी क्रुरताओं पर | ||
− | |||
निज कोमलता से-मानस की माधुरी से! | निज कोमलता से-मानस की माधुरी से! | ||
− | |||
आज इस तीव्र उत्तेजना की आँधी में | आज इस तीव्र उत्तेजना की आँधी में | ||
− | |||
सुन न सकोगी, न विचार ही करोगी तुम | सुन न सकोगी, न विचार ही करोगी तुम | ||
− | |||
ठहरो विश्राम करों।" | ठहरो विश्राम करों।" | ||
− | |||
अति द्रुत गति से | अति द्रुत गति से | ||
− | |||
कब सुलतान गये | कब सुलतान गये | ||
− | |||
जान सकी मैं न, और तब से | जान सकी मैं न, और तब से | ||
− | |||
यह रंगमहल बना सुवर्ण पींजरा। | यह रंगमहल बना सुवर्ण पींजरा। | ||
− | |||
− | |||
"एक दिन, संध्या थी; | "एक दिन, संध्या थी; | ||
− | |||
मलिन उदास मेरे हृदय पटल-सा | मलिन उदास मेरे हृदय पटल-सा | ||
− | |||
लाल पीला होता था दिगन्त निज क्षोभ से। | लाल पीला होता था दिगन्त निज क्षोभ से। | ||
− | |||
यमुना प्रशान्त मन्द-मन्द निज धारा में, | यमुना प्रशान्त मन्द-मन्द निज धारा में, | ||
− | |||
करुण विषाद मयी | करुण विषाद मयी | ||
− | |||
बहती थी धरा के तरल अवसाद-सी। | बहती थी धरा के तरल अवसाद-सी। | ||
− | |||
बैठी हुई कालिमा की चित्र-पटी देखती | बैठी हुई कालिमा की चित्र-पटी देखती | ||
− | |||
सहसा मैं चौंक उठी द्रुत पद-शब्द से। | सहसा मैं चौंक उठी द्रुत पद-शब्द से। | ||
− | |||
सामने था | सामने था | ||
− | |||
शैशव से अनुचर | शैशव से अनुचर | ||
− | |||
मानिक युवक अब | मानिक युवक अब | ||
− | |||
खिंच गया सहसा | खिंच गया सहसा | ||
− | |||
पश्चिम-जलधि-कूल का वह सुरम्य चित्र | पश्चिम-जलधि-कूल का वह सुरम्य चित्र | ||
− | |||
मेरी इन दुखिया अँखड़ियों के सामने। | मेरी इन दुखिया अँखड़ियों के सामने। | ||
− | |||
जिसको बना चुका था मेरा यह बालपन | जिसको बना चुका था मेरा यह बालपन | ||
− | + | अद्भुत कुतूहल औ' हँसी की कहानी से। | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
मैने कहा:- | मैने कहा:- | ||
− | |||
"कैसे तू अभागा यहाँ पहुँचा हैं मरने?" | "कैसे तू अभागा यहाँ पहुँचा हैं मरने?" | ||
− | |||
"मरने तो नहीं यहाँ जीवन की आशा में | "मरने तो नहीं यहाँ जीवन की आशा में | ||
− | |||
आ गया हूँ रानी! -भला | आ गया हूँ रानी! -भला | ||
− | |||
कैसे मैं न आता यहाँ?" | कैसे मैं न आता यहाँ?" | ||
− | |||
कह, वह चुप था। | कह, वह चुप था। | ||
− | |||
छूरे एक हाथ में | छूरे एक हाथ में | ||
− | |||
दूसरे सो दोनों हाथ पकड़े हुए वहीं | दूसरे सो दोनों हाथ पकड़े हुए वहीं | ||
− | |||
प्रस्तुत थीं तातारी दासियाँ। | प्रस्तुत थीं तातारी दासियाँ। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
सहसा सुलतान भी दिखाई पड़े, | सहसा सुलतान भी दिखाई पड़े, | ||
− | |||
और मैं थी मूक गरिमा के इन्द्रजाल में । | और मैं थी मूक गरिमा के इन्द्रजाल में । | ||
− | |||
− | |||
"मृत्युदंड!" | "मृत्युदंड!" | ||
− | |||
वज्र-निर्घोष-सा सुनाई पड़ा भीषणतम | वज्र-निर्घोष-सा सुनाई पड़ा भीषणतम | ||
− | |||
मरता है मानिक! | मरता है मानिक! | ||
− | |||
− | |||
− | |||
गूँज उठा कानों में- | गूँज उठा कानों में- | ||
− | |||
"जीवन अलभ्य हैं; जीवन सौभाग्य हैं।" | "जीवन अलभ्य हैं; जीवन सौभाग्य हैं।" | ||
− | |||
− | |||
− | |||
उठी एक गर्व-सी | उठी एक गर्व-सी | ||
− | |||
किन्तु झुक गई अनुनय की पुकार में | किन्तु झुक गई अनुनय की पुकार में | ||
− | |||
"उसे छोड़ दीजिए" - निकल पडा मुँह से। | "उसे छोड़ दीजिए" - निकल पडा मुँह से। | ||
− | |||
− | |||
हँसे सुलतान,और अप्रतिम होती मैं | हँसे सुलतान,और अप्रतिम होती मैं | ||
− | |||
जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज-शृंखला में। | जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज-शृंखला में। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
प्रार्थना लौटाने का उपाय अब कौन था? | प्रार्थना लौटाने का उपाय अब कौन था? | ||
− | |||
अपने अनुग्रह के भार से दबाते हुए | अपने अनुग्रह के भार से दबाते हुए | ||
− | |||
कहा सुलतान ने- | कहा सुलतान ने- | ||
− | |||
"जाने दो रानी की पहली यह आज्ञा हैं।" | "जाने दो रानी की पहली यह आज्ञा हैं।" | ||
− | |||
