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[[महादेवी वर्मा]] ([[26 मार्च]], [[1907]] [[11 सितंबर]], [[1987]]) [[हिन्दी]] की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे [[हिन्दी साहित्य]] में [[छायावादी युग]] के प्रमुख स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत के साथ महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं।<ref>{{harvnb|वर्मा|1985|pp=38-40}}</ref> उन्हें ''आधुनिक [[मीरा बाई|मीरा]]'' भी कहा गया है।<ref>{{cite web |url= http://literaryindia.com/Literature/Indian-Authors/mahadevi-verma.html|title= Mahadevi Verma: Modern Meera|accessmonthday=[[3 मार्च]]|accessyear=[[2007]]|format= एचटीएमएल|work= लिटररी इंडिया|language=अंग्रेज़ी}}</ref> कवि [[निराला]] ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है।{{Ref_label|निराला की पंक्तियाँ|ख|none}} उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे [[प्रयाग महिला विद्यापीठ]] की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ साथ<ref>{{cite web |url= http://www.taptilok.com/2006/01-03-2006/sahitya_Hindi_sahitya.html|title=  गद्यकार महादेवी वर्मा|accessmonthday=[[26 मार्च]]|accessyear=[[2007]] |format= एचटीएमएल|work= ताप्तीलोक}}</ref> कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं।<ref>{{cite book |last=वशिष्ठ |first= आर.के.|title= आजकल (मासिक पत्रिका) अंक-7|year= 2002 |publisher= सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, उ.प्र.|location= लखनऊ, भारत|id= |page= 24|editor: विजय राय|accessday= 27|accessmonth=अप्रैल|accessyear=2007}}</ref> वे भारत की 50 सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं।<ref>{{cite book |last= गुप्ता |first= इंदिरा|title= India’s 50 Most Illustrious Women |year=2004 |publisher=आइकॉन बुक्स|language=अंग्रेज़ी|location= |id= |page= 38-40|accessday=30|accessmonth=मार्च|accessyear=2007}}</ref>
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|रचनाकार=महादेवी वर्मा
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'''© महादेवी जी की रचनाओं के पारिवारिक प्रकाशनाधिकारी, प्रकाशक एवं अनन्य कॉपीराइट धारक एवं अनुमति प्रदानकर्ता साहित्य सदन / सेतु प्रकाशन, १८४ तलैया, झाँसी-२८४००२ हैं। सम्पर्क सूत्र: pramodgupt54 AT gmail.com, ca.ashishgupt AT gmail.com'''
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[[महादेवी वर्मा]] (26 मार्च, 1907 — 11 सितंबर, 1987) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों [[जयशंकर प्रसाद]], [[सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]] और [[सुमित्रानंदन पंत]] के साथ महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं। उन्हें ''आधुनिक [[मीराबाई]]'' भी कहा गया है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है।
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उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वे भारत की 50 सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं।
  
 
==प्रारंभिक जीवन और परिवार==
 
==प्रारंभिक जीवन और परिवार==
  
[[महादेवी वर्मा]] का जन्म 24 मार्च सन् 1907 को (भारतीय संवत के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा संवत 1964 को) प्रात: ८ बजे फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश के एक संपन्न परिवार में हुआ। इस परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद महादेवी जी के रूप में पुत्री का जन्म हुआ था। अत: इनके बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी- महादेवी माना और उन्होंने इनका नाम महादेवी रखा था। महादेवी जी के माता-पिता का नाम हेमरानी देवी और बाबू गोविन्द प्रसाद वर्मा था। श्रीमती महादेवी वर्मा की छोटी बहन और दो छोटे भाई थे। क्रमश: श्यामा देवी (श्रीमती श्यामा देवी सक्सेना धर्मपत्नी- डॉ० बाबूराम सक्सेना, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष एवं उपकुलपति इलाहाबाद विश्व विद्यालय) श्री जगमोहन वर्मा एवं श्री मनमोहन वर्मा। महादेवी वर्मा एवं जगमोहन वर्मा शान्ति एवं गम्भीर स्वभाव के तथा श्यामादेवी व मनमोहन वर्मा चंचल, शरारती एवं हठी स्वभाव के थे।<ref>{{cite book |last= सिंह|first= डॉ० राजकुमार |title= विचार विमर्श - महादेवी वर्मा: जन्म, शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था|year= |publisher= |location= |id= |page= 38-40}}</ref>
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[[महादेवी वर्मा]] का जन्म 24 मार्च सन् 1907 को (भारतीय संवत के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा संवत 1964 को) प्रात: ८ बजे फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश के एक संपन्न परिवार में हुआ। इस परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद महादेवी जी के रूप में पुत्री का जन्म हुआ था। अत: इनके बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी- महादेवी माना और उन्होंने इनका नाम महादेवी रखा था। महादेवी जी के माता-पिता का नाम हेमरानी देवी और बाबू गोविन्द प्रसाद वर्मा था। श्रीमती महादेवी वर्मा की छोटी बहन और दो छोटे भाई थे। क्रमश: श्यामा देवी (श्रीमती श्यामा देवी सक्सेना धर्मपत्नी- डॉ० बाबूराम सक्सेना, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष एवं उपकुलपति इलाहाबाद विश्व विद्यालय) श्री जगमोहन वर्मा एवं श्री मनमोहन वर्मा। महादेवी वर्मा एवं जगमोहन वर्मा शान्त एवं गम्भीर स्वभाव के तथा श्यामादेवी व मनमोहन वर्मा चंचल, शरारती एवं हठी स्वभाव के थे।
  
