भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अनूठी बातें / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
जो बहुत बनते हैं उनके पास से।
+
जो बहुत बनते हैं उनके पास से।
 
+
चाह होती है कि कब कैसे टलें।
चाह होती है कि कब वै+से टलें।
+
 
+
 
जो मिले जी खोल कर, उनके यहाँ।
 
जो मिले जी खोल कर, उनके यहाँ।
 
+
चाहता है जी कि सिर के बल चलें।।
चाहता है जी कि सिर के बल चलें।
+
  
 
भूल जावे कभी न अपनापन।
 
भूल जावे कभी न अपनापन।
 
 
जान दे पर न मान को दे, खो।
 
जान दे पर न मान को दे, खो।
 
 
लोग जिस आँख से तुम्हें देखें।
 
लोग जिस आँख से तुम्हें देखें।
 
+
तुम उसी आँख से उन्हें देखो॥
तुम उसी आँख से उन्हें देखो।
+
  
 
और की खोट देखती बेला।
 
और की खोट देखती बेला।
 
+
टकटकी लोग बँधा देते हैं।
टकटकी लोग बाँधा देते हैं।
+
 
+
 
पर कसर देखते समय अपनी।
 
पर कसर देखते समय अपनी।
 
+
बेतरह आँख मूँद लेते हैं।।
बेतरह आँख मूँद लेते हैं।
+
  
 
फिर कभी खुलने न पाईं माँद वे।
 
फिर कभी खुलने न पाईं माँद वे।
 
 
इस तरह मन के मसोसों से हुईं।
 
इस तरह मन के मसोसों से हुईं।
 
 
मूँदते ही मूँदते मुख और का।
 
मूँदते ही मूँदते मुख और का।
 +
मदभरी आँखें बहुत सी मुँद गईं॥
  
मदभरी आँखें बहुत सी मुँद गईं।
+
छोड़ संजीदगी सजे कूचे।
 
+
बन गये जब लोहार की कूँची।
छोड़ संजीदगी सजे वू+ँचे।
+
 
+
बन गये जब लोहार की वू+ँची।
+
 
+
 
तो बचा रह सका न ऊँचापन।
 
तो बचा रह सका न ऊँचापन।
 
+
आँख भी रह सकी नहीं ऊँची।।
आँख भी रह सकी नहीं ऊँची।
+
  
 
कौन बातें बना सका अपनी।
 
कौन बातें बना सका अपनी।
 
+
बात बेढंग बढ़ा-बढ़ा कर के।
बात बेढंग बढ़ा बढ़ा कर के।
+
 
+
 
आँख पर चढ़ गया न कौन भला।
 
आँख पर चढ़ गया न कौन भला।
 
+
आँख अपनी चढ़ा-चढ़ा कर के।।
आँख अपनी चढ़ा चढ़ा कर के।
+
  
 
बात सुन कर सिखावनों-डूबी।
 
बात सुन कर सिखावनों-डूबी।
 
 
जो कि है ठीक राह बतलाती।
 
जो कि है ठीक राह बतलाती।
 
 
जब नहीं सूझ बूझ रंग चढ़ा।
 
जब नहीं सूझ बूझ रंग चढ़ा।
 
+
तब भला आँख क्यों न चढ़ जाती॥
तब भला आँख क्यों न चढ़ जाती।
+
  
 
तुम भली चाल सीख लो चलना।
 
तुम भली चाल सीख लो चलना।
 
 
औ भलाई करो भले जो हो।
 
औ भलाई करो भले जो हो।
 
 
धूल में मत बटा करो रस्सी।
 
धूल में मत बटा करो रस्सी।
 
+
आँख में धूल डालते क्यों हो।।
आँख में धूल डालते क्यों हो।
+
  
 
ठीक वैसा न मान ले उस को।
 
ठीक वैसा न मान ले उस को।
 
 
जो कि जैसे लिबास में दीखे।
 
जो कि जैसे लिबास में दीखे।
 
 
जी अगर है टटोल लेना तो।
 
जी अगर है टटोल लेना तो।
 
+
देखना आँख खोल कर सीखे॥
देखना आँख खोल कर सीखे।
+
  
 
चाह जो यह हैं कि हाथों से पले।
 