हाय रे हृदय! तूने | हाय रे हृदय! तूने | ||
− | |||
कौड़ी के मोल बेचा जीवन का मणि-कोष | कौड़ी के मोल बेचा जीवन का मणि-कोष | ||
− | |||
और आकाश को पकड़ने की आशा में | और आकाश को पकड़ने की आशा में | ||
− | |||
हाथ ऊँचा किये सिर दे दिया अतल में। | हाथ ऊँचा किये सिर दे दिया अतल में। | ||
− | |||
− | |||
"अन्तर्निहित था | "अन्तर्निहित था | ||
− | |||
लालसाएँ, वासनाएँ जितनी अभाव में | लालसाएँ, वासनाएँ जितनी अभाव में | ||
− | |||
जीवन की दीनता में और पराधीनता में | जीवन की दीनता में और पराधीनता में | ||
− | |||
पलने लगीं वे चेतना के अनजान में। | पलने लगीं वे चेतना के अनजान में। | ||
− | |||
धीरे-धीरे आती हैं जैसे मादकता | धीरे-धीरे आती हैं जैसे मादकता | ||
− | |||
आँखों के अजान में, ललाई में ही छिपती; | आँखों के अजान में, ललाई में ही छिपती; | ||
− | |||
चेतना थी जीवन की फिर प्रतिशोध की। | चेतना थी जीवन की फिर प्रतिशोध की। | ||
− | |||
किन्तु किस युग से वासना के बिन्दु रहे सींचते | किन्तु किस युग से वासना के बिन्दु रहे सींचते | ||
− | |||
मेरे संवेदनो को। | मेरे संवेदनो को। | ||
− | |||
यामिनी के गूढ़ अन्धकार में | यामिनी के गूढ़ अन्धकार में | ||
− | |||
सहसा जो जाग उठे तारा से | सहसा जो जाग उठे तारा से | ||
− | |||
दुर्बलता को मानती-सी अवलम्ब मैं | दुर्बलता को मानती-सी अवलम्ब मैं | ||
− | |||
खडी हुई जीवन की पिच्छिल-सी भूमि पर। | खडी हुई जीवन की पिच्छिल-सी भूमि पर। | ||
− | |||
बिखरे प्रलोभनों को मानती-सी सत्य मैं | बिखरे प्रलोभनों को मानती-सी सत्य मैं | ||
− | |||
शासन की कामना में झूमी मतवाली हो। | शासन की कामना में झूमी मतवाली हो। | ||
− | |||
− | |||
एक क्षण, भावना के उस परिवर्तन का | एक क्षण, भावना के उस परिवर्तन का | ||
− | |||
कितना अर्जित था? | कितना अर्जित था? | ||
− | |||
जीवित हैं गुर्ज्जरेश! कर्णदेव! | जीवित हैं गुर्ज्जरेश! कर्णदेव! | ||
− | |||
भेजा संदेश मुझे "शीध्र अन्त कर दो | भेजा संदेश मुझे "शीध्र अन्त कर दो | ||
− | |||
जीवन की लीला।" | जीवन की लीला।" | ||
− | |||
लालसा की अर्द्ध कृति-सी! | लालसा की अर्द्ध कृति-सी! | ||
− | |||
उस प्रत्यावर्तन मे प्राण जो न दे सके, हाँ | उस प्रत्यावर्तन मे प्राण जो न दे सके, हाँ | ||
− | |||
जीवित स्वयं हैं। | जीवित स्वयं हैं। | ||
− | |||
− | |||
जियें फिर क्यों न सब अपनी ही आशा में? | जियें फिर क्यों न सब अपनी ही आशा में? | ||
− | |||
बन्दिनी हुई मैं अबला थी; | बन्दिनी हुई मैं अबला थी; | ||
− | |||
प्राणों का लोभ उन्हें फिर क्यों न बचा सका? | प्राणों का लोभ उन्हें फिर क्यों न बचा सका? | ||
− | |||
प्रेम कहाँ मेरा था? | प्रेम कहाँ मेरा था? | ||
− | |||
और मुझमे भी कैसे कहूँ शुद्ध प्रेम था। | और मुझमे भी कैसे कहूँ शुद्ध प्रेम था। | ||
− | |||
मानिक कहता हैं, आह, मुझे मर जाने को। | मानिक कहता हैं, आह, मुझे मर जाने को। | ||
− | |||
रूप न बनाया रानी मुझे गुजरात की, | रूप न बनाया रानी मुझे गुजरात की, | ||
− | |||
वही रूप आज मुझे प्रेरित था करता | वही रूप आज मुझे प्रेरित था करता | ||
− | |||
भारतेश्वरी का पद लेने को। | भारतेश्वरी का पद लेने को। | ||
− | |||
लोभ मेरा मूर्तिमान, प्रतिशोध था बना | लोभ मेरा मूर्तिमान, प्रतिशोध था बना | ||
− | |||
और सोचती थी मैं, आज हूँ विजयिनी | और सोचती थी मैं, आज हूँ विजयिनी | ||
− | |||
चिर पराजित सुलतान पद तल में। | चिर पराजित सुलतान पद तल में। | ||
− | |||
कृष्णागुरुवर्तिका | कृष्णागुरुवर्तिका | ||
− | |||
जल चुकी स्वर्ण पात्र के ही अभिमान में | जल चुकी स्वर्ण पात्र के ही अभिमान में | ||
− | |||
एक धूम-रेखा मात्र शेष थी, | एक धूम-रेखा मात्र शेष थी, | ||
− | |||
उस निस्पन्द रंग मन्दिर के व्योम में | उस निस्पन्द रंग मन्दिर के व्योम में | ||
− | |||
क्षीणगन्ध निरवलम्ब। | क्षीणगन्ध निरवलम्ब। | ||
− | |||
किन्तु मैं समझती थी, यही मेरी जीवन हैं! | किन्तु मैं समझती थी, यही मेरी जीवन हैं! | ||
− | |||
यह उपहार हैं, शृंगार हैं। | यह उपहार हैं, शृंगार हैं। | ||
− | |||
मेरा रूप माधुरी का। | मेरा रूप माधुरी का। | ||
मणि नूपुरों की बीन बजी, झनकार से | मणि नूपुरों की बीन बजी, झनकार से | ||
