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"संयुक्ता / ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर

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चपल तुरग की पीठ पर चाव-चढ़ी चित-मोहती।
 
चपल तुरग की पीठ पर चाव-चढ़ी चित-मोहती।
 
या दिलीश उत्संग में है संयुक्ता सोहती।2।
 
या दिलीश उत्संग में है संयुक्ता सोहती।2।
 
शिशु-स्नेह
 
[छप्पै]
 
सहज सुन्दरी अति सुकुमारी भोली भाली।
 
गोरे मुखड़े, बड़ी बड़ी कल आँखों वाली।
 
खिले कमल पर लसे सेवारों से मन भाये।
 
खुले केश, जिसके सुकपोलों पर हैं छाये।
 
बहु-पलक-भरी मन-मोहिनी कुछ भौंहें बाँकी किये।
 
यह सरल बालिका कौन है अंक नवल बालक लिये।1।
 
 
खिली कमलिनी-अंक गुलाब कुसुम विकसा है।
 
या भोलापन परम सरलता-संग लसा है।
 
या विधि न्यारे करके कलित खिलौने ये हैं।
 
जो जन की युग आँखों पर करते टोने हैं।
 
या जीवन-तरु-रस-मूल के ये फल हैं प्यारे परम।
 
या प्रकृति-कोष कमनीय के ये हैं रत्न मनोज्ञतम।2।
 
 
अपना विकसित बदन बड़े चावों से रख कर।
 
खिले फूल से शिशु के सुन्दर मुखड़े ऊपर।
 
कौन अनूठा भाव बालिका है बतलाती।
 
कौन अनोखा दृश्य दृगों को है दिखलाती।
 
क्या सूचित करती है उन्हें, हैं भावुक जो भूमि पर।
 
ये युगल कलाधर हैं मिले उर कुमोद उत्फुल्ल कर।3।
 
 
युग शिशु-उर में प्यार-बीज अंकुरित नहीं है।
 
क्यों होता है विकच बदन यह विदित नहीं है।
 
किसी काल जब मिल जाते हैं दो प्यारे जन।
 
क्यों होता है मोद, विकस जाता है क्यों मन।
 
इस गूढ़ बात का मरम भी यदपि नहीं कुछ जानते।
 
हैं तदपि मुदित वे, हैं मनो मोद-सिंधु अवगाहते।4।
 
 
रविकर कोमल परस, कमल-कुल खिल जाता है।
 
पाकर ऋतु पति पवन रंग पादप लाता है।
 
क्या उनका है प्यार, मोद वे क्यों हैं पाते।
 
किस स्वाभाविक सूत्र से बँधो वे किस नाते।
 
यह सकल श्रीमती प्रकृति की परम अलौकिक है कला।
 
है बहु अंशों में प्राणि-उर एक रंग ही में ढला।5।
 
 
क्यों विकसित मुख देख, चित्ता है विकसित होता।
 
उर में क्यों उर सरस बहाता है रस-सोता।
 
क्यों बीणा बजकर है सरव सितार बनाती।
 
क्यों मृदंग-धवनि है पनवों में धवनि उपजाती।
 
इसमें नहिं अपर रहस्य है सकल हृदय है एक ही।
 
स्वर जैसे बीन सितार, औ पनव मृदंग जुदा नहीं।6।
 
 
हैं दोनों शिशु हृदयवान नेही हैं दोनों।
 
रत्न मनोहर एक खानि के ही हैं दोनों।
 
फिर क्यों उनका परम प्रेममय उर नहिं होगा।
 
देख एक को मुदित, अपर क्यों मुदित न होगा।
 
नव कली कुमुदिनी कान्त की जो विकास पाती नहीं।
 
तो क्या स्वाभाविक मंजुता उसमें सरसाती नहीं।7।
 
 
इन शिशुओं की प्रीति परम आनंद-पगी है।
 
अति विमला है लोकोत्तारता रंग-रँगी है।
 
भावमयी, रसमयी, रुचिर उच्छासमयी है।
 
दृग-विमोहिनी चित्तारंजिनी नित्य नयी है।
 
यह लोक-विकासिनि शक्ति के, कमल करों से है छुई।
 
यह वह अति प्यारी वस्तु है, स्वर्ग-सुधा जिसमें चुई।8।
 
 
इस सनेह में नहीं स्वार्थ की बू आती है।
 
कपट, बनावट नहिं प्रवेश इसमें पाती है।
 
छींटें इस पर पड़ी नहीं छल बल की होतीं।
 
चित-मलीनता नहिं इसकी निर्मलता खोती।
 
यह वह प्रमोद वन है, नहीं अनबन वायु जहाँ बही।
 
यह वह प्रसून है, उपजता कलह-कीट जिसमें नहीं।9।
 
 
क्यों कोमल किसलय हैं जी को बहुत लुभाते।
 
क्यों पशु के बच्चे तक हैं चित को विलसाते।
 
बाल-भाव है परम रम्य है बहु मुददाता।
 
आँखों-भर उसको लख कर है जग सुख पाता।
 
मानव कुल के ये शिशु-युगल अति सुन्दर प्यारों-पगे।
 
मन, नयन विमोहेंगे न क्यों, सहज भाव सच्चे सगे।10।
 

21:47, 15 मई 2013 के समय का अवतरण

 
आर्यवंश की विमल कीर्ति की धवजा उड़ाती।
क्षत्रिय-कुल-ललना-प्रताप-पौरुष दिखलाती।
कायर उर में वीर भाव का बीज उगाती।
निबल नसों में नवल रुधिार की धार बहाती।
विपुल वाहिनी को लिये अतुल वीरता में भरी।
सबल बाजि पर जा रही है संयुक्ता सुन्दरी।1।

प्रबल नवल-उत्साह-अंक में शक्ति बसी है?
या साहस की गोद मधय धीरता लसी है?
परम ओज के संग विलसती तत्परता है।
या पौरुष के सहित राजती पीवरता है।
चपल तुरग की पीठ पर चाव-चढ़ी चित-मोहती।
या दिलीश उत्संग में है संयुक्ता सोहती।2।