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"एक आदमी मुझे मिला / बोधिसत्व" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=दुख तंत्र / बोधिसत्व  
 
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एक आदमी मुझे मिला भदोही में
 +
वह टायर की चप्पल पहने था।
 +
वह ढाका से आया था छिपता-छिपाता,
 +
कुछ दिनों रहा वह हावड़ा में
 +
एक चटकल में जूट पहचानने का काम करता रहा
 +
वहाँ से छटनी के बाद वह
 +
गया सूरत
 +
वहाँ फेरी लगा कर बेचता रहा साड़ियाँ
 +
वहाँ भी ठिकाना नहीं लगा
 +
तब आया वह भदोही
 +
टायर की चप्पल पहनकर
  
एक आदमी मुझे मिला भदोही में,<br>
+
इस बीच उसे बुलाने के लिए
वह टायर की चप्पल पहने था। <br>
+
आयी चिट्ठियाँ, कितनी
वह ढाका से आया था छिपता-छिपाता,<br>
+
बार आये ताराशंकर बनर्जी, नन्दलाल बोस
कुछ दिनों रहा वह हावड़ा में <br>
+
रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नज़रूल इस्लाम और
एक चटकल में जूट पहचानने का काम करता रहा <br>
+
मुज़ीबुर्रहमान।
वहाँ से छटनी के बाद वह<br>
+
गया सूरत<br>
+
वहाँ फेरी लगा कर बेचता रहा साड़ियाँ <br>
+
वहाँ भी ठिकाना नहीं लगा<br>
+
तब आया वह भदोही<br>
+
टायर की चप्पल पहनकर <br><br>
+
  
इस बीच उसे बुलाने के लिए<br>
+
सबने उसे मनाया,  
आयी चिट्ठियाँ, कितनी<br>
+
कहा, लौट चलो ढाका
बार आये ताराशंकर बनर्जी, नन्दलाल बोस<br>
+
लौट चलो मुर्शिदाबाद, बोलपुर
रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नज़रूल इस्लाम और <br>
+
वीरभूम कहीं भी।
मुज़ीबुर्रहमान।<br><br>
+
  
सबने उसे मनाया, <br>
+
उसके पास एक चश्मा था,  
कहा, लौट चलो ढाका<br>
+
जिसे उसने ढाका की सड़क से
लौट चलो मुर्शिदाबाद, बोलपुर<br>
+
किसी ईरानी महिला से ख़रीदा था,  
वीरभूम कहीं भी।<br><br>
+
उसके पास एक लालटेन थी
 +
जिसका रंग पता नहीं चलता था
 +
उसका प्रकाश काफ़ी मटमैला होता था,
 +
उसका शीशा टूटा था,
 +
वहाँ काग़ज़ लगाता था वह
 +
जलाते समय।
  
उसके पास एक चश्मा था, <br>
+
वह आदमी भदोही में,  
जिसे उसने ढाका की सड़क से <br>
+
खिलाता रहा कालीनों में फूल
किसी ईरानी महिला से ख़रीदा था, <br>
+
दिन और रात की परवाह किये बिना।
उसके पास एक लालटेन थी<br>
+
जिसका रंग पता नहीं चलता था<br>
+
उसका प्रकाश काफ़ी मटमैला होता था, <br>
+
उसका शीशा टूटा था, <br>
+
वहाँ काग़ज़ लगाता था वह<br>
+
जलाते समय।<br><br>
+
  
वह आदमी भदोही में, <br>
+
जब बूढ़ी हुई आँखें
खिलाता रहा कालीनों में फूल <br>
+
छूट गयी गुल-तराशी,
दिन और रात की परवाह किये बिना।<br><br>
+
तब भी,
 +
आती रहीं चिट्ठियाँ, उसे बुलाने
 +
तब भी आये
 +
शक्ति चट्टोपाध्याय, सत्यजित राय
 +
आये दुबारा
 +
लकवाग्रस्त नज़रूल उसे मनाने
 +
लौट चलो वहीं....
 +
वहाँ तुम्हारी ज़रूरत है अभी भी...।
  
जब बूढ़ी हुई आँखें<br>
+
उसने हाल पूछा नज़रूल का
छूट गयी गुल-तराशी,<br>
+
उन्हें दिये पैसे,  
तब भी,<br>
+
आने-जाने का भाड़ा,
आती रहीं चिट्ठियाँ, उसे बुलाने<br>
+
एक दरी, थोड़ा-सा ऊन,
तब भी आये<br>
+
विदा कर नज़रूल को
शक्ति चट्टोपाध्याय, सत्यजित राय <br>
+
भदोही के पुराने बाज़ार में
आये दुबारा<br>
+
बैठ कर हिलाता रहा सिर।
लकवाग्रस्त नज़रूल उसे मनाने<br>
+
लौट चलो वहीं....<br>
+
वहाँ तुम्हारी ज़रूरत है अभी भी...।<br><br>
+
  