− | |||
गूँज उठी रंगशाला इस सौन्दर्य की | गूँज उठी रंगशाला इस सौन्दर्य की | ||
− | |||
विश्व था मनाता महोत्सव अभिमान का | विश्व था मनाता महोत्सव अभिमान का | ||
− | |||
आज विजयी था रूप | आज विजयी था रूप | ||
− | |||
और साम्राज्य था नृशंस क्रूरताओं का | और साम्राज्य था नृशंस क्रूरताओं का | ||
− | |||
रूप माधुरी की कृपा-कोर को निरखता | रूप माधुरी की कृपा-कोर को निरखता | ||
− | |||
जिसमें मदोद्धत कटाक्ष की अरुणिमा | जिसमें मदोद्धत कटाक्ष की अरुणिमा | ||
− | |||
व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर। | व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर। | ||
− | |||
अवहेलना से अनुग्रह थे बिखरते । | अवहेलना से अनुग्रह थे बिखरते । | ||
− | |||
− | |||
− | |||
जीवन के स्वप्न सब बनते-बिगड़ते थे | जीवन के स्वप्न सब बनते-बिगड़ते थे | ||
− | |||
भवें बल खाती जब; | भवें बल खाती जब; | ||
− | |||
लोगों की अदृष्ट लिपि लिखी-पढ़ी जाती थी | लोगों की अदृष्ट लिपि लिखी-पढ़ी जाती थी | ||
− | |||
इस मुसक्यान के, पद्मराग-उद्गम से | इस मुसक्यान के, पद्मराग-उद्गम से | ||
− | |||
बहता सुगन्ध की सुधा का सोता मन्द-मन्द। | बहता सुगन्ध की सुधा का सोता मन्द-मन्द। | ||
रतन राजि, सींची जाती सुमन-मरन्द से | रतन राजि, सींची जाती सुमन-मरन्द से | ||
− | |||
कितनी ही आँखों की प्रसन्न नील ताराएँ | कितनी ही आँखों की प्रसन्न नील ताराएँ | ||
− | |||
बनने को मुकुर-अचंचल, निस्पन्द थी। | बनने को मुकुर-अचंचल, निस्पन्द थी। | ||
− | |||
इन्हीं मीन दृगों को चपल संकेत बन | इन्हीं मीन दृगों को चपल संकेत बन | ||
− | |||
शासन, कुमारिका से हिमालय-शृंग तक | शासन, कुमारिका से हिमालय-शृंग तक | ||
− | |||
अथक अबाध और तीव्र मेध-ज्योति-सा | अथक अबाध और तीव्र मेध-ज्योति-सा | ||
− | |||
चलता था- | चलता था- | ||
− | |||
हुआ होगा बनना सफल जिसे देखकर | हुआ होगा बनना सफल जिसे देखकर | ||
− | |||
मंजु मीन-केतन अनंग का। | मंजु मीन-केतन अनंग का। | ||
− | |||
मुकुट पहनते थे सिर, कभी लोटते थे | मुकुट पहनते थे सिर, कभी लोटते थे | ||
− | |||
रक्त दग्ध धरणी मे रूप की विजय में। | रक्त दग्ध धरणी मे रूप की विजय में। | ||
− | |||
हर में सुलतान की | हर में सुलतान की | ||
− | |||
देखती सशंक दृग कोरों से | देखती सशंक दृग कोरों से | ||
− | |||
निज अपमान को।" | निज अपमान को।" | ||
− | |||
− | |||
"बेच दिया | "बेच दिया | ||
− | |||
विश्व इन्द्रजाल में सत्य कहते हैं जिसे; | विश्व इन्द्रजाल में सत्य कहते हैं जिसे; | ||
− | |||
उसी मानवता के आत्म सम्मान को।" | उसी मानवता के आत्म सम्मान को।" | ||
− | |||
− | |||
− | |||
जीवन में आता हैं परखने का | जीवन में आता हैं परखने का | ||
− | |||
जिसे कोई एक क्षण, | जिसे कोई एक क्षण, | ||
− | |||
लोभ, लालसा या भय, क्रोध, प्रतिशोध के | लोभ, लालसा या भय, क्रोध, प्रतिशोध के | ||
− | |||
उग्र कोलाहल में, | उग्र कोलाहल में, | ||
− | |||
जिसकी पुकार सुनाई ही नही पड़ती। | जिसकी पुकार सुनाई ही नही पड़ती। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
सोचा था उस दिन: | सोचा था उस दिन: | ||
− | |||
जिस दिन अधिकार-क्षुब्ध उस दास ने, | जिस दिन अधिकार-क्षुब्ध उस दास ने, | ||
− | |||
अन्त किया छल से काफूर ने | अन्त किया छल से काफूर ने | ||
− | |||
अलाउद्दीन का, मुमूर्षु सुलतान का। | अलाउद्दीन का, मुमूर्षु सुलतान का। | ||
आँधी में नृशंसता की रक्त-वर्षा होने लगी | आँधी में नृशंसता की रक्त-वर्षा होने लगी | ||
− | |||
रूप वाले, शीश वाले, प्यार से फले हुए | रूप वाले, शीश वाले, प्यार से फले हुए | ||
− | |||
प्राणी राज-वंश के | प्राणी राज-वंश के | ||
− | |||
मारे गये। | मारे गये। | ||
− | |||
वह एक रक्तमयी सन्ध्या थी। | वह एक रक्तमयी सन्ध्या थी। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
शक्तिशाली होना अहोभाग्य हैं | शक्तिशाली होना अहोभाग्य हैं | ||
− | |||
और फिर | और फिर | ||
− | |||
बाधा-विध्न-आपदा के तीव्र प्रतिघात का | बाधा-विध्न-आपदा के तीव्र प्रतिघात का | ||
− | |||
सबल विरोध करने में कैसा सुख हैं? | सबल विरोध करने में कैसा सुख हैं? | ||