 
महादेवी वर्मा के हृदय में शैशवावस्था से ही जीव मात्र के प्रति करुणा थी, दया थी। उन्हें ठण्डक में कूँ कूँ करते हुए पिल्लों का भी ध्यान रहता था। पशु-पक्षियों का लालन-पालन और उनके साथ खेलकूद में ही दिन बिताती थीं। चित्र बनाने का शौक भी उन्हें बचपन से ही था। इस शौक की पूर्ति वे पृथ्वी पर कोयले आदि से चित्र उकेर कर करती थीं। उनके व्यक्तित्व में जो पीडा, करुणा और वेदना है, विद्रोहीपन है, अहं है, दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता है तथा अपने काव्य में उन्होंने जिन तरल सूक्ष्म तथा कोमल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की है, इन सब के बीज उनकी इसी अवस्था में पड़ चुके थे और उनका अंकुरण तथा पल्लवन भी होने लगा था।
 
महादेवी वर्मा के हृदय में शैशवावस्था से ही जीव मात्र के प्रति करुणा थी, दया थी। उन्हें ठण्डक में कूँ कूँ करते हुए पिल्लों का भी ध्यान रहता था। पशु-पक्षियों का लालन-पालन और उनके साथ खेलकूद में ही दिन बिताती थीं। चित्र बनाने का शौक भी उन्हें बचपन से ही था। इस शौक की पूर्ति वे पृथ्वी पर कोयले आदि से चित्र उकेर कर करती थीं। उनके व्यक्तित्व में जो पीडा, करुणा और वेदना है, विद्रोहीपन है, अहं है, दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता है तथा अपने काव्य में उन्होंने जिन तरल सूक्ष्म तथा कोमल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की है, इन सब के बीज उनकी इसी अवस्था में पड़ चुके थे और उनका अंकुरण तथा पल्लवन भी होने लगा था।
  
 
==शिक्षा==  
 
==शिक्षा==  
[[चित्र:Mahadevi2.jpg|thumb|200px|right|महादेवी — युवावस्था का एक चित्र]]महादेवी जी की शिक्षा 1912 में इंदौर के मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेजी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। 1916 में विवाह विवाह के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी  जी ने 1919 में बाई का बाग स्थित क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। महादेवी जी की प्रतिभा का निखार यहीं से प्रारम्भ होता है।  
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महादेवी जी की शिक्षा 1912 में इंदौर के मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेजी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। 1916 में विवाह के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी  जी ने 1919 में बाई का बाग स्थित क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। महादेवी जी की प्रतिभा का निखार यहीं से प्रारम्भ होता है।  
  
1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया और कविता यात्रा के विकास की शुरुआत भी इसी समय और यहीं से हुई। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब आपने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। पाठशाला में हिंदी अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्यापूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ीबोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ीबोली में रोला और हरिगीतिका छंदों में काव्य लिखना प्रारंभ किया। उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छंदों में एक खंडकाव्य भी लिख डाला। कुछ दिनों बाद उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। विद्यार्थी जीवन में वे प्रायः राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति संबंधी कविताएँ लिखती रहीं, जो लेखिका के ही कथनानुसार "विद्यालय के वातावरण में ही खो जाने के लिए लिखी गईं थीं। उनकी समाप्ति के साथ ही मेरी कविता का शैशव भी समाप्त हो गया।" <ref>{{cite book |last= वर्मा|first= महादेवी|title= आधुनिक कवि महादेवी वर्मा (भूमिका)|year= |publisher=|location= |id= |page= 30}}</ref> मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पूर्व ही उन्होंने ऐसी कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था, जिसमें व्यष्टि में समष्टि और स्थूल में सूक्ष्म चेतना के आभास की अनुभूति अभिव्यक्त हुई है। उनके प्रथम काव्य-संग्रह 'नीहार' की अधिकांश कविताएँ उसी समय की है।
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1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया और कविता यात्रा के विकास की शुरुआत भी इसी समय और यहीं से हुई। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब आपने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। पाठशाला में हिंदी अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्यापूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ीबोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ीबोली में रोला और हरिगीतिका छंदों में काव्य लिखना प्रारंभ किया। उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छंदों में एक खंडकाव्य भी लिख डाला। कुछ दिनों बाद उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। विद्यार्थी जीवन में वे प्रायः राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति संबंधी कविताएँ लिखती रहीं, जो लेखिका के ही कथनानुसार "विद्यालय के वातावरण में ही खो जाने के लिए लिखी गईं थीं। उनकी समाप्ति के साथ ही मेरी कविता का शैशव भी समाप्त हो गया।"  मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पूर्व ही उन्होंने ऐसी कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था, जिसमें व्यष्टि में समष्टि और स्थूल में सूक्ष्म चेतना के आभास की अनुभूति अभिव्यक्त हुई है। उनके प्रथम काव्य-संग्रह 'नीहार' की अधिकांश कविताएँ उसी समय की है।
  
