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"रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 6" के अवतरणों में अंतर

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इस सन्नाटे में दो जन सरित-किनारे,
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थे खड़े शिलावत् मूक, भाग्य के मारे।
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था सिसक रहा राधेय सोच यह मन में,
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क्यों उबल पड़ा असमय विष कुटिल वचन में ?
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क्या कहे और, यह सोच नहीं पाती थी,
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कुन्ती कुत्सा से दीन मरी जाती थी।
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आखिर समेट निज मन को कहा पृथा ने,
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‘‘आयी न वेदी पर  का मैं फूल उठाने।
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‘‘तब जाती हूँ क्या और सकूँगी कर मैं ?
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जो किया दोष जीवन भर दारूण रहकर,
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मेटूँगी क्षण में उसे बात क्या कहकर ?
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बेटा ! सचमुच ही, बड़ी पापिनी हूँ मैं,
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मानवी-रूप में विकट साँपिनी हूँ मैं।
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मुझ-सी प्रचण्ड अघमयी, कुटिल, हत्यारी,
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धरती पर होगी कौन दूसरी नारी ?
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‘‘तब भी मैंने ताड़ना सुनी जो तुझसे,
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मेरा मन पाता वही रहा है मुझसे।
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यश ओढ़ जगत् को तो छलती आयी हूँ
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पर, सदा हृदय-तल में जलती आयी हूँ।
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‘‘अब भी मन पर है खिंची अग्नि की रेखा,
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त्यागते समय मैंने तुझको जब देखा,
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पेटिका-बीच मैं डाल रही थी तुझको
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टुक-टुक तू कैसे ताक रहा था मुझको।
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‘‘वह टुकुर-टुकुर कातर अवलोकन तेरा,
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औ’ शिलाभूत सर्पिणी-सदृश मन मेरा,
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ये दोनों ही सालते रहे हैं मुझको,
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रे कर्ण ! सुनाऊँ व्यथा कहाँ तक तुझको ?
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‘‘लज्जित होकर तू वृथा वत्स ! रोता है,
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निर्घोष सत्य का कब कोमल होता है !
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धिक्कार नहीं तो मैं क्या और सुनुँगी ?
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काँटे बोये थे, कैसे कुसुम चुनूँगी ?
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‘‘धिक्कार, ग्लानि, कुत्सा पछतावे को ही,
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लेकर तो बीता है जीवन निर्मोही।
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थे अमीत बार अरमान हृदय में जागे,
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धर दूँ उघार अन्तर मैं तेरे आगे।
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‘‘पर कदम उठा पायी न ग्लानि में भरकर,
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सामने न हो पायी कुत्सा से डरकर।
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लेकिन, जब कुरूकुल पर विनाश छाया है,
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आखिरी घड़ी ले प्रलय निकट आया है।
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‘‘तब किसी तरह हिम्मत समेट कर सारी,
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आयी मैं तेरे पास भाग्य की मारी।
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सोचा कि आज भी अगर चूक जाऊँगी,
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भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँगी।
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‘‘इसलिए शक्तियाँ मन की सभी सँजो कर,
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सब कुछ सहने के लिए समुद्यत होकर,
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आयी थी मैं गोपन रहस्य बतलाने,
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सोदर-वध के पातक से तुझे बचाने।
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‘‘सो बता दिया, बेटा किस माँ का तू है,
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तेरे तन में किस कुल का दिव्य लहू है।
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अब तू स्वतन्त्र है, जो चाहे वह कर तू,
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जा भूल द्वेष अथवा अनुजों से लड़ तू।
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‘‘कढ़ गयी कलक जो कसक रही थी मन में,
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हाँ, एक ललक रह गयी छिन्न जीवन में,
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थे मिले लाल छह-छह पर, वाम विधाता,
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रह गयी सदा पाँच ही सुतों की माता।
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‘‘अभिलाष लिये तो बहुत बड़ी आयी थी,
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पर, आस नहीं अपने बल की लायी थी।
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था एक भरोसा यही कि तू दानी है,
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अपनी अमोघ करूणा का अभिमानी है।