− | |||
इसका भी अनुभव हुआ था भली-भाँति मुझे | इसका भी अनुभव हुआ था भली-भाँति मुझे | ||
− | |||
किन्तु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की। | किन्तु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की। | ||
− | |||
− | |||
जिस दिन सुना अकिंचन परिवारी ने; | जिस दिन सुना अकिंचन परिवारी ने; | ||
− | |||
आजीवन दास ने, रक्त से रँगे हुए; | आजीवन दास ने, रक्त से रँगे हुए; | ||
− | |||
अपने ही हाथों पहना है राज मुकुट। | अपने ही हाथों पहना है राज मुकुट। | ||
− | |||
− | |||
अन्त कर दास राजवंश का, | अन्त कर दास राजवंश का, | ||
− | |||
लेकर प्रचंड़ प्रतिशोध निज स्वामी का | लेकर प्रचंड़ प्रतिशोध निज स्वामी का | ||
− | |||
मानिक ने, खुसरु के नाम से | मानिक ने, खुसरु के नाम से | ||
− | |||
शासन का दंड किया ग्रहण सदर्प हैं। | शासन का दंड किया ग्रहण सदर्प हैं। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
उसी दिन जान सकी अपनी मैं सच्ची स्थिति | उसी दिन जान सकी अपनी मैं सच्ची स्थिति | ||
− | |||
मैं हूँ किस तल पर? | मैं हूँ किस तल पर? | ||
− | |||
सैकड़ों ही वृश्चिकों का डंक लगा एक साथ | सैकड़ों ही वृश्चिकों का डंक लगा एक साथ | ||
− | |||
मैं जो करने थी आई | मैं जो करने थी आई | ||
− | |||
उसे किया मानिक ने। | उसे किया मानिक ने। | ||
− | |||
खुसरु ने!! | खुसरु ने!! | ||
उद्धत प्रभुत्व का | उद्धत प्रभुत्व का | ||
− | |||
वात्याचक्र! उठा प्रतिशोध-दावानल में | वात्याचक्र! उठा प्रतिशोध-दावानल में | ||
− | |||
कह गया अभी-अभी नीच परिवारी वह! | कह गया अभी-अभी नीच परिवारी वह! | ||
− | |||
− | |||
− | |||
"नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप हैं | "नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप हैं | ||
− | |||
जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं। | जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं। | ||
− | |||
जितने उत्पीड़न थे चूर हो दबे हुए, | जितने उत्पीड़न थे चूर हो दबे हुए, | ||
− | |||
अपना अस्तित्व हैं पुकारते, | अपना अस्तित्व हैं पुकारते, | ||
− | |||
नश्वर संसार में | नश्वर संसार में | ||
− | |||
ठोस प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनि है चाहते।" | ठोस प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनि है चाहते।" | ||
− | |||
"लूटा था दृप्त अधिकार में | "लूटा था दृप्त अधिकार में | ||
− | |||
जितना विभव, रूप, शील और गौरव को | जितना विभव, रूप, शील और गौरव को | ||
− | |||
आज वे स्वतंत्र हो बिखरते है! | आज वे स्वतंत्र हो बिखरते है! | ||
− | |||
एक माया-स्पूत-सा | एक माया-स्पूत-सा | ||
− | |||
हो रहा है लोप इन आँखों के सामने।" | हो रहा है लोप इन आँखों के सामने।" | ||
− | |||
− | |||
देख कमलावती। | देख कमलावती। | ||
− | |||
ढुलक रही हैं हिम-बिन्दु-सी | ढुलक रही हैं हिम-बिन्दु-सी | ||
− | |||
सत्ता सौन्दर्य के चपल आवरण की। | सत्ता सौन्दर्य के चपल आवरण की। | ||
− | |||
हँसती है वासना की छलना पिशाची-सी | हँसती है वासना की छलना पिशाची-सी | ||
− | |||
छिपकर चारों और व्रीड़ा की अँगुलियाँ | छिपकर चारों और व्रीड़ा की अँगुलियाँ | ||
− | |||
करती संकेत हैं व्यंग्य उपहास में । | करती संकेत हैं व्यंग्य उपहास में । | ||
− | |||
ले चली बहाती हुई अन्ध के अतल में | ले चली बहाती हुई अन्ध के अतल में | ||
− | + | वेग भरी वासना | |
− | वेग भरी | + | |
− | + | ||
अन्तक शरभ के | अन्तक शरभ के | ||
− | |||
काले-काले पंख ढकते हैं अन्ध तम से। | काले-काले पंख ढकते हैं अन्ध तम से। | ||
− | |||
पुण्य ज्योति हीन कलुषित सौन्दर्य का- | पुण्य ज्योति हीन कलुषित सौन्दर्य का- | ||
− | |||
गिरता नक्षत्र नीचे कालिमा की धारा-सा | गिरता नक्षत्र नीचे कालिमा की धारा-सा | ||
− | |||
असफल सृष्टि सोती- | असफल सृष्टि सोती- | ||
− | |||
प्रलय की छाया में। | प्रलय की छाया में। | ||
+ | </poem> |
13:21, 2 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण
थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की
सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में!
