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"भैंसागाड़ी / भगवतीचरण वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी !
+
चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर  
गति के पागलपन से प्रेरित चलती रहती संसृति महान;
+
जा रही चली भैंसागाड़ी !
सागर पर चलते हैं जहाज , अंबर पर चलते वायुयान .
+
भूतल के  कोने-कोने  में रेलों-ट्रामों का जाल बिछा ,
+
हैं दौड़ रही मोटर-बसें लेकर मानव का वृहत ज्ञान !
+
पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं उच्छ्वास,भावनाएँ चाहे ,
+
वे भूखे अधखाये किसान, भर रहे जहाँ सूनी आहें .
+
नंगे बच्चे, चिथरे पहने, माताएँ जर्जर डोल रही ,
+
है जहाँ विवशता नृत्य कर रही,धूल उड़ाती हैं राहें!
+
बीते युग की परछाहीं सी,बीते युग का इतिहास लिये,
+
'कल'के उन तंद्रिल सपनों में 'अब'का निर्दय उपहास लिये,
+
गति में किन सदियों की जड़ता,मन में किस स्थिरता की ममता
+
अपनी जर्जर सी छाती में, अपना जर्जर विश्वास लिये ! 
+
भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,कँप-कँप उठते जिसके स्तर-स्तर
+
हिलती-डुलती,हँफती-कंपती,कुछ रुक-रुककर,कुछ सिहर-सिहर ,
+
चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी !
+
  
उस ओर क्षितिज के कुछ आगे, कुल पाँच कोस की दूरी पर,
+
गति के पागलपन से प्रेरित
भू की छाती पर फोड़ों-से हैं, उठे हुए कुछ कच्चे घर !
+
चलती रहती संसृति महान,
मैं कहता हूँ खंडहर उसको, पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,
+
सागर पर चलते हैं जहाज़ ,  
पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ, नारियाँ जन रहीं हैं गुलाम ,
+
अम्बर पर चलते वायुयान .
पैदा होना फिर मर जाना,बस यह लोगों का एक काम !
+
भूतल के कोने-कोने  में  
था वहीं कटा दो दिन पहले गेंहूँ का छोटा एक खेत !
+
रेलों-ट्रामों का जाल बिछा ,
तुम सुख-सुषमा के लाल, तुम्हारा है विशाल वैभव-विवेक,
+
हैं दौड़ रही मोटर-बसें
तुमने देखी है मान-भरी उच्छृंखल सुन्दरियाँ अनेक ,
+
लेकर मानव का वृहत ज्ञान !
तुम भरे-पुरे,तुम हृष्ट-पुष्ट ,ओ तुम समर्थ कर्ता-हर्ता,
+
तुमने देखा है क्या बोलो ,हिलता-डुलता कंकाल एक ?
+
वह था उसका ही खेत,जिसे उसने उन पिछले चार माह,
+
अपने शोणित को सुखा-सुखा,भर-भरकर अपनी विवश आह,
+
तैयार किया था और घर में थी रही रुग्ण पत्नी कराह !
+
उसके वे बच्चे तीन, जिन्हें माँ-बाप का मिला प्यार न था,
+
थे क्षुधाग्रस्त बिलबिला रहे मानों वे मोरी के कीड़े ,
+
वे निपट घिनौने, महापतित, बौने, कुरूप टेढ़े-मेढे !
+
उसका कुटुंब था भरा-पुरा आहों से, हाहाकारों से ,
+
फाको से लड़-लड़कर प्रतिदिन घुट-घुटकर अत्याचारों से .
+
तैयार किया था उसने ही अपना छोटा-सा एक खेत !
+
बीबी बच्चों से छीन, बीन दाना-दाना, अपने में भर,
+
भूखे तड़पें या मरें, भरों का तो भरना है उसको घर ,
+
धन की दानवता से पीड़ित कुछ फटा हुआ,कुछ कर्कश स्वर ,
+
चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी !
+
  
है बीस कोस पर एक नगर,उस एक नगर में एक हाट,
+
पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं 
जिसमें मानव की दानवता फैलाये है निज राज-पाट;
+
उच्छ्वास, भावनाएँ चाहें ,
साहूकारों का भेष धरे है जहाँ चोर औ' गिरहकाट,
+
वे भूखे अधखाए किसान,
है अभिशापों से घिरा जहाँ पशुता का कलुषित ठाट-बाट.
+
भर रहे जहाँ सूनी आहें .
चांदी के टुकड़ों को लेने,प्रतिदिन पिसकर,भूखों मरकर ,
+
नंगे बच्चे, चिथड़े पहने,
भैंसागाड़ी पर लदा हुआ, जा रहा चला मानव जर्जर,
+
माताएँ जर्जर डोल रहीं ,
है उसे चुकाना सूद,कर्ज है उसे चुकाना अपना कर,
+
है जहाँ विवशता नृत्य कर रही,
जितना खाली है उसका घर उतना खाली उसका अंतर .
+
धूल उड़ाती हैं राहें !
औ' कठिन भूख की जलन लिये नर बैठा है बनकर पत्थर,
+
 