 
==परिचित और आत्मीय==  
 
==परिचित और आत्मीय==  
महादेवी जैसे प्रतिभाशाली और प्रसिद्ध व्यक्तित्व का परिचय और पहचान तत्कालीन सभी साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों से थी। वे महात्मा गांधी से भी प्रभावित रहीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की मित्रता कॉलेज जीवन में ही जुड़ी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं- "सुनो, ये कविता भी लिखती हैं।" पन्त जी के पहले दर्शन भी हिन्दू बोर्डिंग हाउस के कवि सम्मेलन में हुए थे और उनके घुँघराले बड़े बालों को देखकर उनको लड़की समझने की भ्रांति भी हुई थी। महादेवी जी गंभीर प्रकृति की महिला थीं लेकिन उनसे मिलने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी। [[रक्षाबंधन]], [[होली]] और उनके जन्मदिन पर उनके घर जमावड़ा सा लगा रहता था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से उनका भाई बहन का रिश्ता जगत प्रसिद्ध है। उनसे राखी बंधाने वालों में सुप्रसिद्ध साहित्यकार गोपीकृष्ण गोपेश भी थे। सुमित्रानंदन पंत को भी राखी बांधती थीं और सुमित्रानंदन पंत उन्हें राखी बांधते। इस प्रकार स्त्री-पुरुष की बराबरी की एक नई प्रथा उन्होंने शुरू की थी। <ref>{{cite book |last= |first= |title= साहित्य धर्मिता|year= अप्रैल 1988 |publisher= |location=  भारत|id= |page= |editor: |accessday=5|accessmonth=मई|accessyear=2007}}</ref>वे राखी को रक्षा का नहीं स्नेह का प्रतीक मानती थीं। <ref>{{cite book |last=गोपेश |first= अनिता|title= आजकल(मासिक पत्रिका) अंक-11|year= 2007 |publisher= प्रकाशन विभाग, सूचना भवन|location= नई दिल्ली, भारत|id= |page= 31|editor: प्रवीण उपाध्याय|accessday=5|accessmonth=मई|accessyear=2007}}</ref> वे जिन परिवारों से अभिभावक की भांति जुड़ी रहीं उसमें गंगा प्रसाद पांडेय का नाम प्रमुख है, जिनकी पोती का उन्होंने स्वयं कन्यादान किया था। <ref>{{cite book |last=मालवीय |first= यश|title= आजकल(मासिक पत्रिका) अंक-11|year= 2007 |publisher= प्रकाशन विभाग, सूचना भवन|location= नई दिल्ली, भारत|id= |page= 43|editor: प्रवीण उपाध्याय|accessday=5|accessmonth=मई|accessyear=2007}}</ref>गंगा प्रसाद पांडेय के पुत्र रामजी पांडेय ने महादेवी वर्मा के अंतिम समय में उनकी बड़ी सेवा की। इसके अतिरिक्त इलाहाबाद के लगभग सभी साहित्यकारों और परिचितों से उनके आत्मीय संबंध थे।
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महादेवी जैसे प्रतिभाशाली और प्रसिद्ध व्यक्तित्व का परिचय और पहचान तत्कालीन सभी साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों से थी। वे महात्मा गांधी से भी प्रभावित रहीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की मित्रता कॉलेज जीवन में ही जुड़ी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं- "सुनो, ये कविता भी लिखती हैं।" पन्त जी के पहले दर्शन भी हिन्दू बोर्डिंग हाउस के कवि सम्मेलन में हुए थे और उनके घुँघराले बड़े बालों को देखकर उनको लड़की समझने की भ्रांति भी हुई थी। महादेवी जी गंभीर प्रकृति की महिला थीं लेकिन उनसे मिलने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी। रक्षाबंधन, होली और उनके जन्मदिन पर उनके घर जमावड़ा सा लगा रहता था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से उनका भाई बहन का रिश्ता जगत प्रसिद्ध है। उनसे राखी बंधाने वालों में सुप्रसिद्ध साहित्यकार गोपीकृष्ण गोपेश भी थे। सुमित्रानंदन पंत को भी राखी बांधती थीं और सुमित्रानंदन पंत उन्हें राखी बांधते। इस प्रकार स्त्री-पुरुष की बराबरी की एक नई प्रथा उन्होंने शुरू की थी। वे राखी को रक्षा का नहीं स्नेह का प्रतीक मानती थीं। वे जिन परिवारों से अभिभावक की भांति जुड़ी रहीं उसमें गंगा प्रसाद पांडेय का नाम प्रमुख है, जिनकी पोती का उन्होंने स्वयं कन्यादान किया था। गंगा प्रसाद पांडेय के पुत्र रामजी पांडेय ने महादेवी वर्मा के अंतिम समय में उनकी बड़ी सेवा की। इसके अतिरिक्त इलाहाबाद के लगभग सभी साहित्यकारों और परिचितों से उनके आत्मीय संबंध थे।
  
 
==वैवाहिक जीवन==
 
==वैवाहिक जीवन==
नवाँ वर्ष पूरा होते होते सन् 1916 में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। महादेवी जी का विवाह उस उम्र में हुआ जब वे विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। उन्हीं के अनुसार- "दादा ने पुण्य लाभ से विवाह रच दिया, पिता जी विरोध नहीं कर सके। बरात आयी तो बाहर भाग कर हम सबके बीच खड़े होकर बरात देखने लगे। व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई वाले कमरे में बैठ कर खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाइन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाये होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रात: आँख खुली तो कपड़े में गाँठ लगी देखी तो उसे खोल कर भाग गए।"  
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नवाँ वर्ष पूरा होते होते सन् 1916 में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। महादेवी जी का विवाह उस उम्र में हुआ जब वे विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। उन्हीं के अनुसार- "दादा ने पुण्य लाभ से विवाह रच दिया, पिता जी विरोध नहीं कर सके। बरात आयी तो बाहर भाग कर हम सबके बीच खड़े होकर बरात देखने लगे। व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई वाले कमरे में बैठ कर खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाइन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाये होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रात: आँख खुली तो कपड़े में गाँठ लगी देखी तो उसे खोल कर भाग गए।"  
  