और उस दिन तो;
निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से
सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ।
दूरागत वंशी रव
गूँजता था धीवरों की छोटी-छोटी नावों से।
मेरे उस यौवन के मालती-मुकुल में
रंध्र खोजती थी, रजनी की नीली किरणें
उसे उकसाने को-हँसाने को।
पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगन्ध से
कस्तरी मृग जैसी।
पश्चिम जलधि में,
मेरी लहरीली नीली अलकावली समान
लहरें उठती थी मानों चूमने को मुझको,
और साँस लेता था संसार मुझे छुकर।
नृत्यशीला शैशव की स्फूर्तियाँ
दौड़कर दूर जा खड़ी हो हँसने लगी।
मेरे तो,
चरण हुए थे विजड़ित मधु भार से।
हँसती अनंग-बालिकाएँ अन्तरिक्ष में
मेरी उस क्रीड़ा के मधु अभिषेक में
नत शिर देख मुझे।
कमनीयता थी जो समस्त गुजरात की
हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में,
पलकें मदिर भार से थीं झुकी पड़ती।
नन्दन की शत-शत दिव्य कुसुम-कुन्तला
अप्सराएँ मानो वे सुगन्ध की पुतलियाँ
आ आकर चूम रहीं अरुण अधर मेरा
जिसमें स्वयं ही मुस्कान खिल पड़ती।
नूपुरों की झनकार घुली-मिली जाती थी
चरण अलक्तक की लाली से
जैसे अन्तरिक्ष की अरुणिमा
पी रही दिगन्त व्यापी सन्ध्या संगीत को।
कितनी मादकता थी?
लेने लगी झपकी मैं
सुख रजनी की विश्रम्भ-कथा सुनती;
जिसमें थी आशा
अभिलाषा से भरी थी जो
कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद में
जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी।
"आँखे खुली;
देखा मैने चरणों में लोटती थी
विश्व की विभव-राशि,
और थे प्रणत वहीं गुर्ज्जर-महीप भी।
वह एक सन्ध्या था।"
"श्यामा सृष्टि युवती थी
तारक-खचिक नीलपट परिधान था
अखिल अनन्त में
चमक रही थी लालसा की दीप्त मणियाँ
ज्योतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी
बहती थी धीरे-धीरे सरिता
उस मधु यामिनी में
मदकल मलय पवन ले ले फूलों से
मधुर मरन्द-बिन्दु उसमें मिलाता था।
चाँदनी के अंचल में।
हरा भरा पुलिन अलस नींद ले रहा।
सृष्टि के रहस्य भी परखने को मुझको
तारिकाएँ झाँकती थी।
शत शतदलों की
मुद्रित मधुर गन्ध भीनी-भीनी रोम में
बहाती लावण्य धारा।
स्मर शशि किरणें
स्पर्श करती थी इस चन्द्रकान्त मणि को
स्निग्धता बिछलाती थी जिस मेरे अंग पर।
अनुराग पूर्ण था हृदय उपहार में
गुर्ज्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के,
तिरते थे
मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में।
पीते मकरन्द थे
मेरे इस अधखिले आनन सरोज का
कितना सोहाग था, कैसा अनुराग था?
खिली स्वर्ण मल्लिका की सुरभित वल्लरी-सी
गुर्ज्जर के थाले में मरन्द वर्षा करती मैं।"
"और परिवर्तन वह!
क्षितिज पटी को आन्दोलित करती हुई
नीले मेघ माला-सी
नियति-नटी थी आई सहसा गगन में
तड़ित विलास-सी नचाती भौहें अपनी।"
"पावक-सरोवर में अवभृथ स्नान था
आत्म-सम्मान-यज्ञ की वह पूर्णाहुति
सुना-जिस दिन पद्मिनी का जल मरना
सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य-गाथा
गूँज उठी भारत के कोने-कोने जिस दिन;
उन्नत हुआ था भाल
महिला-महत्त्व का।
दृप्त मेवाड़ के पवित्र बलिदान का
ऊर्जित आलोक
आँख खोलता था सबकी।
सोचने लगी थी कुल-वधुएं, कुमारिकाएँ
जीवन का अपने भविष्य नये सिर से;
उसी दिन
बींधने लगी थी विषमय परतंत्रता।
देव-मन्दिरों की मूक घंटा-ध्वनि
व्यंग्य करती थी जब दीन संकेत से
जाग उठी जीवन की लाज भरी निद्रा से।
मै भी थी कमला,
रूप-रानी गुजरात की।
सोचती थी
पद्मिनी जली थी स्वयं किन्तु मैं जलाऊँगी
वह दवानल ज्वाला
जिसमें सुलतान जले।
देखे तो प्रचंड रूप-ज्वाला की धधकती
मुझको सजीव वह अपने विरुद्ध।
आह! कैसी वह स्पर्द्धा थी?
स्पर्द्धा थी रूप की
पद्मिनी की वाह्य रूप-रेखा चाहे तुच्छ थी,
मेरे इस साँचे मे ढले हुए शरीर के
सन्मुख नगण्य थी।
देखकर मुकुर, पवित्र चित्र पद्मिनी का
तुलना कर उससे,
मैने समझा था यही।
वह अतिरंजित-सी तूलिका चितेरी की
फिर भी कुछ कम थी।
किन्तु था हृदय कहाँ?
