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"पटकथा / पृष्ठ 8 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

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नैतिक समर्पण है<br>
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तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।
लेकिन क्या यह सच है?<br>
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मुझसे कहा गया कि संसद
या यह सच है कि<br>
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देश की धड़कन को
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प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
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जनता को
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और आधा पानी है<br>
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नैतिक समर्पण है
और यदि यह सच नहीं है<br>
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लेकिन क्या यह सच है?
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को<br>
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अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?<br>
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अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
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निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण<br>
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करता हूँ जिसका मेरे पास
जिये हैं।<br>
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कोई उत्तर नहीं है
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है<br>
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और आज तक –
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं<br>
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हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।<br>
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हफ़्ते पर हफ़्ते तह किये हैं।  
उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में<br>
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डूबा हुआ सारा का सारा देश<br>
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निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
पहले की तरह आज भी<br>
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जिये हैं।
मेरा कारागार है।
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मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
 +
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं
 +
हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।
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दरिद्र की व्यथा की तरह
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उचाट और कूँथता हुआ।  
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घृणा में
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डूबा हुआ सारा का सारा देश
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पहले की तरह आज भी
 +
मेरा कारागार है।</poem>

12:17, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

भूख और भूख की आड़ में
चबायी गयी चीजों का अक्स
उनके दाँतों पर ढूँढना
बेकार है।
समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है।
मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है।
यहाँ जनता एक गाड़ी है
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
‘दया’ है
और भूख में
तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?
मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल
करता हूँ जिसका मेरे पास
कोई उत्तर नहीं है
और आज तक –
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुज़ार दी हैं
हफ़्ते पर हफ़्ते तह किये हैं।
ऊब के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं
हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूँथता हुआ।
घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है।