महादेवी वर्मा पति-पत्नी सम्बंध को स्वीकार न कर सकीं। कारण आज भी रहस्य बना हुआ है। आलोचकों और विद्वानों ने अपने-अपने ढँग से अनेक प्रकार की अटकलें लगायी हैं। गंगा प्रसाद पाण्डेय के अनुसार- "ससुराल पहुँच कर महादेवी जी ने जो उत्पात मचाया, उसे ससुराल वाले ही जानते हैं... रोना बस रोना। नई बालिका बहू के स्वागत समारोह का उत्सव फीका पड़ गया और घर में एक आतंक छा गया। फलत: ससुर महोदय दूसरे ही दिन उन्हें वापस लौटा गए।" <ref>{{cite book |last= पांडेय|first= गंगा प्रसाद|title= महीयसी महादेवी|year=2007 |publisher=|location= |id= |page=}}</ref>
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महादेवी वर्मा पति-पत्नी सम्बंध को स्वीकार न कर सकीं। कारण आज भी रहस्य बना हुआ है। आलोचकों और विद्वानों ने अपने-अपने ढँग से अनेक प्रकार की अटकलें लगायी हैं। गंगा प्रसाद पाण्डेय के अनुसार- "ससुराल पहुँच कर महादेवी जी ने जो उत्पात मचाया, उसे ससुराल वाले ही जानते हैं... रोना, बस रोना। नई बालिका बहू के स्वागत समारोह का उत्सव फीका पड़ गया और घर में एक आतंक छा गया। फलत: ससुर महोदय दूसरे ही दिन उन्हें वापस लौटा गए।"  
पिता जी की मृत्यु के बाद श्री स्वरूप नारायण वर्मा कुछ समय तक अपने ससुर के पास ही रहे, पर पुत्री की मनोवृत्ति को देखकर उनके बाबू जी ने श्री वर्मा को इण्टर करवा कर लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाकर वहीं बोर्डिंग हाउस में रहने की व्यवस्था कर दी। जब महादेवी इलाहाबाद में पढ़ने लगीं तो श्री वर्मा उनसे मिलने वहाँ भी आते थे। किन्तु महादेवी वर्मा उदासीन ही बनी रहीं। विवाहित जीवन के प्रति उनमें विरक्ति उत्पन्न हो गई थी। इस सबके बावजूद श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोया और कभी शीशा नहीं देखा।<ref>{{cite book |last= सिंह|first= डॉ० राजकुमार |title= विचार विमर्श - महादेवी वर्मा: जन्म, शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था|year= |publisher= |location= |id= |page= 38-40}}</ref>
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पिता जी की मृत्यु के बाद श्री स्वरूप नारायण वर्मा कुछ समय तक अपने ससुर के पास ही रहे, पर पुत्री की मनोवृत्ति को देखकर उनके बाबू जी ने श्री वर्मा को इण्टर करवा कर लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाकर वहीं बोर्डिंग हाउस में रहने की व्यवस्था कर दी। जब महादेवी इलाहाबाद में पढ़ने लगीं तो श्री वर्मा उनसे मिलने वहाँ भी आते थे। किन्तु महादेवी वर्मा उदासीन ही बनी रहीं। विवाहित जीवन के प्रति उनमें विरक्ति उत्पन्न हो गई थी। इस सबके बावजूद श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोया और कभी शीशा नहीं देखा।
  
