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17:33, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
फसल कम खूथियाँ ज्यादा
हैं किसानी में
बादलों के सामने
पहले जिरह-बख़्तर
तानकर छाती, उठाये
युद्ध का स्तर
छिड़ी सूखे से लड़ाई
राजधानी में।
दूर तक दौड़ी नहर
गहरे नए नलकूप
क्या हुआ फिर भी
न बजते आँगनों में सूप
कंगनों के बोल
कविता या कहानी में।
देश अपना है अनोखा
नहीं धोखा है,
किले की दीवार में
कोई झरोखा है,
जहाँ से हर लहर उठती
रेत-पानी में।