वैसा दिव्य
अपनी कमी थी इतरा चली हृदय की
लधुता चली थी माप करने महत्त्व की।
"अभिनय आरम्भ हुआ
अन-हलवाड़ा में अनल चक्र घूमा फिर
चिर अनुगत सौन्दर्य के समादर में
गुर्ज्जरेश मेरी उन इंगितों में नाच उठे।
नारी के चयन! त्रिगुणात्मक ये सन्निपात
किसको प्रमत्त नहीं करते
धैर्य किसका नहीं हरते ये?
वही अस्त्र मेरा था।
एक झटके में आज
गुर्जर स्वतंत्र साँस लेता था सजीव हो।
क्रोध सुलतान का दग्ध करने लगा
दावानल बनकर
हरा भरा कानन प्रफुल्ल गुजरात का।
बालको की करुण पुकारें, और वृद्धों की
आर्तवाणी,
क्रन्दन रमणियों का,
भैरव संगीत बना, तांडव-नृत्य-सा
होने लगा गुर्जर में।
अट्टहास करती सजीव उल्लास से
फाँद पड़ी मैं भी उस देश की विपत्ति में।
वही कमला हूँ मैं!
देख चिरसंगिनी रणांगण में, रंग में,
मेरे वीर पति आह कितने प्रसन्न थे
बाधा, विध्न, आपदाएँ,
अपनी ही क्षुद्रता में टलती-बिचलती
हँसते वे देख मुझे
मै भी स्मित करती।
किन्तु शक्ति कितनी थी उस कृत्रिमता में?
संबल बचा न जब कुछ भी स्वदेश में
छोड़ना पड़ा ही उसे।
निर्वासित हम दोनों खोजते शरण थे,
किन्तु दुर्भाग्य पीछा करने में आगे था।
"वह दुपहरी थी,
लू से झुलसानेवाली; प्यास से जलानेवाली।
थके सो रहे थे तरुछाया में हम दोनों
तुर्कों का एक दल आया झंझावात-सा।
मेरे गुर्ज्जरेश !
आज किस मुख से कहूँ?
सच्चे राजपूत थे,
वह खंग लीला खड़ी देखती रही मैं वही
गत-प्रत्यागत में और प्रत्यावर्तन में
दूर वे चले गये,
और हुई बन्दी मै।
वाह री नियति!
उस उज्जवल आकाश में
पद्मिनी की प्रतिकृति-सी किरणों में बनकर
व्यंग्य-हास करती थी।
एक क्षण भ्रम के भुलावे में डालकर
आज भी नचाता वही,
आज सोचती हूँ जैसे पद्मिनी थी कहती-
"अनुकरण कर मेरा"
समझ सकी न मैं।
पद्मिनी की भूल जो थी समझने को
सिंहिनी की दृप्त मूर्ति धारण कर
सन्मुख सुलतान के
मारने की, मरने की अटल प्रतिज्ञा हुई।
उस अभिमान में
मैने ही कहा था - छाती ऊँची कर उनसे -
"ले चलो मैं गुर्जर की रानी हूँ, कमला हूँ"
वाह री! विचित्र मनोवृत्ति मेरी!
कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास-शील था?
उस आपदा में आया ध्यान निज रूप का।
रूप यह!
देखे तो तुरुष्कपति मेरा भी
कितनी महीन और कितनी अभूतपूर्व ?
बन्दिनी मैं बैठी रही
देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी।
यह ऐश्वर्य की दुलारी, प्यारी क्रूरता की
एक छलना-सी, सजने लगी थी सन्ध्या में।
कृष्णा वह आई फिर रजनी भी।
खोलकर ताराओं की विरल दशन पंक्ति
अट्टहास करती थी दूर मानो व्योम में ।
जो न सुन पड़ा अपने ही कोलाहल में!
कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का
कभी निज रूप सुन्दरता की अनुभूति
क्षणभर चाहती जगाना मैं
सुलतान ही के उस निर्मम हृदय में,
नारी मैं!
कितनी अबला थी और प्रमदा थी रूप की!
साहस उमड़ता था वेग-पूर्-ओघ-सा
किन्तु हलकी थी मैं,
तृण बह जाता जैसे
वैसे मैं विचारों में ही तिरती-सी फिरती।
कैसी अवहेलना थी यह मेरी शत्रुता की
इस मेरे रूप की।
आज साक्षात होगा कितने महीनों पर
लहरी-सदृश उठती-सी गिरती-सी मैं
अदूभूत! चमत्कार!! दृप्त निज गरिमा में
एक सौंदर्यमयी वासना की आँधी-सी
पहुँची समीप सुलतान के।
तातारी दासियों मे मुझको झुकाना चाहा
मेरे ही घुटनों पर,
किन्तु अविचल रही।
मणि-मेखला में रही कठिन कृपानी जो
चमकी वह सहसा
मेरे ही वक्ष का रुधिर पान करने को।
किन्तु छिन गई वह
और निरुपाय मैं तो ऐंठ उठी डोरी-सी,
अपमान-ज्वाला में अधीर होके जलती।
अन्त करने का और वहीं मर जाने का
मेरा उत्साह मन्द हो चला।
उसी क्षण बचकर मृत्यु महागर्त से सोचने लगी थी मैं-
"जीवन सौभाग्य हैं; जीवन अलभ्य हैं।"
चारों और लालसा भिखरिणी-सी माँगती थी
प्राणों के कण-कण दयनीय स्पृहणीय
अपने विश्लेषण रो उठे अकिंचन जो
"जीवन अनन्त हैं,
इसे छिन्न करने का किसे अधिकार हैं?"