 
==प्रसिद्धि के पथ पर==
 
==प्रसिद्धि के पथ पर==
[[चित्र:mahdevimlchaturvedi.jpg|thumb|right|महादेवी वर्मा- माखनलाल चतुर्वेदी के साथ]]1932 में [[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]] एम.ए. करने के बाद से उनकी प्रसिद्धि का एक नया युग प्रारंभ हुआ। भगवान [[बुद्ध]] के प्रति गहन भक्तिमय अनुराग होने के कारण और अपने बाल-विवाह के अवसाद को झेलने वाली महादेवी बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं। कुछ समय बाद  [[महात्मा गांधी]] के सम्पर्क और प्रेरणा से उनका मन सामाजिक कार्यों की ओर  उन्मुख हो गया। प्रयाग विश्वविद्यालय से [[संस्कृत]] साहित्य में एम० ए० करने के बाद  [[प्रयाग महिला विद्यापीठ]] की प्रधानाचार्या का पद संभाला और [[चाँद पत्रिका|चाँद]] का  निःशुल्क संपादन किया। प्रयाग में ही उनकी भेंट [[रवीन्द्रनाथ ठाकुर]] से हुई  और यहीं पर 'मीरा जयंती' का शुभारम्भ किया। [[कलकत्ता]] में जापानी कवि  योन नागूची के स्वागत समारोह में भाग लिया और [[शान्ति निकेतन]] में  गुरुदेव के दर्शन किये। यायावरी की इच्छा से [[बद्रीनाथ]] की पैदल यात्रा की और  रामगढ़, नैनीताल में 'मीरा मंदिर' नाम की कुटीर का निर्माण किया। एक अवसर  ऐसा भी आया कि विश्ववाणी के बुद्ध अंक का संपादन किया और 'साहित्यकार संसद'  की स्थापना की। भारतीय रचनाकारों को आपस में जोड़ने के लिये  'अखिल  भारतीय साहित्य सम्मेलन' का आयोजन किया और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से  'वाणी मंदिर' का शिलान्यास कराया। [[चित्र:Mahadevindira.jpg|thumb|150px|left|इंदिरा गांधी के साथ]]
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1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय एम.ए. करने के बाद से उनकी प्रसिद्धि का एक नया युग प्रारंभ हुआ। भगवान बुद्ध के प्रति गहन भक्तिमय अनुराग होने के कारण और अपने बाल-विवाह के अवसाद को झेलने वाली महादेवी बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं। कुछ समय बाद  महात्मा गांधी के सम्पर्क और प्रेरणा से उनका मन सामाजिक कार्यों की ओर  उन्मुख हो गया। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एम० ए० करने के बाद  प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का पद संभाला और चाँद पत्रिका का  निःशुल्क संपादन किया। प्रयाग में ही उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ ठाकुर से हुई  और यहीं पर 'मीरा जयंती' का शुभारम्भ किया। कलकत्ता में जापानी कवि  योन नागूची के स्वागत समारोह में भाग लिया और शान्ति निकेतन में  गुरुदेव के दर्शन किये। यायावरी की इच्छा से बद्रीनाथ की पैदल यात्रा की और  रामगढ़, नैनीताल में 'मीरा मंदिर' नाम की कुटीर का निर्माण किया। एक अवसर  ऐसा भी आया कि विश्ववाणी के बुद्ध अंक का संपादन किया और 'साहित्यकार संसद'  की स्थापना की। भारतीय रचनाकारों को आपस में जोड़ने के लिये  'अखिल  भारतीय साहित्य सम्मेलन' का आयोजन किया और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से  'वाणी मंदिर' का शिलान्यास कराया।  
स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात [[इलाचंद्र जोशी]] और [[दिनकर]] जी के साथ दक्षिण की साहित्यिक यात्रा की। [[निराला]] की काव्य-कृतियों से कविताएँ लेकर 'साहित्यकार संसद' द्वारा [[अपरा]] शीर्षक से काव्य-संग्रह प्रकाशित किया। 'साहित्यकार संसद'  के मुख-पत्र साहित्यकार का प्रकाशन और संपादन इलाचंद्र जोशी के साथ किया। प्रयाग में नाट्य संस्थान 'रंगवाणी' की स्थापना की और उद्घाटन मराठी के प्रसिद्ध नाटककार [[मामा वरेरकर]] ने किया। इस अवसर पर भारतेंदु के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया गया। अपने समय के सभी साहित्यकारों पर [[पथ के साथी]] में संस्मरण-रेखाचित्र- कहानी-निबंध-आलोचना सभी को घोलकर लेखन किया। १९५४ में वे दिल्ली  में स्थापित [[साहित्य अकादमी]] की सदस्या चुनी गईं तथा १९८१ में सम्मानित सदस्या। इस प्रकार महादेवी का संपूर्ण कार्यकाल राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की सेवा में समर्पित रहा।
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स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात इलाचंद्र जोशी और दिनकर जी के साथ दक्षिण की साहित्यिक यात्रा की। निराला की काव्य-कृतियों से कविताएँ लेकर 'साहित्यकार संसद' द्वारा अपरा शीर्षक से काव्य-संग्रह प्रकाशित किया। 'साहित्यकार संसद'  के मुख-पत्र साहित्यकार का प्रकाशन और संपादन इलाचंद्र जोशी के साथ किया। प्रयाग में नाट्य संस्थान 'रंगवाणी' की स्थापना की और उद्घाटन मराठी के प्रसिद्ध नाटककार मामा वरेरकर ने किया। इस अवसर पर भारतेंदु के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया गया। अपने समय के सभी साहित्यकारों पर पथ के साथी में संस्मरण-रेखाचित्र- कहानी-निबंध-आलोचना सभी को घोलकर लेखन किया। १९५४ में वे दिल्ली  में स्थापित साहित्य अकादमी की सदस्या चुनी गईं तथा १९८१ में सम्मानित सदस्या। इस प्रकार महादेवी का संपूर्ण कार्यकाल राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की सेवा में समर्पित रहा।
  
 
==व्यक्तित्व==
 
==व्यक्तित्व==
[[चित्र:Mahadeviramkumaragyeya.jpg|thumb|right|हिंदी साहित्य की तीन महान विभूतियाँ- डॉ.रामकुमार वर्मा, अज्ञेय और महादेवी वर्मा]]महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व में संवेदना दृढ़ता और आक्रोश का अद्भुत संतुलन मिलता है। वे अध्यापक, कवि, गद्यकार, कलाकार, समाजसेवी और विदुषी के बहुरंगे मिलन का जीता जागता उदाहरण थीं। वे इन सबके साथ-साथ एक प्रभावशाली व्याख्याता भी थीं। उनकी भाव चेतना गंभीर, मार्मिक और संवेदनशील थी। उनकी अभिव्यक्ति का प्रत्येक रूप नितान्त मौलिक और हृदयग्राही था। वे मंचीय सफलता के लिए नारे, आवेशों, और सस्ती उत्तेजना के प्रयासों का सहारा नहीं लेतीं। गंभीरता और धैर्य के साथ सुनने वालों के लिए विषय को संवेदनशील बना देती थीं, तथा शब्दों को अपनी संवेदना में मिला कर परम आत्मीय भाव प्रवाहित करती थीं। इलाचंद्र जोशी उनकी वक्तृत्व शक्ति के संदर्भ में कहते हैं - 'जीवन और जगत से संबंधित महानतम विषयों पर जैसा भाषण महादेवी जी देती हैं वह विश्व नारी इतिहास में अभूतपूर्व है। विशुद्ध वाणी का ऐसा विलास नारियों में तो क्या पुरुषों में भी एक रवीन्द्रनाथ को छोड़ कर कहीं नहीं सुना।'<ref>{{cite web |url= http://www.taptilok.com/2006/01-03-2006/sahitya_Hindi_sahitya.html|title= गद्यकार महादेवी वर्मा|accessmonthday=[[7 मई]]|accessyear=[[2007]]|format= एचटीएमएल|work= ताप्तीलोक|language=}}</ref>महादेवी जी विधान परिषद की माननीय सदस्या थीं। वे विधान परिषद में बहुत ही कम बोलती थीं, परंतु जब कभी महादेवी जी अपना भाषण देती थीं तब पं.कमलापति त्रिपाठी के कथनानुसार- सारा हाउस विमुग्ध होकर महादेवी के भाषणामृत का रसपान किया करता था। रोकने-टोकने का तो प्रश्न ही नहीं, किसी को यह पता ही नहीं चल पाता था कि कितना समय निर्धारित था और अपने निर्धारित समय से कितनी अधिक देर तक महादेवी ने भाषण किया।<ref>{{cite book |last=वशिष्ठ |first= आर.के.|title= उत्तर प्रदेश (मासिक पत्रिका) अंक-7|year= 2002 |publisher= सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, उ.प्र.|location= लखनऊ, भारत|id= |page= 25|editor: विजय राय|accessday= 27|accessmonth=अप्रैल|accessyear=2007}}</ref>
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महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व में संवेदना दृढ़ता और आक्रोश का अद्भुत संतुलन मिलता है। वे अध्यापक, कवि, गद्यकार, कलाकार, समाजसेवी और विदुषी के बहुरंगे मिलन का जीता जागता उदाहरण थीं। वे इन सबके साथ-साथ एक प्रभावशाली व्याख्याता भी थीं। उनकी भाव चेतना गंभीर, मार्मिक और संवेदनशील थी। उनकी अभिव्यक्ति का प्रत्येक रूप नितान्त मौलिक और हृदयग्राही था। वे मंचीय सफलता के लिए नारे, आवेशों, और सस्ती उत्तेजना के प्रयासों का सहारा नहीं लेतीं। गंभीरता और धैर्य के साथ सुनने वालों के लिए विषय को संवेदनशील बना देती थीं, तथा शब्दों को अपनी संवेदना में मिला कर परम आत्मीय भाव प्रवाहित करती थीं। इलाचंद्र जोशी उनकी वक्तृत्व शक्ति के संदर्भ में कहते हैं - 'जीवन और जगत से संबंधित महानतम विषयों पर जैसा भाषण महादेवी जी देती हैं वह विश्व नारी इतिहास में अभूतपूर्व है। विशुद्ध वाणी का ऐसा विलास नारियों में तो क्या पुरुषों में भी एक रवीन्द्रनाथ को छोड़ कर कहीं नहीं सुना। महादेवी जी विधान परिषद की माननीय सदस्या थीं। वे विधान परिषद में बहुत ही कम बोलती थीं, परंतु जब कभी महादेवी जी अपना भाषण देती थीं तब पं.कमलापति त्रिपाठी के कथनानुसार- सारा हाउस विमुग्ध होकर महादेवी के भाषणामृत का रसपान किया करता था। रोकने-टोकने का तो प्रश्न ही नहीं, किसी को यह पता ही नहीं चल पाता था कि कितना समय निर्धारित था और अपने निर्धारित समय से कितनी अधिक देर तक महादेवी ने भाषण किया।
  