पीछे है पशुता का खंडहर , दानवता का सामने नगर ,  
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बीते युग की परछाईं-सी,
चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर जा रही चली भैंसागाड़ी !
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बीते युग का इतिहास लिए,
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'कल' के उन तन्द्रिल सपनों में
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'अब' का निर्दय उपहास लिए,
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गति में किन सदियों की जड़ता,
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मन में किस स्थिरता की ममता
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अपनी जर्जर सी छाती में,
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अपना जर्जर विश्वास लिए ! 
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भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,
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कँप-कँप उठते जिसके स्तर-स्तर
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हिलती-डुलती, हँफती-कँपती,
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कुछ रुक-रुककर, कुछ सिहर-सिहर,
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चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर
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जा रही चली भैंसागाड़ी !
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उस ओर क्षितिज के कुछ आगे,
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कुल पाँच कोस की दूरी पर,
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भू की छाती पर फोड़ों-से हैं,
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उठे हुए कुछ कच्चे घर !
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मैं कहता हूँ खण्डहर उसको,
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पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,
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पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ,
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नारियाँ जन रहीं हैं ग़ुलाम,
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पैदा होना फिर मर जाना,
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बस, यह लोगों का एक काम !
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था वहीं कटा दो दिन पहले
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गेंहूँ का छोटा एक खेत !
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तुम सुख-सुषमा के लाल,
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तुम्हारा है विशाल वैभव-विवेक,
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तुमने देखी है मान-भरी
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उच्छृंखल सुन्दरियाँ अनेक,
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तुम भरे-पुरे, तुम हृष्ट-पुष्ट,
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ओ तुम समर्थ कर्ता-हर्ता,
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तुमने देखा है क्या बोलो,
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हिलता-डुलता कंकाल एक ?
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वह था उसका ही खेत,
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जिसे उसने उन पिछले चार माह,
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अपने शोणित को सुखा-सुखा,
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भर-भरकर अपनी विवश आह,
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तैयार किया था और घर में
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थी रही रुग्ण पत्नी कराह !
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उसके वे बच्चे तीन, जिन्हें
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माँ-बाप का मिला प्यार न था,
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थे क्षुधाग्रस्त बिलबिला रहे
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मानों वे मोरी के कीड़े ,
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वे निपट घिनौने, महापतित,
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बौने, कुरूप टेढ़े-मेढ़े !
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तैयार किया था उसने ही
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अपना छोटा-सा एक खेत !
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बीबी बच्चों से छीन, बीन
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दाना-दाना, अपने में भर,
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भूखे तड़पें या मरें, भरों का
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तो भरना है उसको घर ,
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धन की दानवता से पीड़ित कुछ
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फटा हुआ,कुछ कर्कश स्वर ,
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चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर
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जा रही चली भैंसागाड़ी !
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है बीस कोस पर एक नगर,
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उस एक नगर में एक हाट,
 +
जिसमें मानव की दानवता  
 +
फैलाए है निज राज-पाट;
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साहूकारों का भेष धरे है  
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जहाँ चोर औ' गिरहकाट,
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है अभिशापों से घिरा जहाँ  
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पशुता का कलुषित ठाट-बाट.
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चान्दी के टुकड़ों को लेने,
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प्रतिदिन पिसकर, भूखों मरकर,
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भैंसागाड़ी पर लदा हुआ,  
 +
जा रहा चला मानव जर्जर,
 +
है उसे चुकाना सूद, कर्ज़
 +
है उसे चुकाना अपना कर,
 +
जितना ख़ाली है उसका घर  
 +
उतना ख़ाली उसका अन्तर
 +
औ' कठिन भूख की जलन लिए
 +
नर बैठा है बनकर पत्थर,
 +
पीछे है पशुता का खण्डहर,  
 +
दानवता का सामने नगर ,  
 +
मानवता का कृश कँकाल लिए
 +
 
 +
चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर  
 +
जा रही चली भैंसागाड़ी !