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‘‘थी विदित वत्स ! तेरी कीर्ति निराली,
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लौटता न कोई कभी द्वार से खाली।
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पर, मैं अभागिनी ही अंचल फैला कर,
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जा रही रिक्त, बेटे से भीख न पाकर।
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‘‘फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने,
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संसार किसी दिन तुझे पुत्र ! पहचाने।
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अब आ, क्षण भर मैं तुझे अंक में भर लूँ,
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आखिरी बार तेरा आलिंगन कर लूँ।
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‘‘ममता जमकर हो गयी शिला जो मन में,
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जो क्षरी फूट कर सूख गया था तन में,
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वह लहर रहा फिर उर में आज उमड़ कर,
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वह रहा हृदय के कूल-किनारे भर कर।
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‘‘कुरूकुल की रानी नहीं, कुमारी नारी-
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वह दीन, हीन, असहाय, ग्लानि की मारी !
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सिर उठा आज प्राणों में झाँक रही है,
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तुझ पर ममता के चुम्बन में आँक रही है।
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‘‘इस आत्म-दाह पीड़िता विषण्ण कली को,
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मुझमें भुज खोले हुए दग्ध रमणी को,
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छाती से सुत को लगा तनिक रोने दे,
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जीवन में पहली बार धन्य होने दे।’’
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माँ ने बढ़कर जैसे ही कण्ठ लगाया,
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हो उठी कण्टकित पुलक कर्ण की काया।
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संजीवन-सी छू गयी चीज कुछ तन में,
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बह चला स्निग्ध प्रस्वण कहीं से मन में।
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पहली वर्षा में मही भींगती जैसे,
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भींगता रहा कुछ काल कर्ण भी वैसे।
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फिर कण्ठ छोड़ बोला चरणों पर आकर,
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‘‘मैं धन्य हुआ बिछुड़ी गोदी को पाकर।
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पर, हाय, स्वत्व मेरा न समय पर लायीं,
 +
माता, सचमुच, तुम बड़ी देर कर आयीं।
 +
अतएव, न्यास अंचल का ले ने सकूँगा,
 +
पर, तुम्हें रिक्त जाने भी दे न सकूँगा।
 +
 +
‘‘की पूर्ण सभी की, सभी तरह अभिलाषा,
 +
जाने दूँ कैसे लेकर तुम्हें निराशा ?
 +
लेकिन, पड़ता हूँ पाँव, जननि! हठ त्यागो,
 +
बन कर कठोर मुझसे मुझको मत माँगो।
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 +
‘केवल निमित्त संगर का दुर्योधन है,
 +
सच पूछो तो यह कर्ण-पार्थ का रण है।
 +
छीनो सुयोग मत, मुझे अंक में लेकर,
 +
यश, मुकुट, मान, कुल, जाति, प्रतिष्ठा देकर।
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 +
‘‘विष तरह-तरह का हँसकर पीता आया,
 +
बस, एक ध्येय के हित मैं जीता आया।
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कर विजित पार्थ को कभी कीर्ति पाऊँगा,
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अप्रतिम वीर वसुधा पर कहलाऊँगा।
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‘‘आ गयी घड़ी वह प्रण पूरा करने की,
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रण में खुलकर मारने और मरने की।
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इस समय नहीं मुझमें शैथिल्य भरो तुम,
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जीवन-व्रत से मत मुझको विमुख करो तुम।
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‘‘अर्जुन से लड़ना छोड़ कीर्ति क्या लूँगा ?
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क्या स्वयं आप अपने को उत्तर दूँगा ?
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मेरा चरित्र फिर कौन समझ पायेगा ?
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सारा जीवन ही उलट-पलट जायेगा।
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‘‘तुम दान-दान रट रहीं, किन्तु, क्यों माता,
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पुत्र ही रहेगा सदा जगत् में दाता ?
 +
दुनिया तो उससे सदा सभी कुछ लेगी,
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पर, क्या माता भी उसे नहीं कुछ देगी ?
 +
 +
‘‘मैं एक कर्ण अतएव, माँग लेता हूँ,
 +
बदले में तुमको चार कर्ण देता हूँ।
 +
छोडूँगा मैं तो कभी नहीं अर्जुन को,
 +
तोड़ूँगा कैसे स्वयं पुरातन प्रण को ?
 +
 +
‘‘पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा,
 +
पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा।
 +
अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में,
 +
पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।’’
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कुन्ती बोली, ‘‘रे हठी, दिया क्या तू ने ?
 +
निज को लेकर ले नहीं किया तू ने ?
 +
बनने आयी थी छह पुत्रों की माता,
 +
रह गया वाम का, पर, वाम ही विधाता।
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|पीछे=रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 5
 
|पीछे=रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 5

23:12, 7 जुलाई 2013 के समय का अवतरण

इस सन्नाटे में दो जन सरित-किनारे,
थे खड़े शिलावत् मूक, भाग्य के मारे।
था सिसक रहा राधेय सोच यह मन में,
क्यों उबल पड़ा असमय विष कुटिल वचन में ?