==यह भी देखें==
 
*[[महादेवी वर्मा]]
 
*[[हिंदी साहित्य]]
 
*[[छायावादी युग]]
 
*[[आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास]]
 
  
==संदर्भ==
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'''[http://hi.wikipedia.org| हिन्दी विकिपीडिया] से साभार'''
 
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<references/>
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==बाहरी कड़ियाँ==
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* [http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/mahadevi/index.htm महादेवी वर्मा ‘अनुभूति’ पर]
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* [http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/2001/chinibhai.htm रेखाचित्र ‘वह चीनी भाई’ (अभिव्यक्ति पर)]
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* [http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/2004/jo_rekhayen.htm संस्मरण ‘जो रेखाएं कह न सकेंगी’ (अभिव्यक्ति पर)]
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* [http://hi.literature.wikia.com/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%80_%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE महादेवी वर्मा (कविता कोश)]
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* [http://hindipoetry.blogspot.com/2005/02/blog-post_110884585696500124.html कविता सागर में महादेवी]
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* [http://www.jagran.com/sahitya/inner.aspx?idcategory=5&idarticle=954 माधुर्यभाव की उपासिका महादेवी (जागरण.कॉम पर)]
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* [http://www.srijangatha.com/march%2007/shesh-vishesh.hastakshar.mahadevivarma.htm हिन्दी की सरस्वतीः महादेवी वर्मा (सृजनगाथा पर)]
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*[http://www.taptilok.com/2006/16-07-2006/sahitya_sankala_ki.html श्रृंखला की कड़ियां:  स्व-निर्मित संविधान, लेखक: डॉ. बिमलेश तेवतिया (ताप्तीलोक पर)]
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{{महादेवी की कृतियाँ}}
 
{{हिंदी साहित्यकार}}
 
 
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[[sa:महादेवी वर्मा]]
 

13:18, 18 नवम्बर 2014 के समय का अवतरण

© महादेवी जी की रचनाओं के पारिवारिक प्रकाशनाधिकारी, प्रकाशक एवं अनन्य कॉपीराइट धारक एवं अनुमति प्रदानकर्ता साहित्य सदन / सेतु प्रकाशन, १८४ तलैया, झाँसी-२८४००२ हैं। सम्पर्क सूत्र: pramodgupt54 AT gmail.com, ca.ashishgupt AT gmail.com

महादेवी वर्मा (26 मार्च, 1907 — 11 सितंबर, 1987) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" और सुमित्रानंदन पंत के साथ महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं। उन्हें आधुनिक मीराबाई भी कहा गया है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है।

उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वे भारत की 50 सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं।

प्रारंभिक जीवन और परिवार

महादेवी वर्मा का जन्म 24 मार्च सन् 1907 को (भारतीय संवत के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा संवत 1964 को) प्रात: ८ बजे फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश के एक संपन्न परिवार में हुआ। इस परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद महादेवी जी के रूप में पुत्री का जन्म हुआ था। अत: इनके बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी- महादेवी माना और उन्होंने इनका नाम महादेवी रखा था। महादेवी जी के माता-पिता का नाम हेमरानी देवी और बाबू गोविन्द प्रसाद वर्मा था। श्रीमती महादेवी वर्मा की छोटी बहन और दो छोटे भाई थे। क्रमश: श्यामा देवी (श्रीमती श्यामा देवी सक्सेना धर्मपत्नी- डॉ० बाबूराम सक्सेना, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष एवं उपकुलपति इलाहाबाद विश्व विद्यालय) श्री जगमोहन वर्मा एवं श्री मनमोहन वर्मा। महादेवी वर्मा एवं जगमोहन वर्मा शान्त एवं गम्भीर स्वभाव के तथा श्यामादेवी व मनमोहन वर्मा चंचल, शरारती एवं हठी स्वभाव के थे।

