"तिलक / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर
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− | + | हो भले देते बुरे का साथ हो। | |
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भूल कर भी तुम तिलक खुलते नहीं। | भूल कर भी तुम तिलक खुलते नहीं। | ||
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किस लिए लोभी न तुम से काम लें। | किस लिए लोभी न तुम से काम लें। | ||
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तुम लहर से लोभ को धुलते नहीं। | तुम लहर से लोभ को धुलते नहीं। | ||
हो भलाई के लिए ही जब बने। | हो भलाई के लिए ही जब बने। | ||
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तब तिलक तुम क्यों बुराई पर तुले। | तब तिलक तुम क्यों बुराई पर तुले। | ||
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भेद छलियों के खुले तुम से न जब। | भेद छलियों के खुले तुम से न जब। | ||
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भाल पर तब तुम खुले तो क्या खुले। | भाल पर तब तुम खुले तो क्या खुले। | ||
क्यों नहीं तुम बिगड़ गये उन से। | क्यों नहीं तुम बिगड़ गये उन से। | ||
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जो तुम्हें नित बिगाड़ पाते हैं। | जो तुम्हें नित बिगाड़ पाते हैं। | ||
− | |||
किस लिए हाथ से बने उन के। | किस लिए हाथ से बने उन के। | ||
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जो तिलक नित तुम्हें बनाते हैं। | जो तिलक नित तुम्हें बनाते हैं। | ||
− | की गई साँसत | + | की गई साँसत धरम के नाम पर। |
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जी कड़ा कर कब तलक कोई सहे। | जी कड़ा कर कब तलक कोई सहे। | ||
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किस लिए माथे किसी के पड़ गये। | किस लिए माथे किसी के पड़ गये। | ||
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जब तिलक तुम नित बिगड़ते ही रहे। | जब तिलक तुम नित बिगड़ते ही रहे। | ||
− | हो | + | हो धरम का रंग बहुत तुम पर चढ़ा। |
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हो भले ही तुम भलाई में सने। | हो भले ही तुम भलाई में सने। | ||
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पर तिलक जब है दुरंगी ही बुरी। | पर तिलक जब है दुरंगी ही बुरी। | ||
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तब भला क्या सोच बहुरंगी बने। | तब भला क्या सोच बहुरंगी बने। | ||
नेक के सिर पर पड़ीं कठिनाइयाँ। | नेक के सिर पर पड़ीं कठिनाइयाँ। | ||
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नेकियों की ही लहर में हैं बही। | नेकियों की ही लहर में हैं बही। | ||
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तुम तिलक धुलते व पुँछते ही रहे। | तुम तिलक धुलते व पुँछते ही रहे। | ||
− | + | पर तुम्हारी पूछ होती ही रही। | |
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लोग उतना ही बढ़ाते हैं तुम्हें। | लोग उतना ही बढ़ाते हैं तुम्हें। | ||
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रंग जितने ही बुरे हों चढ़ गये। | रंग जितने ही बुरे हों चढ़ गये। | ||
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पर तिलक इस बात को सोचो तुम्हीं। | पर तिलक इस बात को सोचो तुम्हीं। | ||
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इस तरह तुम घट गये या बढ़ गये। | इस तरह तुम घट गये या बढ़ गये। | ||
किस लिए यों बँधी लकीरों पर। | किस लिए यों बँधी लकीरों पर। | ||
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हो बिना ही हिले डुले अड़ते। | हो बिना ही हिले डुले अड़ते। | ||
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है सिधाई नहीं तिलक तुम में। | है सिधाई नहीं तिलक तुम में। | ||
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जब कि हो काट छाँट में पड़ते। | जब कि हो काट छाँट में पड़ते। | ||
हो तिलक तुम रूप रंग रखते बहुत। | हो तिलक तुम रूप रंग रखते बहुत। | ||
− | + | हैं तुम्हारा भेद पा सकते न हम। | |
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रँग किसी बहुरूपिये के रंग में। | रँग किसी बहुरूपिये के रंग में। | ||
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हो किसी बहुरूपिये से तुम न कम। | हो किसी बहुरूपिये से तुम न कम। | ||
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09:41, 19 मार्च 2014 के समय का अवतरण
हो भले देते बुरे का साथ हो।
भूल कर भी तुम तिलक खुलते नहीं।
किस लिए लोभी न तुम से काम लें।
तुम लहर से लोभ को धुलते नहीं।
हो भलाई के लिए ही जब बने।
तब तिलक तुम क्यों बुराई पर तुले।
भेद छलियों के खुले तुम से न जब।
भाल पर तब तुम खुले तो क्या खुले।
क्यों नहीं तुम बिगड़ गये उन से।
जो तुम्हें नित बिगाड़ पाते हैं।
किस लिए हाथ से बने उन के।
जो तिलक नित तुम्हें बनाते हैं।
की गई साँसत धरम के नाम पर।
जी कड़ा कर कब तलक कोई सहे।
किस लिए माथे किसी के पड़ गये।
जब तिलक तुम नित बिगड़ते ही रहे।
हो धरम का रंग बहुत तुम पर चढ़ा।
हो भले ही तुम भलाई में सने।
पर तिलक जब है दुरंगी ही बुरी।
तब भला क्या सोच बहुरंगी बने।
नेक के सिर पर पड़ीं कठिनाइयाँ।
नेकियों की ही लहर में हैं बही।
तुम तिलक धुलते व पुँछते ही रहे।
पर तुम्हारी पूछ होती ही रही।
लोग उतना ही बढ़ाते हैं तुम्हें।
रंग जितने ही बुरे हों चढ़ गये।
पर तिलक इस बात को सोचो तुम्हीं।
इस तरह तुम घट गये या बढ़ गये।
किस लिए यों बँधी लकीरों पर।
हो बिना ही हिले डुले अड़ते।
है सिधाई नहीं तिलक तुम में।
जब कि हो काट छाँट में पड़ते।
हो तिलक तुम रूप रंग रखते बहुत।
हैं तुम्हारा भेद पा सकते न हम।
रँग किसी बहुरूपिये के रंग में।
हो किसी बहुरूपिये से तुम न कम।