क्या कहे और, यह सोच नहीं पाती थी,
कुन्ती कुत्सा से दीन मरी जाती थी।
आखिर समेट निज मन को कहा पृथा ने,
‘‘आयी न वेदी पर का मैं फूल उठाने।

‘‘पर के प्रसून को नहीं, नहीं पर-धन को,
थी खोज रही मैं तो अपने ही तन को।
पर, समझ गयी, वह मुझको नहीं मिलेगा,
बिछुड़ी डाली पर कुसुम न आन खिलेगा।

‘‘तब जाती हूँ क्या और सकूँगी कर मैं ?
दूँगी आगे क्या भला और उत्तर मैं ?
जो किया दोष जीवन भर दारूण रहकर,
मेटूँगी क्षण में उसे बात क्या कहकर ?

बेटा ! सचमुच ही, बड़ी पापिनी हूँ मैं,
मानवी-रूप में विकट साँपिनी हूँ मैं।
मुझ-सी प्रचण्ड अघमयी, कुटिल, हत्यारी,
धरती पर होगी कौन दूसरी नारी ?

‘‘तब भी मैंने ताड़ना सुनी जो तुझसे,
मेरा मन पाता वही रहा है मुझसे।
यश ओढ़ जगत् को तो छलती आयी हूँ
पर, सदा हृदय-तल में जलती आयी हूँ।

‘‘अब भी मन पर है खिंची अग्नि की रेखा,
त्यागते समय मैंने तुझको जब देखा,
पेटिका-बीच मैं डाल रही थी तुझको
टुक-टुक तू कैसे ताक रहा था मुझको।

‘‘वह टुकुर-टुकुर कातर अवलोकन तेरा,
औ’ शिलाभूत सर्पिणी-सदृश मन मेरा,
ये दोनों ही सालते रहे हैं मुझको,
रे कर्ण ! सुनाऊँ व्यथा कहाँ तक तुझको ?

‘‘लज्जित होकर तू वृथा वत्स ! रोता है,
निर्घोष सत्य का कब कोमल होता है !
धिक्कार नहीं तो मैं क्या और सुनुँगी ?
काँटे बोये थे, कैसे कुसुम चुनूँगी ?

‘‘धिक्कार, ग्लानि, कुत्सा पछतावे को ही,
लेकर तो बीता है जीवन निर्मोही।
थे अमीत बार अरमान हृदय में जागे,
धर दूँ उघार अन्तर मैं तेरे आगे।

‘‘पर कदम उठा पायी न ग्लानि में भरकर,
सामने न हो पायी कुत्सा से डरकर।
लेकिन, जब कुरूकुल पर विनाश छाया है,
आखिरी घड़ी ले प्रलय निकट आया है।

‘‘तब किसी तरह हिम्मत समेट कर सारी,
आयी मैं तेरे पास भाग्य की मारी।
सोचा कि आज भी अगर चूक जाऊँगी,
भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँगी।

‘‘इसलिए शक्तियाँ मन की सभी सँजो कर,
सब कुछ सहने के लिए समुद्यत होकर,
आयी थी मैं गोपन रहस्य बतलाने,
सोदर-वध के पातक से तुझे बचाने।

‘‘सो बता दिया, बेटा किस माँ का तू है,
तेरे तन में किस कुल का दिव्य लहू है।
अब तू स्वतन्त्र है, जो चाहे वह कर तू,
जा भूल द्वेष अथवा अनुजों से लड़ तू।

‘‘कढ़ गयी कलक जो कसक रही थी मन में,
हाँ, एक ललक रह गयी छिन्न जीवन में,
थे मिले लाल छह-छह पर, वाम विधाता,
रह गयी सदा पाँच ही सुतों की माता।

‘‘अभिलाष लिये तो बहुत बड़ी आयी थी,
पर, आस नहीं अपने बल की लायी थी।
था एक भरोसा यही कि तू दानी है,
अपनी अमोघ करूणा का अभिमानी है।