चाह जो यह हैं कि हाथों से पले।
 
 
पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें।
 
पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें।
 
 
तो जिसे हैं आँख में रखते सदा।
 
तो जिसे हैं आँख में रखते सदा।
 
+
चाहिए हम आँख भी उस पर रखें।।
चाहिए हम आँख भी उस पर रखें।
+
  
 
जो न चित का नित बना चाकर रहा।
 
जो न चित का नित बना चाकर रहा।
 
 
बान चितवन के नहीं जिस पर चले।
 
बान चितवन के नहीं जिस पर चले।
 
 
है जिसे पैसा नचा पाता नहीं।
 
है जिसे पैसा नचा पाता नहीं।
 
+
आ सका ऐसा न आँखों के तले।।
आ सका ऐसा न आँखों के तले।
+
  
 
किस तरह से सँभल सकेंगे वे।
 
किस तरह से सँभल सकेंगे वे।
 
 
अपने को जो नहीं सँभालेंगे।
 
अपने को जो नहीं सँभालेंगे।
 
 
क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे।
 
क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे।
 +
आँख का तेल जो निकालेंगे॥
  
आँख का तेल जो निकालेंगे।
+
सधा सकेगा काम तब कैसे भला।
 
+
हम करेंगे साधने में जब कसर।
सधा सकेगा काम तब वै+से भला।
+
 
+
हम करेंगे साधाने में जब कसर।
+
 
+
 
काम आयेंगी नहीं चालाकियाँ।
 
काम आयेंगी नहीं चालाकियाँ।
 
+
जब करेंगे काम आँखें बंद कर।।
जब करेंगे काम आँखें बंद कर।
+
  
 
जब कि चालाकी न चालाकी रही।
 
जब कि चालाकी न चालाकी रही।
 
 
आँख उस पर तब न क्यों दी जायगी।
 
आँख उस पर तब न क्यों दी जायगी।
 
 
लोग उँगली क्यों उठायेंगे न तब।
 
लोग उँगली क्यों उठायेंगे न तब।
 
+
जब कि उँगली आँख में की जायगी।।
जब कि उँगली आँख में की जायगी।
+
  
 
है खटकती किसे नहीं दुनिया।
 
है खटकती किसे नहीं दुनिया।
 
 
लग सके कब खुटाइयों के पते।
 
लग सके कब खुटाइयों के पते।
 
 
तब परखते अगर परख वाली।
 
तब परखते अगर परख वाली।
 
+
आँख के सामने उसे रखते॥
आँख के सामने उसे रखते।
+
  
 
क्यों कहें कंगालपन को भी कभी।
 
क्यों कहें कंगालपन को भी कभी।
 
 
हैं खुली आँखें हमारी जाँचती।
 
हैं खुली आँखें हमारी जाँचती।
 
 
सामने जो वे न नाचें आँख के।
 
सामने जो वे न नाचें आँख के।
 
+
भूख से है आँख जिन की नाचती।।
भूख से है आँख जिन की नाचती।
+
  
 
खिल उठें देख चापलूसों को।
 
खिल उठें देख चापलूसों को।
 
+
देख बेलौस को कुढ़ें काँखें।
देख बेलौस को वु+ढ़ें काँखें।
+
 
+
 
क्यों भला हम बिगड़ न जायेंगे।
 
क्यों भला हम बिगड़ न जायेंगे।
 
+
जब हमारी बिगड़ गईं आँखें।।
जब हमारी बिगड़ गईं आँखें।
+
  
 
है जिसे सूझ ही नहीं उस की।
 
है जिसे सूझ ही नहीं उस की।
 
 
क्या करेंगे उघार कर आँखें।
 
क्या करेंगे उघार कर आँखें।
 
+
है परसता जहाँ अँधेरा वहाँ।
है परसता जहाँ ऍंधोरा वाँ।
+
क्या करेंगे पसार कर आँखें॥
 