महादेवी वर्मा के हृदय में शैशवावस्था से ही जीव मात्र के प्रति करुणा थी, दया थी। उन्हें ठण्डक में कूँ कूँ करते हुए पिल्लों का भी ध्यान रहता था। पशु-पक्षियों का लालन-पालन और उनके साथ खेलकूद में ही दिन बिताती थीं। चित्र बनाने का शौक भी उन्हें बचपन से ही था। इस शौक की पूर्ति वे पृथ्वी पर कोयले आदि से चित्र उकेर कर करती थीं। उनके व्यक्तित्व में जो पीडा, करुणा और वेदना है, विद्रोहीपन है, अहं है, दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता है तथा अपने काव्य में उन्होंने जिन तरल सूक्ष्म तथा कोमल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की है, इन सब के बीज उनकी इसी अवस्था में पड़ चुके थे और उनका अंकुरण तथा पल्लवन भी होने लगा था।

शिक्षा

महादेवी जी की शिक्षा 1912 में इंदौर के मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेजी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। 1916 में विवाह के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने 1919 में बाई का बाग स्थित क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। महादेवी जी की प्रतिभा का निखार यहीं से प्रारम्भ होता है।

1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया और कविता यात्रा के विकास की शुरुआत भी इसी समय और यहीं से हुई। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब आपने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। पाठशाला में हिंदी अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्यापूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ीबोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ीबोली में रोला और हरिगीतिका छंदों में काव्य लिखना प्रारंभ किया। उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छंदों में एक खंडकाव्य भी लिख डाला। कुछ दिनों बाद उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। विद्यार्थी जीवन में वे प्रायः राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति संबंधी कविताएँ लिखती रहीं, जो लेखिका के ही कथनानुसार "विद्यालय के वातावरण में ही खो जाने के लिए लिखी गईं थीं। उनकी समाप्ति के साथ ही मेरी कविता का शैशव भी समाप्त हो गया।" मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पूर्व ही उन्होंने ऐसी कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था, जिसमें व्यष्टि में समष्टि और स्थूल में सूक्ष्म चेतना के आभास की अनुभूति अभिव्यक्त हुई है। उनके प्रथम काव्य-संग्रह 'नीहार' की अधिकांश कविताएँ उसी समय की है।

परिचित और आत्मीय

महादेवी जैसे प्रतिभाशाली और प्रसिद्ध व्यक्तित्व का परिचय और पहचान तत्कालीन सभी साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों से थी। वे महात्मा गांधी से भी प्रभावित रहीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की मित्रता कॉलेज जीवन में ही जुड़ी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं- "सुनो, ये कविता भी लिखती हैं।" पन्त जी के पहले दर्शन भी हिन्दू बोर्डिंग हाउस के कवि सम्मेलन में हुए थे और उनके घुँघराले बड़े बालों को देखकर उनको लड़की समझने की भ्रांति भी हुई थी। महादेवी जी गंभीर प्रकृति की महिला थीं लेकिन उनसे मिलने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी। रक्षाबंधन, होली और उनके जन्मदिन पर उनके घर जमावड़ा सा लगा रहता था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से उनका भाई बहन का रिश्ता जगत प्रसिद्ध है। उनसे राखी बंधाने वालों में सुप्रसिद्ध साहित्यकार गोपीकृष्ण गोपेश भी थे। सुमित्रानंदन पंत को भी राखी बांधती थीं और सुमित्रानंदन पंत उन्हें राखी बांधते। इस प्रकार स्त्री-पुरुष की बराबरी की एक नई प्रथा उन्होंने शुरू की थी। वे राखी को रक्षा का नहीं स्नेह का प्रतीक मानती थीं। वे जिन परिवारों से अभिभावक की भांति जुड़ी रहीं उसमें गंगा प्रसाद पांडेय का नाम प्रमुख है, जिनकी पोती का उन्होंने स्वयं कन्यादान किया था। गंगा प्रसाद पांडेय के पुत्र रामजी पांडेय ने महादेवी वर्मा के अंतिम समय में उनकी बड़ी सेवा की। इसके अतिरिक्त इलाहाबाद के लगभग सभी साहित्यकारों और परिचितों से उनके आत्मीय संबंध थे।

वैवाहिक जीवन

नवाँ वर्ष पूरा होते होते सन् 1916 में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। महादेवी जी का विवाह उस उम्र में हुआ जब वे विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। उन्हीं के अनुसार- "दादा ने पुण्य लाभ से विवाह रच दिया, पिता जी विरोध नहीं कर सके। बरात आयी तो बाहर भाग कर हम सबके बीच खड़े होकर बरात देखने लगे। व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई वाले कमरे में बैठ कर खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाइन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाये होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रात: आँख खुली तो कपड़े में गाँठ लगी देखी तो उसे खोल कर भाग गए।"

महादेवी वर्मा पति-पत्नी सम्बंध को स्वीकार न कर सकीं। कारण आज भी रहस्य बना हुआ है। आलोचकों और विद्वानों ने अपने-अपने ढँग से अनेक प्रकार की अटकलें लगायी हैं। गंगा प्रसाद पाण्डेय के अनुसार- "ससुराल पहुँच कर महादेवी जी ने जो उत्पात मचाया, उसे ससुराल वाले ही जानते हैं... रोना, बस रोना। नई बालिका बहू के स्वागत समारोह का उत्सव फीका पड़ गया और घर में एक आतंक छा गया। फलत: ससुर महोदय दूसरे ही दिन उन्हें वापस लौटा गए।"