उसने हाल पूछा नज़रूल का <br>
+
फिर आनी बन्दी हो गयीं चिट्ठियाँ जैसे
उन्हें दिये पैसे, <br>
+
जो आती थीं उन्हें पढ़ने वाला
आने-जाने का भाड़ा,<br>
+
भदोही में न था कोई।
एक दरी, थोड़ा-सा ऊन,<br>
+
भदोही में  
विदा कर नज़रूल को <br>
+
मिली वह ईरानी महिला
भदोही के पुराने बाज़ार में<br>
+
अपने चश्मों का बक्सा लिये
बैठ कर हिलाता रहा सिर।<br><br>
+
  
फिर आनी बन्दी हो गयीं चिट्ठियाँ जैसे <br>
+
भदोही में  
जो आती थीं उन्हें पढ़ने वाला <br>
+
उसे मिलने आये
भदोही में न था कोई।<br>
+
जिन्ना, गाँधी की पीठ पर चढ़ कर
भदोही में <br>
+
साथ में थे मुज़ीबुर्रहमान,
मिली वह ईरानी महिला<br>
+
जूट का बोरा पहने।
अपने चश्मों का बक्सा लिये<br><br>
+
  
भदोही में <br>
+
सब जल्दी में थे
उसे मिलने आये <br>
+
जिन्ना को जाना था कहीं
जिन्ना, गाँधी की पीठ पर चढ़ कर <br>
+
मुज़ीबुर्रहमान सोने के लिए
साथ में थे मुज़ीबुर्रहमान,<br>
+
कोई छाया खोज रहे थे।
जूट का बोरा पहने।<br><br>
+
वे सोये उसकी मड़ई में...रातभर,
 +
सुबह उनकी मइयत में
 +
वह रो तक नहीं पाया।
  
सब जल्दी में थे<br>
+
गाँधी जा रहे थे नोआखाली
जिन्ना को जाना था कहीं<br>
+
रात में,
मुज़ीबुर्रहमान सोने के लिए <br>
+
उसने अपनी लालटेन और
कोई छाया खोज रहे थे।<br>
+
चश्मा उन्हें दे दिया,
वे सोये उसकी मड़ई में...रातभर,<br>
+
चलने के पहले वह जल्दी में  
सुबह उनकी मइयत में<br>
+
पोंछ नहीं पाया
वह रो तक नहीं पाया।<br><br>
+
लालटेन का शीशा
 +
ठीक नहीं कर पाया बत्ती,
 +
इसका भी ध्यान नहीं रहा कि
 +
उसमें तेल है कि नहीं।
  
गाँधी जा रहे थे नोआखाली <br>
+
वह पूछना भूल गया गाँधी से कि
रात में, <br>
+
उन्हें चश्मा लगाने के बाद
उसने अपनी लालटेन और <br>
+
दिख रहा है कि नहीं
चश्मा उन्हें दे दिया,<br>
+
वह परेशान होकर खोजता रहा
चलने के पहले वह जल्दी में <br>
+
ईरानी महिला को
पोंछ नहीं पाया <br>
+
गाँधी को दिलाने के लिए चश्मा
लालटेन का शीशा <br>
+
ठीक नम्बर का
ठीक नहीं कर पाया बत्ती, <br>
+
इसका भी ध्यान नहीं रहा कि<br>
+
उसमें तेल है कि नहीं।<br><br>
+
  
वह पूछना भूल गया गाँधी से कि<br>
+
वह गाँधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर
उन्हें चश्मा लगाने के बाद <br>
+
रात के उस अन्धकार में
दिख रहा है कि नहीं ।<br>
+
उसे दिख नहीं रहा था कुछ गाँधी के सिवा।
वह परेशान होकर खोजता रहा<br>
+
ईरानी महिला को <br>
+
गाँधी को दिलाने के लिए चश्मा <br>
+
ठीक नम्बर का<br><br>
+
  
वह गाँधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर <br>
+
उसकी लालटेन लेकर
रात के उस अन्धकार में <br>
+
गाँधी गये बहुत तेज़ चाल से
उसे दिख नहीं रहा था कुछ गाँधी के सिवा।<br><br>
+
वह हाँफता हुआ दौड़ता रहा
 +
कुछ दूर तक
 +
गाँधी के पीछे,
 +
पर गाँधी निकल गये आगे
 +
वह लौट आया भदोही
 +
अपनी मड़ई तक...
 +
जो जल चुकी थी
 +
गाँधी के जाने के बाद ही।
  