+
क्या करेंगे पसार कर आँखें।
+
  
 
ऊब जाओ न उलझनों में पड़।
 
ऊब जाओ न उलझनों में पड़।
 
 
जंगलों को ख्रगाल कर देखो।
 
जंगलों को ख्रगाल कर देखो।
 
 
डाल दो हाथ पाँव मत अपना।
 
डाल दो हाथ पाँव मत अपना।
 
+
आँख में आँख डाल कर देखो।।
आँख में आँख डाल कर देखो।
+
  
 
ताक में रात रात भर न रहें।
 
ताक में रात रात भर न रहें।
 
 
सूइयाँ डालने से मुँह मोड़ें।
 
सूइयाँ डालने से मुँह मोड़ें।
 
 
और की आँख फोड़ देने को।
 
और की आँख फोड़ देने को।
 
+
आँख अपनी कभी न हम फोड़ें।।
आँख अपनी कभी न हम फोड़ें।
+
  
 
तब टले तो हम कहीं से क्या टले।
 
तब टले तो हम कहीं से क्या टले।
 
 
डाँट बतला कर अगर टाला गया।
 
डाँट बतला कर अगर टाला गया।
 
 
तो लगेगी हाथ मलने आबरू।
 
तो लगेगी हाथ मलने आबरू।
 
+
हाथ गरदन पर अगर डाला गया॥
हाथ गरदन पर अगर डाला गया।
+
  
 
है सदा काम ढंग से निकला।
 
है सदा काम ढंग से निकला।
 
 
काम बेढंगपन न देगा कर।
 
काम बेढंगपन न देगा कर।
 
 
चाह रख कर किसी भलाई को।
 
चाह रख कर किसी भलाई को।
 
+
क्यों भला हों सवार गरदन पर।।
क्यों भला हों सवार गरदन पर।
+
  
 
बेहयाई, बहँक बनावट ने।
 
बेहयाई, बहँक बनावट ने।
 
 
कस किसे नहिं दिया शिकंजे में।
 
कस किसे नहिं दिया शिकंजे में।
 
 
हित-ललक से भरी लगावट ने।
 
हित-ललक से भरी लगावट ने।
 
 
कर लिया है किसी न पंजे में।
 
कर लिया है किसी न पंजे में।
  
फल बहुत ही दूर, छाया वु+छ नहीं।
+
फल बहुत ही दूर, छाया कुछ नहीं।
 
+
 
क्यों भला हम इस तरह के ताड़ हों।
 
क्यों भला हम इस तरह के ताड़ हों।
 
 
आदमी हों और हों हित से भरे।
 
आदमी हों और हों हित से भरे।
 
 
क्यों न मूठी भर हमारे हाड़ हों।
 
क्यों न मूठी भर हमारे हाड़ हों।
  
 
काम आये, लोक के हित में लगे।
 
काम आये, लोक के हित में लगे।
 
 
ठीक पानी की तरह दुख में बहे।
 
ठीक पानी की तरह दुख में बहे।
 
 
धान रहा पर-हाथ में तो क्या रहा।
 
धान रहा पर-हाथ में तो क्या रहा।
 
 
रह सके तो हाथ में अपने रहे।
 
रह सके तो हाथ में अपने रहे।
  
 
बीनना सीना, परोना, कातना।
 
बीनना सीना, परोना, कातना।
 
 
गूँधाना, लिखना न आता है कहे।
 
गूँधाना, लिखना न आता है कहे।
 
 
काम की यह बात है, हर काम में।
 
काम की यह बात है, हर काम में।
 +
बैठता है हाथ बैठाते रहे।।
  
बैठता है हाथ बैठाते रहे।
+
जाय जिस से कुल कसर जी की निकल।
 
+
जाय जिस से वु+ल कसर जी की निकल।
+
 
+
 
बोलने वाले बचन वे बोल दें।
 
बोलने वाले बचन वे बोल दें।
 +
खोलने वाले अगर खोले खुले।
 +
तो किवाड़े छातियों के खोल दें॥
  