जीवन की सीमामयी प्रतिमा
कितनी मधुर हैं?
विश्व-भर से मैं जिसे छाती मे छिपाये रही।
कितनी मधुर भीख माँगते हैं सब ही:-
अपना दल-अंचल पसारकर बन-राजी,
माँगती हैं जीवन का बिन्दु-बिन्दु ओस-सा
क्रन्दन करता-सा जलनिधि भी
माँगता हैं नित्य मानो जरठ भिखारी-सा
जीवन की धारा मीठी-मीठी सरिताओं से।
व्याकुल हो विश्व, अन्ध तम से
भोर में ही माँगता हैं
"जीवन की स्वर्णमयी किरणें प्रभा भरी।
जीवन ही प्यारा हैं जीवन सौभाग्य है।"
रो उठी मैं रोष भरी बात कहती हुई
"मारकर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम?
मानती हूँ शक्तिशाली तुम सुलतान हो
और मैं हूँ बन्दिनी।
राज्य हैं बचा नहीं,
किन्तु क्या मनुष्यता भी मुझमें रही नहीं
इतनी मैं रिक्त हूँ ?"
क्षोभ से भरा कंठ फिर चुप हो रही।
शक्ति प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की
अनुनय भरी वाणी गूँज उठा कान में।
"देखता हूँ मरना ही भारत की नारियों का
एक गीत-भार हैं!
रानी तुम बन्दिनी हो मेरी प्रार्थनाओं में
पद्मिमी को खो दिया हैं
किन्तु तुमको नहीं!
शासन करोगी इन मेरी क्रुरताओं पर
निज कोमलता से-मानस की माधुरी से!
आज इस तीव्र उत्तेजना की आँधी में
सुन न सकोगी, न विचार ही करोगी तुम
ठहरो विश्राम करों।"
अति द्रुत गति से
कब सुलतान गये
जान सकी मैं न, और तब से
यह रंगमहल बना सुवर्ण पींजरा।
"एक दिन, संध्या थी;
मलिन उदास मेरे हृदय पटल-सा
लाल पीला होता था दिगन्त निज क्षोभ से।
यमुना प्रशान्त मन्द-मन्द निज धारा में,
करुण विषाद मयी
बहती थी धरा के तरल अवसाद-सी।
बैठी हुई कालिमा की चित्र-पटी देखती
सहसा मैं चौंक उठी द्रुत पद-शब्द से।
सामने था
शैशव से अनुचर
मानिक युवक अब
खिंच गया सहसा
पश्चिम-जलधि-कूल का वह सुरम्य चित्र
मेरी इन दुखिया अँखड़ियों के सामने।
जिसको बना चुका था मेरा यह बालपन
अद्भुत कुतूहल औ' हँसी की कहानी से।
मैने कहा:-
"कैसे तू अभागा यहाँ पहुँचा हैं मरने?"
"मरने तो नहीं यहाँ जीवन की आशा में
आ गया हूँ रानी! -भला
कैसे मैं न आता यहाँ?"
कह, वह चुप था।
छूरे एक हाथ में
दूसरे सो दोनों हाथ पकड़े हुए वहीं
प्रस्तुत थीं तातारी दासियाँ।
सहसा सुलतान भी दिखाई पड़े,
और मैं थी मूक गरिमा के इन्द्रजाल में ।
"मृत्युदंड!"
वज्र-निर्घोष-सा सुनाई पड़ा भीषणतम
मरता है मानिक!
गूँज उठा कानों में-
"जीवन अलभ्य हैं; जीवन सौभाग्य हैं।"
उठी एक गर्व-सी
किन्तु झुक गई अनुनय की पुकार में
"उसे छोड़ दीजिए" - निकल पडा मुँह से।
हँसे सुलतान,और अप्रतिम होती मैं
जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज-शृंखला में।
प्रार्थना लौटाने का उपाय अब कौन था?
अपने अनुग्रह के भार से दबाते हुए
कहा सुलतान ने-
"जाने दो रानी की पहली यह आज्ञा हैं।"
हाय रे हृदय! तूने
कौड़ी के मोल बेचा जीवन का मणि-कोष
और आकाश को पकड़ने की आशा में
हाथ ऊँचा किये सिर दे दिया अतल में।
"अन्तर्निहित था
लालसाएँ, वासनाएँ जितनी अभाव में
जीवन की दीनता में और पराधीनता में
पलने लगीं वे चेतना के अनजान में।
धीरे-धीरे आती हैं जैसे मादकता
आँखों के अजान में, ललाई में ही छिपती;
चेतना थी जीवन की फिर प्रतिशोध की।
किन्तु किस युग से वासना के बिन्दु रहे सींचते
मेरे संवेदनो को।
यामिनी के गूढ़ अन्धकार में
सहसा जो जाग उठे तारा से
दुर्बलता को मानती-सी अवलम्ब मैं
खडी हुई जीवन की पिच्छिल-सी भूमि पर।
बिखरे प्रलोभनों को मानती-सी सत्य मैं
शासन की कामना में झूमी मतवाली हो।
एक क्षण, भावना के उस परिवर्तन का
कितना अर्जित था?
जीवित हैं गुर्ज्जरेश! कर्णदेव!
भेजा संदेश मुझे "शीध्र अन्त कर दो
जीवन की लीला।"
लालसा की अर्द्ध कृति-सी!
उस प्रत्यावर्तन मे प्राण जो न दे सके, हाँ
जीवित स्वयं हैं।
जियें फिर क्यों न सब अपनी ही आशा में?
