"पटकथा / पृष्ठ 1 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल }} जब मैं बाहर आया<br> मेरे हाथों में<br> एक कविता थी औ...) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=धूमिल | |रचनाकार=धूमिल | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKPageNavigation | |
− | जब मैं बाहर आया | + | |पीछे= |
− | मेरे हाथों में | + | |आगे=पटकथा / पृष्ठ 2 / धूमिल |
− | एक कविता थी और दिमाग में | + | |सारणी=पटकथा / धूमिल |
− | आँतों का एक्स-रे। | + | }} |
− | वह काला धब्बा | + | <poem> |
− | कल तक एक शब्द था; | + | जब मैं बाहर आया |
− | खून के अँधेर में | + | मेरे हाथों में |
− | दवा का ट्रेडमार्क | + | एक कविता थी और दिमाग में |
− | बन गया था। | + | आँतों का एक्स-रे। |
− | औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद | + | वह काला धब्बा |
− | अपनी ऊब का | + | कल तक एक शब्द था; |
− | दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है। | + | खून के अँधेर में |
− | मैंने सोचा ! | + | दवा का ट्रेडमार्क |
− | क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच | + | बन गया था। |
− | अपनी भूख को ज़िन्दा रखना | + | औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद |
− | जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की | + | अपनी ऊब का |
− | वाजिब मजबूरी है। | + | दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है। |
− | मैंने सोचा और संस्कार के | + | मैंने सोचा! |
− | वर्जित इलाकों में | + | क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच |
− | अपनी आदतों का शिकार | + | अपनी भूख को ज़िन्दा रखना |
− | होने के पहले ही बाहर चला आया। | + | जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की |
− | बाहर हवा थी | + | वाजिब मजबूरी है। |
− | धूप थी | + | मैंने सोचा और संस्कार के |
− | घास थी | + | वर्जित इलाकों में |
− | मैंने कहा | + | अपनी आदतों का शिकार |
− | मुझे अच्छी तरह याद है- | + | होने के पहले ही बाहर चला आया। |
− | मैंने यही कहा था | + | बाहर हवा थी |
− | मेरी नस-नस में बिजली | + | धूप थी |
− | दौड़ रही थी | + | घास थी |
− | उत्साह में | + | मैंने कहा आज़ादी… |
− | + | मुझे अच्छी तरह याद है- | |
− | मुझे अजनबी लग रहा था | + | मैंने यही कहा था |
− | मैंने कहा-आ- | + | मेरी नस-नस में बिजली |
− | और दौड़ता हुआ खेतों की ओर | + | दौड़ रही थी |
− | गया। वहाँ कतार के कतार | + | उत्साह में |
− | अनाज के अँकुए फूट रहे थे | + | ख़ुद मेरा स्वर |
− | मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये | + | मुझे अजनबी लग रहा था |
− | बच्चे। तारों पर | + | मैंने कहा-आ-ज़ा-दी |
− | + | और दौड़ता हुआ खेतों की ओर | |
− | मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ… | + | गया। |
− | खेत की मेड़ पार करते हुये | + | वहाँ कतार के कतार |
− | मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी | + | अनाज के अँकुए फूट रहे थे |
− | सड़क पर जाते हुये आदमी से | + | मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये |
− | उसका नाम पूछा | + | बच्चे। |
− | और कहा- बधाई… | + | तारों पर |
− | घर लौटकर | + | चिड़ियाँ चहचहा रही थीं |
− | मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं | + | मैंने कहा- काँसे की बजती हुई घण्टियाँ… |
− | पुरानी तस्वीरों को दीवार से | + | खेत की मेड़ पार करते हुये |
− | उतारकर | + | मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी |
− | उन्हें साफ किया | + | सड़क पर जाते हुये आदमी से |
− | और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह) | + | उसका नाम पूछा |
− | पोंछकर टाँग दिया। | + | और कहा- बधाई… |
− | मैंने दरवाजे के बाहर | + | घर लौटकर |
− | एक पौधा लगाया और कहा– | + | मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं |
− | वन महोत्सव… | + | पुरानी तस्वीरों को दीवार से |
− | और देर तक | + | उतारकर |
− | हवा में गरदन उचका-उचकाकर | + | उन्हें साफ किया |
− | लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा | + | और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह) |
− | देर तक महसूस करता रहा– | + | पोंछकर टाँग दिया। |
− | कि मेरे भीतर | + | मैंने दरवाजे के बाहर |
− | + | एक पौधा लगाया और कहा– | |
− | औसतन ,जवान खून है | + | वन महोत्सव… |
− | मगर ,मुझे शान्ति चाहिये | + | और देर तक |
− | इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया | + | हवा में गरदन उचका-उचकाकर |
− | ‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’ | + | लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा |
− | और चहकते हुये कहा | + | देर तक महसूस करता रहा– |
− | यही मेरी आस्था है | + | कि मेरे भीतर |
− | यही मेरा कानून है। | + | वक़्त का सामना करने के लिये |
− | इस तरह जो था उसे मैंने | + | औसतन,जवान खून है |
− | जी भरकर प्यार किया | + | मगर, मुझे शान्ति चाहिये |
− | और जो नहीं था | + | इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया |
− | उसका इंतज़ार किया। | + | ‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’ |
− | मैंने इंतज़ार किया– | + | और चहकते हुये कहा |
− | अब कोई बच्चा | + | यही मेरी आस्था है |
− | भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा | + | यही मेरा कानून है। |
− | अब कोई छत बारिश में | + | इस तरह जो था उसे मैंने |
− | नहीं टपकेगी। | + | जी भरकर प्यार किया |
− | अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में | + | और जो नहीं था |
− | अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा | + | उसका इंतज़ार किया। |
− | अब कोई दवा के अभाव में | + | मैंने इंतज़ार किया– |
− | घुट-घुटकर नहीं मरेगा | + | अब कोई बच्चा |
− | अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा | + | भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा |
− | कोई किसी को नंगा नहीं करेगा | + | अब कोई छत बारिश में |
− | अब यह ज़मीन अपनी है | + | नहीं टपकेगी। |
− | आसमान अपना है | + | अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में |
− | जैसा पहले हुआ करता था… | + | अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा |
− | सूर्य,हमारा सपना है | + | अब कोई दवा के अभाव में |
− | मैं इन्तजा़र करता रहा.. | + | घुट-घुटकर नहीं मरेगा |
− | इन्तजा़र करता रहा… | + | अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा |
− | इन्तजा़र करता रहा… | + | कोई किसी को नंगा नहीं करेगा |
− | जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता… | + | अब यह ज़मीन अपनी है |
− | संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता… | + | आसमान अपना है |
− | ये सारे शब्द थे | + | जैसा पहले हुआ करता था… |
− | सुनहरे वादे थे | + | सूर्य, हमारा सपना है |
− | + | मैं इन्तजा़र करता रहा.. | |
− | सुन्दर थे | + | इन्तजा़र करता रहा… |
− | मौलिक थे | + | इन्तजा़र करता रहा… |
− | मुखर थे | + | जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता… |
− | मैं सुनता रहा… | + | संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता… |
− | सुनता रहा… | + | ये सारे शब्द थे |
− | सुनता रहा… | + | सुनहरे वादे थे |
− | मतदान होते रहे | + | ख़ुशफ़हम इरादे थे |
− | मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे | + | सुन्दर थे |
− | उसी लोकनायक को | + | मौलिक थे |
− | बार-बार चुनता रहा | + | मुखर थे |
− | जिसके पास हर शंका और | + | मैं सुनता रहा… |
− | हर सवाल का | + | सुनता रहा… |
− | एक ही जवाब था | + | सुनता रहा… |
− | + | मतदान होते रहे | |
− | महकता हुआ एक फूल | + | मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे |
− | गुलाब का। | + | उसी लोकनायक को |
− | वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र | + | बार-बार चुनता रहा |
− | समझाता रहा। मैं | + | जिसके पास हर शंका और |
− | समझाता रहा- | + | हर सवाल का |
− | वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल | + | एक ही जवाब था |
+ | या कि कोट के बटन-होल में | ||
+ | महकता हुआ एक फूल | ||
+ | गुलाब का। | ||
+ | वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र | ||
+ | समझाता रहा। | ||
+ | मैं ख़ुद को | ||
+ | समझाता रहा- 'जो मैं चाहता हूँ- | ||
+ | वही होगा। | ||
+ | होगा-आज नहीं तो कल | ||
मगर सब कुछ सही होगा। | मगर सब कुछ सही होगा। | ||
+ | </poem> |
11:45, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण
पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ >> |
जब मैं बाहर आया
मेरे हाथों में
एक कविता थी और दिमाग में
आँतों का एक्स-रे।
वह काला धब्बा
कल तक एक शब्द था;
खून के अँधेर में
दवा का ट्रेडमार्क
बन गया था।
औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद
अपनी ऊब का
दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।
मैंने सोचा!
क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।
मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।
बाहर हवा थी
धूप थी
घास थी
मैंने कहा आज़ादी…
मुझे अच्छी तरह याद है-
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
ख़ुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-ज़ा-दी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
गया।
वहाँ कतार के कतार
अनाज के अँकुए फूट रहे थे
मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये
बच्चे।
तारों पर
चिड़ियाँ चहचहा रही थीं
मैंने कहा- काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…
खेत की मेड़ पार करते हुये
मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
सड़क पर जाते हुये आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा- बधाई…
घर लौटकर
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उतारकर
उन्हें साफ किया
और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
पोंछकर टाँग दिया।
मैंने दरवाजे के बाहर
एक पौधा लगाया और कहा–
वन महोत्सव…
और देर तक
हवा में गरदन उचका-उचकाकर
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
देर तक महसूस करता रहा–
कि मेरे भीतर
वक़्त का सामना करने के लिये
औसतन,जवान खून है
मगर, मुझे शान्ति चाहिये
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’
और चहकते हुये कहा
यही मेरी आस्था है
यही मेरा कानून है।
इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था
उसका इंतज़ार किया।
मैंने इंतज़ार किया–
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह ज़मीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था…
सूर्य, हमारा सपना है
मैं इन्तजा़र करता रहा..
इन्तजा़र करता रहा…
इन्तजा़र करता रहा…
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
ख़ुशफ़हम इरादे थे
सुन्दर थे
मौलिक थे
मुखर थे
मैं सुनता रहा…
सुनता रहा…
सुनता रहा…
मतदान होते रहे
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
या कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा।
मैं ख़ुद को
समझाता रहा- 'जो मैं चाहता हूँ-
वही होगा।
होगा-आज नहीं तो कल
मगर सब कुछ सही होगा।