भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"धूप लगी शहतीरें / गुलाब सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब सिंह |संग्रह=बाँस-वन और बाँ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
छो ("धूप लगी शहतीरें / गुलाब सिंह" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (बेमियादी) [move=sysop] (बेमियादी))) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 32: | पंक्ति 32: | ||
घिरा अँधेरा आँकें | घिरा अँधेरा आँकें | ||
− | उठे धुएँ से स्याह पड़ | + | उठे धुएँ से स्याह पड़ गईं |
धूप लगी शहतीरें। | धूप लगी शहतीरें। | ||
</poem> | </poem> |
17:30, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
धुले पान-सी नर्म हथेली
उभरी हुई लकीरें,
तेज़ छुरी-सी साँसें
मन का हराहरापन चीरें।
ओंठों खिली सुर्खियाँ सूखीं
कंधों ढली दुपहरी,
पनघट से रीती गागर तक
प्यास अनबुझी ठहरी,
उतरी नदी उम्र की, देकर-
घर की कुछ तस्वीरें।
दाँतों सी हिलती खपरैलें
तिनके-तिनके काँपे,
छाजन से बिस्तर बँड़ेर तक
लटके हुए बुढ़ापे,
झुकी कमर खम्भे-सी पकड़े
झूलें ‘मोती-हीरे’।
आँसू, सपने, नींद नहीं
सूनी सपाट दो आँखें
जलती लौ-सी काँप-काँप कर
घिरा अँधेरा आँकें
उठे धुएँ से स्याह पड़ गईं
धूप लगी शहतीरें।