18:15, 6 मार्च 2019 के समय का अवतरण

चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर
जा रही चली भैंसागाड़ी !

गति के पागलपन से प्रेरित
चलती रहती संसृति महान,
सागर पर चलते हैं जहाज़ ,
अम्बर पर चलते वायुयान .
भूतल के कोने-कोने में
रेलों-ट्रामों का जाल बिछा ,
हैं दौड़ रही मोटर-बसें
लेकर मानव का वृहत ज्ञान !

पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं
उच्छ्वास, भावनाएँ चाहें ,
वे भूखे अधखाए किसान,
भर रहे जहाँ सूनी आहें .
नंगे बच्चे, चिथड़े पहने,
माताएँ जर्जर डोल रहीं ,
है जहाँ विवशता नृत्य कर रही,
धूल उड़ाती हैं राहें !

बीते युग की परछाईं-सी,
बीते युग का इतिहास लिए,
'कल' के उन तन्द्रिल सपनों में
'अब' का निर्दय उपहास लिए,
गति में किन सदियों की जड़ता,
मन में किस स्थिरता की ममता
अपनी जर्जर सी छाती में,
अपना जर्जर विश्वास लिए !
भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,
कँप-कँप उठते जिसके स्तर-स्तर
हिलती-डुलती, हँफती-कँपती,
कुछ रुक-रुककर, कुछ सिहर-सिहर,

चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर
जा रही चली भैंसागाड़ी !

उस ओर क्षितिज के कुछ आगे,
कुल पाँच कोस की दूरी पर,
भू की छाती पर फोड़ों-से हैं,
उठे हुए कुछ कच्चे घर !
मैं कहता हूँ खण्डहर उसको,
पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,
पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ,
नारियाँ जन रहीं हैं ग़ुलाम,
पैदा होना फिर मर जाना,
बस, यह लोगों का एक काम !
था वहीं कटा दो दिन पहले
गेंहूँ का छोटा एक खेत !
तुम सुख-सुषमा के लाल,
तुम्हारा है विशाल वैभव-विवेक,
तुमने देखी है मान-भरी
उच्छृंखल सुन्दरियाँ अनेक,
तुम भरे-पुरे, तुम हृष्ट-पुष्ट,
ओ तुम समर्थ कर्ता-हर्ता,
तुमने देखा है क्या बोलो,
हिलता-डुलता कंकाल एक ?
वह था उसका ही खेत,
जिसे उसने उन पिछले चार माह,
अपने शोणित को सुखा-सुखा,
भर-भरकर अपनी विवश आह,
तैयार किया था और घर में
थी रही रुग्ण पत्नी कराह !

उसके वे बच्चे तीन, जिन्हें
माँ-बाप का मिला प्यार न था,
थे क्षुधाग्रस्त बिलबिला रहे
मानों वे मोरी के कीड़े ,
वे निपट घिनौने, महापतित,
बौने, कुरूप टेढ़े-मेढ़े !
उसका कुटुम्ब था भरा-पूरा
आहों से, हाहाकारों से ,
फाको से लड़-लड़कर प्रतिदिन
घुट-घुटकर अत्याचारों से .
तैयार किया था उसने ही
अपना छोटा-सा एक खेत !
बीबी बच्चों से छीन, बीन
दाना-दाना, अपने में भर,
भूखे तड़पें या मरें, भरों का
तो भरना है उसको घर ,
धन की दानवता से पीड़ित कुछ
फटा हुआ,कुछ कर्कश स्वर ,

चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर
जा रही चली भैंसागाड़ी !

है बीस कोस पर एक नगर,
उस एक नगर में एक हाट,
जिसमें मानव की दानवता
फैलाए है निज राज-पाट;
साहूकारों का भेष धरे है
जहाँ चोर औ' गिरहकाट,
है अभिशापों से घिरा जहाँ
पशुता का कलुषित ठाट-बाट.
चान्दी के टुकड़ों को लेने,
प्रतिदिन पिसकर, भूखों मरकर,
भैंसागाड़ी पर लदा हुआ,
जा रहा चला मानव जर्जर,
है उसे चुकाना सूद, कर्ज़
है उसे चुकाना अपना कर,
जितना ख़ाली है उसका घर
उतना ख़ाली उसका अन्तर
औ' कठिन भूख की जलन लिए
नर बैठा है बनकर पत्थर,
पीछे है पशुता का खण्डहर,
दानवता का सामने नगर ,
मानवता का कृश कँकाल लिए

चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर
जा रही चली भैंसागाड़ी !