"सरस्वती / बुद्धिनाथ मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ | अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ | ||
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मुझसे लिखवाती है । | मुझसे लिखवाती है । | ||
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जो भी मैं लिखता हूँ | जो भी मैं लिखता हूँ | ||
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वह कविता हो जाती है । | वह कविता हो जाती है । | ||
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कुशल-क्षेम पूरे टोले का | कुशल-क्षेम पूरे टोले का | ||
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कुशल-क्षेम घर का | कुशल-क्षेम घर का | ||
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बाट जोहते मालिक की | बाट जोहते मालिक की | ||
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बेबस चर-चाँचर का । | बेबस चर-चाँचर का । | ||
इतनी छोटी-सी पुर्जी पर | इतनी छोटी-सी पुर्जी पर | ||
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कितनी बात लिखूँ | कितनी बात लिखूँ | ||
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काबिल बेटों के हाथों | काबिल बेटों के हाथों | ||
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हो रहे अनादर का । | हो रहे अनादर का । | ||
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अपनी बात जहाँ आई | अपनी बात जहाँ आई | ||
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बस, चुप हो जाती है । | बस, चुप हो जाती है । | ||
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मेरी नासमझी पर यों ही | मेरी नासमझी पर यों ही | ||
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झल्ला जाती है । | झल्ला जाती है । | ||
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कभी-कभी जब भूल | कभी-कभी जब भूल | ||
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विधाता की मुझको छेड़े | विधाता की मुझको छेड़े | ||
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मुझे मुरझता देख | मुझे मुरझता देख | ||
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दिखाती सपने बहुतेरे । | दिखाती सपने बहुतेरे । | ||
कहती-- तुम हो युग के सर्जक | कहती-- तुम हो युग के सर्जक | ||
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बेहतर ब्रह्मा से | बेहतर ब्रह्मा से | ||
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नीर-क्षीर करने वाले | नीर-क्षीर करने वाले | ||
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हो तुम्ही हंस मेरे । | हो तुम्ही हंस मेरे । | ||
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फूलों से भी कोमल | फूलों से भी कोमल | ||
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शब्दों से सहलाती है । | शब्दों से सहलाती है । | ||
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मुझे बिठाकर राजहंस पर | मुझे बिठाकर राजहंस पर | ||
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सैर कराती है । | सैर कराती है । | ||
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कभी देख एकान्त | कभी देख एकान्त | ||
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सुनाती कथा पुरा-नूतन | सुनाती कथा पुरा-नूतन | ||
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ऋषियों ने किस तरह किए | ऋषियों ने किस तरह किए | ||
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श्रुति-मंत्रों के दर्शन । | श्रुति-मंत्रों के दर्शन । | ||
कैसे हुआ विकास सृष्टि का | कैसे हुआ विकास सृष्टि का | ||
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हरि अवतारों से | हरि अवतारों से | ||
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वाल्मीकि ने रचा द्रवित हो | वाल्मीकि ने रचा द्रवित हो | ||
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कैसे रामायण । | कैसे रामायण । | ||
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कहते-कहते कथा | कहते-कहते कथा | ||
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शोक-विह्वल हो जाती है । | शोक-विह्वल हो जाती है । | ||
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और तपोवन में अतीत के | और तपोवन में अतीत के | ||
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वह खो जाती है । | वह खो जाती है । | ||
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(रचनाकाल :19.6.1996) | (रचनाकाल :19.6.1996) | ||
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01:09, 5 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ
मुझसे लिखवाती है ।
जो भी मैं लिखता हूँ
वह कविता हो जाती है ।
कुशल-क्षेम पूरे टोले का
कुशल-क्षेम घर का
बाट जोहते मालिक की
बेबस चर-चाँचर का ।
इतनी छोटी-सी पुर्जी पर
कितनी बात लिखूँ
काबिल बेटों के हाथों
हो रहे अनादर का ।
अपनी बात जहाँ आई
बस, चुप हो जाती है ।
मेरी नासमझी पर यों ही
झल्ला जाती है ।
कभी-कभी जब भूल
विधाता की मुझको छेड़े
मुझे मुरझता देख
दिखाती सपने बहुतेरे ।
कहती-- तुम हो युग के सर्जक
बेहतर ब्रह्मा से
नीर-क्षीर करने वाले
हो तुम्ही हंस मेरे ।
फूलों से भी कोमल
शब्दों से सहलाती है ।
मुझे बिठाकर राजहंस पर
सैर कराती है ।
कभी देख एकान्त
सुनाती कथा पुरा-नूतन
ऋषियों ने किस तरह किए
श्रुति-मंत्रों के दर्शन ।
कैसे हुआ विकास सृष्टि का
हरि अवतारों से
वाल्मीकि ने रचा द्रवित हो
कैसे रामायण ।
कहते-कहते कथा
शोक-विह्वल हो जाती है ।
और तपोवन में अतीत के
वह खो जाती है ।
चर-चाँचर=कृषि योग्य निचली भूमि और जलाशय
(रचनाकाल :19.6.1996)