पिता जी की मृत्यु के बाद श्री स्वरूप नारायण वर्मा कुछ समय तक अपने ससुर के पास ही रहे, पर पुत्री की मनोवृत्ति को देखकर उनके बाबू जी ने श्री वर्मा को इण्टर करवा कर लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाकर वहीं बोर्डिंग हाउस में रहने की व्यवस्था कर दी। जब महादेवी इलाहाबाद में पढ़ने लगीं तो श्री वर्मा उनसे मिलने वहाँ भी आते थे। किन्तु महादेवी वर्मा उदासीन ही बनी रहीं। विवाहित जीवन के प्रति उनमें विरक्ति उत्पन्न हो गई थी। इस सबके बावजूद श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोया और कभी शीशा नहीं देखा।

प्रसिद्धि के पथ पर

1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय एम.ए. करने के बाद से उनकी प्रसिद्धि का एक नया युग प्रारंभ हुआ। भगवान बुद्ध के प्रति गहन भक्तिमय अनुराग होने के कारण और अपने बाल-विवाह के अवसाद को झेलने वाली महादेवी बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं। कुछ समय बाद महात्मा गांधी के सम्पर्क और प्रेरणा से उनका मन सामाजिक कार्यों की ओर उन्मुख हो गया। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एम० ए० करने के बाद प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का पद संभाला और चाँद पत्रिका का निःशुल्क संपादन किया। प्रयाग में ही उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ ठाकुर से हुई और यहीं पर 'मीरा जयंती' का शुभारम्भ किया। कलकत्ता में जापानी कवि योन नागूची के स्वागत समारोह में भाग लिया और शान्ति निकेतन में गुरुदेव के दर्शन किये। यायावरी की इच्छा से बद्रीनाथ की पैदल यात्रा की और रामगढ़, नैनीताल में 'मीरा मंदिर' नाम की कुटीर का निर्माण किया। एक अवसर ऐसा भी आया कि विश्ववाणी के बुद्ध अंक का संपादन किया और 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की। भारतीय रचनाकारों को आपस में जोड़ने के लिये 'अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन' का आयोजन किया और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से 'वाणी मंदिर' का शिलान्यास कराया।

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात इलाचंद्र जोशी और दिनकर जी के साथ दक्षिण की साहित्यिक यात्रा की। निराला की काव्य-कृतियों से कविताएँ लेकर 'साहित्यकार संसद' द्वारा अपरा शीर्षक से काव्य-संग्रह प्रकाशित किया। 'साहित्यकार संसद' के मुख-पत्र साहित्यकार का प्रकाशन और संपादन इलाचंद्र जोशी के साथ किया। प्रयाग में नाट्य संस्थान 'रंगवाणी' की स्थापना की और उद्घाटन मराठी के प्रसिद्ध नाटककार मामा वरेरकर ने किया। इस अवसर पर भारतेंदु के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया गया। अपने समय के सभी साहित्यकारों पर पथ के साथी में संस्मरण-रेखाचित्र- कहानी-निबंध-आलोचना सभी को घोलकर लेखन किया। १९५४ में वे दिल्ली में स्थापित साहित्य अकादमी की सदस्या चुनी गईं तथा १९८१ में सम्मानित सदस्या। इस प्रकार महादेवी का संपूर्ण कार्यकाल राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की सेवा में समर्पित रहा।

व्यक्तित्व

महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व में संवेदना दृढ़ता और आक्रोश का अद्भुत संतुलन मिलता है। वे अध्यापक, कवि, गद्यकार, कलाकार, समाजसेवी और विदुषी के बहुरंगे मिलन का जीता जागता उदाहरण थीं। वे इन सबके साथ-साथ एक प्रभावशाली व्याख्याता भी थीं। उनकी भाव चेतना गंभीर, मार्मिक और संवेदनशील थी। उनकी अभिव्यक्ति का प्रत्येक रूप नितान्त मौलिक और हृदयग्राही था। वे मंचीय सफलता के लिए नारे, आवेशों, और सस्ती उत्तेजना के प्रयासों का सहारा नहीं लेतीं। गंभीरता और धैर्य के साथ सुनने वालों के लिए विषय को संवेदनशील बना देती थीं, तथा शब्दों को अपनी संवेदना में मिला कर परम आत्मीय भाव प्रवाहित करती थीं। इलाचंद्र जोशी उनकी वक्तृत्व शक्ति के संदर्भ में कहते हैं - 'जीवन और जगत से संबंधित महानतम विषयों पर जैसा भाषण महादेवी जी देती हैं वह विश्व नारी इतिहास में अभूतपूर्व है। विशुद्ध वाणी का ऐसा विलास नारियों में तो क्या पुरुषों में भी एक रवीन्द्रनाथ को छोड़ कर कहीं नहीं सुना। महादेवी जी विधान परिषद की माननीय सदस्या थीं। वे विधान परिषद में बहुत ही कम बोलती थीं, परंतु जब कभी महादेवी जी अपना भाषण देती थीं तब पं.कमलापति त्रिपाठी के कथनानुसार- सारा हाउस विमुग्ध होकर महादेवी के भाषणामृत का रसपान किया करता था। रोकने-टोकने का तो प्रश्न ही नहीं, किसी को यह पता ही नहीं चल पाता था कि कितना समय निर्धारित था और अपने निर्धारित समय से कितनी अधिक देर तक महादेवी ने भाषण किया।


हिन्दी विकिपीडिया से साभार