भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उमीदे-मर्ग कब तक / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
 
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
 
}}  
 
}}  
 +
{{KKCatGhazal}}
 
<poem>   
 
<poem>   
उमीदे-मर्ग कब तक  
+
उमीदे-मर्ग कब तक ज़ि‍न्दगी का दर्दे-सर कब तक  
‍ज़ि‍न्दगी का दर्दे-सर कब तक  
+
ये माना सब्र करते हैं महब्बत में मगर कब तक  
ये माना सब्र करते हैं महब्बत में  
+
मगर कब तक  
+
  
दयारे दोस्त हद होती है  
+
दयारे दोस्त हद होती है यूँ भी दिल बहलने की  
यूँ भी दिल बहलने की  
+
 
न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक  
 
न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक  
  
यॅ तदबीरें भी तक़दीरे-  
+
यूँ तदबीरें भी तक़दीरे- महब्बत बन नहीं सकतीं  
महब्बबत बन नहीं सकतीं  
+
 
किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक  
 
किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक  
  
इनायत<sup>1</sup> की करम की लुत्फ़ की  
+
इनायत<ref>कृपा</ref> की करम की लुत्फ़ की आख़ि‍र कोई हद है  
आख़ि‍र कोई हद है  
+
कोई करता रहेगा चारा-ए-जख्‍़मे ज़िगर<ref>जिगर के घाव का उपचार</ref> कब तक  
कोई करता रहेगा चारा-ए-जख्‍़मे ज़िगर<sup>2</sup> कब तक  
+
  
किसी का हुस्नर रूसवा
+
किसी का हुस्न रुसवा हो गया पर्दे ही पर्दे में  
हो गया पर्दे ही पर्दे में  
+
न लाये रंग आख़िरकार ता‍सीरे-नज़र कब तक
न लाये रंग आख़िरकार ता‍सीरे-
+
</poem>
              नज़र कब तक
+
  
 
+
{{KKMeaning}}
1- कृपा, 2- जिगर के घाव का उपचार
+
 
+
</poem>
+

22:38, 24 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण

  
उमीदे-मर्ग कब तक ज़ि‍न्दगी का दर्दे-सर कब तक
ये माना सब्र करते हैं महब्बत में मगर कब तक

दयारे दोस्त हद होती है यूँ भी दिल बहलने की
न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक

यूँ तदबीरें भी तक़दीरे- महब्बत बन नहीं सकतीं
किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक

इनायत<ref>कृपा</ref> की करम की लुत्फ़ की आख़ि‍र कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-जख्‍़मे ज़िगर<ref>जिगर के घाव का उपचार</ref> कब तक

किसी का हुस्न रुसवा हो गया पर्दे ही पर्दे में
न लाये रंग आख़िरकार ता‍सीरे-नज़र कब तक

शब्दार्थ
<references/>