उसकी लालटेन लेकर <br>
+
वही जली हुई मड़ई के पूरब खड़ा था
गाँधी गये बहुत तेज़ चाल से <br>
+
टायर की चप्पल पहनकर
वह हाँफता हुआ दौड़ता रहा<br>
+
भदोही में
कुछ दूर तक <br>
+
गाँधी की राह देखता।
गाँधी के पीछे,<br>
+
पर गाँधी निकल गये आगे <br>
+
वह लौट आया भदोही <br>
+
अपनी मड़ई तक...<br>
+
जो जल चुकी थी <br>
+
गाँधी के जाने के बाद ही।<br><br>
+
  
वही जली हुई मड़ई के पूरब खड़ा था<br>
+
गाँधी पता नहीं किस रास्ते
टायर की चप्पल पहनकर <br>
+
निकल गये नोआखाली से दिल्ली
भदोही में <br>
+
उसने गाँधी की फ़ोटो देखी
गाँधी की राह देखता।<br><br>
+
उसने गाँधी का रोना सुना,
 +
गाँधी का इन्तजार करते मर गयी
 +
वह ईरानी महिला
 +
भदोही के बुनकरों के साथ ही।
 +
उसके चश्मों का बक्सा भदोही के बड़े तालाब के किनारे
 +
मिला, बिखरा उसे,
 +
जिसमें गाँधी की फ़ोटो थी जली हुई...।
  
गाँधी पता नहीं किस रास्ते <br>
+
फिर उसने सुना
निकल गये नोआखाली से दिल्ली<br>
+
बीमार नज़रूल भीख माँग कर मरे
उसने गाँधी की फ़ोटो देखी <br>
+
ढाका के आस-पास कहीं,
उसने गाँधी का रोना सुना, <br>
+
उसने सुना रवीन्द्र बाउल गा कर अपना
गाँधी का इन्तजार करते मर गयी <br>
+
पेट जिला रहे हैं वीरभूमि-में
वह ईरानी महिला <br>
+
उसने सुना, लाखों लोग मरे
भदोही के बुनकरों के साथ ही।<br>
+
बंगाल में अकाल,  
उसके चश्मों का बक्सा भदोही के बड़े तालाब के किनारे <br>
+
उसने पूरब की एक-एक झनक सुनी।
मिला, बिखरा उसे, <br>
+
जिसमें गाँधी की फ़ोटो थी जली हुई...।<br><br>
+
  
फिर उसने सुना <br>
+
एक आदमी मुझे मिला  
बीमार नज़रूल भीख माँग कर मरे <br>
+
भदोही में  
ढाका के आस-पास कहीं,<br>
+
वह टायर की चप्पल पहने था
उसने सुना रवीन्द्र बाउल गा कर अपना <br>
+
उसे कुछ दिख नहीं रहा था
पेट जिला रहे हैं वीरभूमि-में <br>
+
उसे चोट लगी थी बहुत
उसने सुना, लाखों लोग मरे <br>
+
वह चल नहीं पा रहा था।  
बंगाल में अकाल, <br>
+
उसके घाँवों पर ऊन के रेशे चिपके थे
उसने पूरब की एक-एक झनक सुनी।<br><br>
+
जबकि गुल-तराशी छोड़े बीत गये थे
 
+
बहुत दिन !
एक आदमी मुझे मिला <br>
+
भदोही में <br>
+
वह टायर की चप्पल पहने था<br>
+
उसे कुछ दिख नहीं रहा था<br>
+
उसे चोट लगी थी बहुत<br>
+
वह चल नहीं पा रहा था। <br>
+
उसके घाँवों पर ऊन के रेशे चिपके थे<br>
+
जबकि गुल-तराशी छोड़े बीत गये थे<br>
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बहुत दिन !<br>
+
 
बहुत दिन !
 
बहुत दिन !
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11:54, 1 मार्च 2013 के समय का अवतरण

एक आदमी मुझे मिला भदोही में
वह टायर की चप्पल पहने था।
वह ढाका से आया था छिपता-छिपाता,
कुछ दिनों रहा वह हावड़ा में
एक चटकल में जूट पहचानने का काम करता रहा
वहाँ से छटनी के बाद वह
गया सूरत
वहाँ फेरी लगा कर बेचता रहा साड़ियाँ
वहाँ भी ठिकाना नहीं लगा
तब आया वह भदोही
टायर की चप्पल पहनकर

इस बीच उसे बुलाने के लिए
आयी चिट्ठियाँ, कितनी
बार आये ताराशंकर बनर्जी, नन्दलाल बोस
रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नज़रूल इस्लाम और
मुज़ीबुर्रहमान।