खोलनेवाले अगर खोले खुले।
+
दूसरा कोई अधम वैसा नहीं।
 
+
तो किवाड़े छातियों के खोल दें।
+
 
+
दूसरा कोई अधाम वैसा नहीं।
+
 
+
 
पाप जिससे हैं करातीं पूरियाँ।
 
पाप जिससे हैं करातीं पूरियाँ।
 
 
वे पतित हैं पेट पापी के लिए।
 
वे पतित हैं पेट पापी के लिए।
 
+
छातियों में भोंक दें जो छूरियाँ।।
छातियों में भोंक दें जो छूरियाँ।
+
  
 
रह सका काम का सुखी सुन्दर।
 
रह सका काम का सुखी सुन्दर।
 
 
कौन सा अंग दुख ऍंगेजे पर।
 
कौन सा अंग दुख ऍंगेजे पर।
 
 
भूल है जल गरम अगर छिड़कें।
 
भूल है जल गरम अगर छिड़कें।
 
+
फूल जैसे नरम कलेजे पर।।
फूल जैसे नरम कलेजे पर।
+
  
 
इस जगत का जीव वह है ही नहीं।
 
इस जगत का जीव वह है ही नहीं।
 
+
लुट गये धन जी लुटा जिस का नहीं।
लुट गये धान जी लटा जिस का नहीं।
+
 
+
 
हाथ की पूँजी गँवा, पड़ टूट में।
 
हाथ की पूँजी गँवा, पड़ टूट में।
 
+
है कलेजा टूटता किस का नहीं॥
है कलेजा टूटता किस का नहीं।
+
  
 
बेतरह बेधा बेधा क्यों देवे।
 
बेतरह बेधा बेधा क्यों देवे।
 
 
भेद है जीभ और नेजे में।
 
भेद है जीभ और नेजे में।
 
 
बात से छेद छेद कर के क्यों।
 
बात से छेद छेद कर के क्यों।
 
+
छेद कर दे किसी कलेजे में।।
छेद कर दे किसी कलेजे में।
+
  
 
पढ़ गये हाथ आ गया पारस।
 
पढ़ गये हाथ आ गया पारस।
 
 
कढ़ गये गुन गया ऍंगेजा है।
 
कढ़ गये गुन गया ऍंगेजा है।
 
 
चढ़ गये चाव चित गया चढ़ बढ़।
 
चढ़ गये चाव चित गया चढ़ बढ़।
 
 
बढ़ गये बढ़ गया कलेजा है।
 
बढ़ गये बढ़ गया कलेजा है।
  
 
मिल न पाया मान मनमानी हुई।
 
मिल न पाया मान मनमानी हुई।
 
 
मोतियों के चूर का चूना हुआ।
 
मोतियों के चूर का चूना हुआ।
 
 
दिलचलों के सामने बन दिलचले।
 
दिलचलों के सामने बन दिलचले।
 
 
दून की ले दिल अगर दूना हुआ।
 
दून की ले दिल अगर दूना हुआ।
  
 
रंग उस का बहुत निराला है।
 
रंग उस का बहुत निराला है।
 
 
हम न उस रंग को बदल देवें।
 
हम न उस रंग को बदल देवें।
 
 
फूल से वह कहीं मुलायम है।
 
फूल से वह कहीं मुलायम है।
 
 
चाहिए दिल न मल मसल देवें।
 
चाहिए दिल न मल मसल देवें।
  
 
हम उसे ठीक ठीक ही रक्खें।
 
हम उसे ठीक ठीक ही रक्खें।
 
 
औ उसे ठीक राह बतलावें।
 
औ उसे ठीक राह बतलावें।
 
 
चाहिए दिल उड़ा उड़ा न फिरे।
 
चाहिए दिल उड़ा उड़ा न फिरे।
 
 
दिल पकड़ लें अगर पकड़ पावें।
 
दिल पकड़ लें अगर पकड़ पावें।
  
प्रभु महँक से हैं उसी के रीझते।
+
प्रभु महक से हैं उसी के रीझते।
 
+
 
पी उसी का रस रसिक भौंरे जिए।
 
पी उसी का रस रसिक भौंरे जिए।
 
 
चार फल केवल उसी से मिल सके।
 
चार फल केवल उसी से मिल सके।
 
 
तोड़ते दिल-फूल को हैं किसलिए।
 
तोड़ते दिल-फूल को हैं किसलिए।
  
 
है निराली प्रभु-कला जिस में बसी।
 
है निराली प्रभु-कला जिस में बसी।
 
+
वह निराला आईना है फूटता।
वह निराला आइना है फूटता।
+
टूटती है प्यार की अनमोल कली।
 