‘‘थी विदित वत्स ! तेरी कीर्ति निराली,
लौटता न कोई कभी द्वार से खाली।
पर, मैं अभागिनी ही अंचल फैला कर,
जा रही रिक्त, बेटे से भीख न पाकर।

‘‘फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने,
संसार किसी दिन तुझे पुत्र ! पहचाने।
अब आ, क्षण भर मैं तुझे अंक में भर लूँ,
आखिरी बार तेरा आलिंगन कर लूँ।

‘‘ममता जमकर हो गयी शिला जो मन में,
जो क्षरी फूट कर सूख गया था तन में,
वह लहर रहा फिर उर में आज उमड़ कर,
वह रहा हृदय के कूल-किनारे भर कर।

‘‘कुरूकुल की रानी नहीं, कुमारी नारी-
वह दीन, हीन, असहाय, ग्लानि की मारी !
सिर उठा आज प्राणों में झाँक रही है,
तुझ पर ममता के चुम्बन में आँक रही है।

‘‘इस आत्म-दाह पीड़िता विषण्ण कली को,
मुझमें भुज खोले हुए दग्ध रमणी को,
छाती से सुत को लगा तनिक रोने दे,
जीवन में पहली बार धन्य होने दे।’’

माँ ने बढ़कर जैसे ही कण्ठ लगाया,
हो उठी कण्टकित पुलक कर्ण की काया।
संजीवन-सी छू गयी चीज कुछ तन में,
बह चला स्निग्ध प्रस्वण कहीं से मन में।


पहली वर्षा में मही भींगती जैसे,
भींगता रहा कुछ काल कर्ण भी वैसे।
फिर कण्ठ छोड़ बोला चरणों पर आकर,
‘‘मैं धन्य हुआ बिछुड़ी गोदी को पाकर।

पर, हाय, स्वत्व मेरा न समय पर लायीं,
माता, सचमुच, तुम बड़ी देर कर आयीं।
अतएव, न्यास अंचल का ले ने सकूँगा,
पर, तुम्हें रिक्त जाने भी दे न सकूँगा।

‘‘की पूर्ण सभी की, सभी तरह अभिलाषा,
जाने दूँ कैसे लेकर तुम्हें निराशा ?
लेकिन, पड़ता हूँ पाँव, जननि! हठ त्यागो,
बन कर कठोर मुझसे मुझको मत माँगो।

‘केवल निमित्त संगर का दुर्योधन है,
सच पूछो तो यह कर्ण-पार्थ का रण है।
छीनो सुयोग मत, मुझे अंक में लेकर,
यश, मुकुट, मान, कुल, जाति, प्रतिष्ठा देकर।

‘‘विष तरह-तरह का हँसकर पीता आया,
बस, एक ध्येय के हित मैं जीता आया।
कर विजित पार्थ को कभी कीर्ति पाऊँगा,
अप्रतिम वीर वसुधा पर कहलाऊँगा।

‘‘आ गयी घड़ी वह प्रण पूरा करने की,
रण में खुलकर मारने और मरने की।
इस समय नहीं मुझमें शैथिल्य भरो तुम,
जीवन-व्रत से मत मुझको विमुख करो तुम।

‘‘अर्जुन से लड़ना छोड़ कीर्ति क्या लूँगा ?
क्या स्वयं आप अपने को उत्तर दूँगा ?
मेरा चरित्र फिर कौन समझ पायेगा ?
सारा जीवन ही उलट-पलट जायेगा।

‘‘तुम दान-दान रट रहीं, किन्तु, क्यों माता,
पुत्र ही रहेगा सदा जगत् में दाता ?
दुनिया तो उससे सदा सभी कुछ लेगी,
पर, क्या माता भी उसे नहीं कुछ देगी ?

‘‘मैं एक कर्ण अतएव, माँग लेता हूँ,
बदले में तुमको चार कर्ण देता हूँ।
छोडूँगा मैं तो कभी नहीं अर्जुन को,
तोड़ूँगा कैसे स्वयं पुरातन प्रण को ?

‘‘पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा,
पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा।
अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में,
पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।’’

कुन्ती बोली, ‘‘रे हठी, दिया क्या तू ने ?
निज को लेकर ले नहीं किया तू ने ?
बनने आयी थी छह पुत्रों की माता,
रह गया वाम का, पर, वाम ही विधाता।