बन्दिनी हुई मैं अबला थी;
प्राणों का लोभ उन्हें फिर क्यों न बचा सका?
प्रेम कहाँ मेरा था?
और मुझमे भी कैसे कहूँ शुद्ध प्रेम था।
मानिक कहता हैं, आह, मुझे मर जाने को।
रूप न बनाया रानी मुझे गुजरात की,
वही रूप आज मुझे प्रेरित था करता
भारतेश्वरी का पद लेने को।
लोभ मेरा मूर्तिमान, प्रतिशोध था बना
और सोचती थी मैं, आज हूँ विजयिनी
चिर पराजित सुलतान पद तल में।
कृष्णागुरुवर्तिका
जल चुकी स्वर्ण पात्र के ही अभिमान में
एक धूम-रेखा मात्र शेष थी,
उस निस्पन्द रंग मन्दिर के व्योम में
क्षीणगन्ध निरवलम्ब।
किन्तु मैं समझती थी, यही मेरी जीवन हैं!
यह उपहार हैं, शृंगार हैं।
मेरा रूप माधुरी का।
मणि नूपुरों की बीन बजी, झनकार से
गूँज उठी रंगशाला इस सौन्दर्य की
विश्व था मनाता महोत्सव अभिमान का
आज विजयी था रूप
और साम्राज्य था नृशंस क्रूरताओं का
रूप माधुरी की कृपा-कोर को निरखता
जिसमें मदोद्धत कटाक्ष की अरुणिमा
व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर।
अवहेलना से अनुग्रह थे बिखरते ।
जीवन के स्वप्न सब बनते-बिगड़ते थे
भवें बल खाती जब;
लोगों की अदृष्ट लिपि लिखी-पढ़ी जाती थी
इस मुसक्यान के, पद्मराग-उद्गम से
बहता सुगन्ध की सुधा का सोता मन्द-मन्द।
रतन राजि, सींची जाती सुमन-मरन्द से
कितनी ही आँखों की प्रसन्न नील ताराएँ
बनने को मुकुर-अचंचल, निस्पन्द थी।
इन्हीं मीन दृगों को चपल संकेत बन
शासन, कुमारिका से हिमालय-शृंग तक
अथक अबाध और तीव्र मेध-ज्योति-सा
चलता था-
हुआ होगा बनना सफल जिसे देखकर
मंजु मीन-केतन अनंग का।
मुकुट पहनते थे सिर, कभी लोटते थे
रक्त दग्ध धरणी मे रूप की विजय में।
हर में सुलतान की
देखती सशंक दृग कोरों से
निज अपमान को।"
"बेच दिया
विश्व इन्द्रजाल में सत्य कहते हैं जिसे;
उसी मानवता के आत्म सम्मान को।"
जीवन में आता हैं परखने का
जिसे कोई एक क्षण,
लोभ, लालसा या भय, क्रोध, प्रतिशोध के
उग्र कोलाहल में,
जिसकी पुकार सुनाई ही नही पड़ती।
सोचा था उस दिन:
जिस दिन अधिकार-क्षुब्ध उस दास ने,
अन्त किया छल से काफूर ने
अलाउद्दीन का, मुमूर्षु सुलतान का।
आँधी में नृशंसता की रक्त-वर्षा होने लगी
रूप वाले, शीश वाले, प्यार से फले हुए
प्राणी राज-वंश के
मारे गये।
वह एक रक्तमयी सन्ध्या थी।
शक्तिशाली होना अहोभाग्य हैं
और फिर
बाधा-विध्न-आपदा के तीव्र प्रतिघात का
सबल विरोध करने में कैसा सुख हैं?
इसका भी अनुभव हुआ था भली-भाँति मुझे
किन्तु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की।
जिस दिन सुना अकिंचन परिवारी ने;
आजीवन दास ने, रक्त से रँगे हुए;
अपने ही हाथों पहना है राज मुकुट।
अन्त कर दास राजवंश का,
लेकर प्रचंड़ प्रतिशोध निज स्वामी का
मानिक ने, खुसरु के नाम से
शासन का दंड किया ग्रहण सदर्प हैं।
उसी दिन जान सकी अपनी मैं सच्ची स्थिति
मैं हूँ किस तल पर?
सैकड़ों ही वृश्चिकों का डंक लगा एक साथ
मैं जो करने थी आई
उसे किया मानिक ने।
खुसरु ने!!
उद्धत प्रभुत्व का
वात्याचक्र! उठा प्रतिशोध-दावानल में
कह गया अभी-अभी नीच परिवारी वह!
"नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप हैं
जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं।
जितने उत्पीड़न थे चूर हो दबे हुए,
अपना अस्तित्व हैं पुकारते,
नश्वर संसार में
ठोस प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनि है चाहते।"
"लूटा था दृप्त अधिकार में
जितना विभव, रूप, शील और गौरव को
आज वे स्वतंत्र हो बिखरते है!
एक माया-स्पूत-सा
हो रहा है लोप इन आँखों के सामने।"
देख कमलावती।
ढुलक रही हैं हिम-बिन्दु-सी
सत्ता सौन्दर्य के चपल आवरण की।
हँसती है वासना की छलना पिशाची-सी
छिपकर चारों और व्रीड़ा की अँगुलियाँ
करती संकेत हैं व्यंग्य उपहास में ।
ले चली बहाती हुई अन्ध के अतल में
वेग भरी वासना
अन्तक शरभ के
काले-काले पंख ढकते हैं अन्ध तम से।
पुण्य ज्योति हीन कलुषित सौन्दर्य का-
गिरता नक्षत्र नीचे कालिमा की धारा-सा
असफल सृष्टि सोती-
प्रलय की छाया में।