सबने उसे मनाया,
कहा, लौट चलो ढाका
लौट चलो मुर्शिदाबाद, बोलपुर
वीरभूम कहीं भी।

उसके पास एक चश्मा था,
जिसे उसने ढाका की सड़क से
किसी ईरानी महिला से ख़रीदा था,
उसके पास एक लालटेन थी
जिसका रंग पता नहीं चलता था
उसका प्रकाश काफ़ी मटमैला होता था,
उसका शीशा टूटा था,
वहाँ काग़ज़ लगाता था वह
जलाते समय।

वह आदमी भदोही में,
खिलाता रहा कालीनों में फूल
दिन और रात की परवाह किये बिना।

जब बूढ़ी हुई आँखें
छूट गयी गुल-तराशी,
तब भी,
आती रहीं चिट्ठियाँ, उसे बुलाने
तब भी आये
शक्ति चट्टोपाध्याय, सत्यजित राय
आये दुबारा
लकवाग्रस्त नज़रूल उसे मनाने
लौट चलो वहीं....
वहाँ तुम्हारी ज़रूरत है अभी भी...।

उसने हाल पूछा नज़रूल का
उन्हें दिये पैसे,
आने-जाने का भाड़ा,
एक दरी, थोड़ा-सा ऊन,
विदा कर नज़रूल को
भदोही के पुराने बाज़ार में
बैठ कर हिलाता रहा सिर।

फिर आनी बन्दी हो गयीं चिट्ठियाँ जैसे
जो आती थीं उन्हें पढ़ने वाला
भदोही में न था कोई।
भदोही में
मिली वह ईरानी महिला
अपने चश्मों का बक्सा लिये

भदोही में
उसे मिलने आये
जिन्ना, गाँधी की पीठ पर चढ़ कर
साथ में थे मुज़ीबुर्रहमान,
जूट का बोरा पहने।

सब जल्दी में थे
जिन्ना को जाना था कहीं
मुज़ीबुर्रहमान सोने के लिए
कोई छाया खोज रहे थे।
वे सोये उसकी मड़ई में...रातभर,
सुबह उनकी मइयत में
वह रो तक नहीं पाया।

गाँधी जा रहे थे नोआखाली
रात में,
उसने अपनी लालटेन और
चश्मा उन्हें दे दिया,
चलने के पहले वह जल्दी में
पोंछ नहीं पाया
लालटेन का शीशा
ठीक नहीं कर पाया बत्ती,
इसका भी ध्यान नहीं रहा कि
उसमें तेल है कि नहीं।

वह पूछना भूल गया गाँधी से कि
उन्हें चश्मा लगाने के बाद
दिख रहा है कि नहीं ।
वह परेशान होकर खोजता रहा
ईरानी महिला को
गाँधी को दिलाने के लिए चश्मा
ठीक नम्बर का

वह गाँधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर
रात के उस अन्धकार में
उसे दिख नहीं रहा था कुछ गाँधी के सिवा।

उसकी लालटेन लेकर
गाँधी गये बहुत तेज़ चाल से
वह हाँफता हुआ दौड़ता रहा
कुछ दूर तक
गाँधी के पीछे,
पर गाँधी निकल गये आगे
वह लौट आया भदोही
अपनी मड़ई तक...
जो जल चुकी थी
गाँधी के जाने के बाद ही।

वही जली हुई मड़ई के पूरब खड़ा था
टायर की चप्पल पहनकर
भदोही में
गाँधी की राह देखता।

गाँधी पता नहीं किस रास्ते
निकल गये नोआखाली से दिल्ली
उसने गाँधी की फ़ोटो देखी
उसने गाँधी का रोना सुना,
गाँधी का इन्तजार करते मर गयी
वह ईरानी महिला
भदोही के बुनकरों के साथ ही।
उसके चश्मों का बक्सा भदोही के बड़े तालाब के किनारे
मिला, बिखरा उसे,
जिसमें गाँधी की फ़ोटो थी जली हुई...।

फिर उसने सुना
बीमार नज़रूल भीख माँग कर मरे
ढाका के आस-पास कहीं,
उसने सुना रवीन्द्र बाउल गा कर अपना
पेट जिला रहे हैं वीरभूमि-में
उसने सुना, लाखों लोग मरे
बंगाल में अकाल,
उसने पूरब की एक-एक झनक सुनी।

एक आदमी मुझे मिला
भदोही में
वह टायर की चप्पल पहने था
उसे कुछ दिख नहीं रहा था
उसे चोट लगी थी बहुत
वह चल नहीं पा रहा था।
उसके घाँवों पर ऊन के रेशे चिपके थे
जबकि गुल-तराशी छोड़े बीत गये थे
बहुत दिन !
बहुत दिन !