+
टूटती है प्यार की अनमोल कल।
+
 
+
 
तोड़ने से दिल अगर है टूटता।
 
तोड़ने से दिल अगर है टूटता।
  
 
जीभ को कस में रखें, काया कसें।
 
जीभ को कस में रखें, काया कसें।
 
 
क्यों लहू कर के किसी का सुख लहें।
 
क्यों लहू कर के किसी का सुख लहें।
 
+
मारना जी का बहुत ही है बुरा
मारना जी का बहुत ही है बुरा।
+
 
+
 
जी न मारें मारते जी को रहें।
 
जी न मारें मारते जी को रहें।
  
 
काम करते हैं मकर कर किसलिए।
 
काम करते हैं मकर कर किसलिए।
 
 
इस मकर से प्यार प्यारा है कहीं।
 
इस मकर से प्यार प्यारा है कहीं।
 
 
क्यों हमारा जी गिना जी जायगा।
 
क्यों हमारा जी गिना जी जायगा।
 
 
हम अगर जी को समझते जी नहीं।
 
हम अगर जी को समझते जी नहीं।
  
 
बात बनती नहीं बचन से ही।
 
बात बनती नहीं बचन से ही।
 
+
काम सधा कब सका सदा धन से।
काम सधा कब सका सदा धान से।
+
 
+
 
मानते क्यों न मानने वाले।
 
मानते क्यों न मानने वाले।
 
 
वे मनाये गये नहीं मन से।
 
वे मनाये गये नहीं मन से।
  
 
क्या बचन मीठे नहीं हम बोलते।
 
क्या बचन मीठे नहीं हम बोलते।
 
 
क्या हमारे पास सुन्दर तन नहीं।
 
क्या हमारे पास सुन्दर तन नहीं।
 
+
पर भला कैसे रिझायें हम उसे।
पर भला वै+से रिझायें हम उसे।
+
 
+
 
रीझ जिस का रीझ पाता मन नहीं।
 
रीझ जिस का रीझ पाता मन नहीं।
  
 
बिष-बटी होवे न क्यों हीरे जड़ी।
 
बिष-बटी होवे न क्यों हीरे जड़ी।
 
 
जान उसको खा, गई खोई नहीं।
 
जान उसको खा, गई खोई नहीं।
 
 
हाथ जो आ जाय सोने की छुरी।
 
हाथ जो आ जाय सोने की छुरी।
 
 
पेट तो है मारता कोई नहीं।
 
पेट तो है मारता कोई नहीं।
  
हैं वु+दिन में किसे मिले मेवे।
+
हैं कुदिन में किसे मिले मेवे।
 
+
 
जो मिले, आँख मूँद कर खा लें।
 
जो मिले, आँख मूँद कर खा लें।
 
 
भूख में साग पात क्यों देखे।
 
भूख में साग पात क्यों देखे।
 
 
जो सके डाल पेट में डालें।
 
जो सके डाल पेट में डालें।
  
 
चाहिए सारे बखेड़े दूर कर।
 
चाहिए सारे बखेड़े दूर कर।
 
 
बात आपस की बिठाने को उठे।
 
बात आपस की बिठाने को उठे।
 
 
आँख उठती दीन दुखियों पर रहे।
 
आँख उठती दीन दुखियों पर रहे।
 
 
पाँव गिरतों के उठाने को उठे।
 
पाँव गिरतों के उठाने को उठे।
  
 
भक्ति अंधी भली नहीं होती।
 
भक्ति अंधी भली नहीं होती।
 
 
भाव होते भले नहीं लूँजे।
 
भाव होते भले नहीं लूँजे।
 
 
है अगर पाँव पूजना ही तो।
 
है अगर पाँव पूजना ही तो।
 
 
पूजने जोग पाँव ही पूजे।  
 
पूजने जोग पाँव ही पूजे।  
 
</poem>
 
</poem>

13:38, 18 मार्च 2014 के समय का अवतरण

जो बहुत बनते हैं उनके पास से।
चाह होती है कि कब कैसे टलें।
जो मिले जी खोल कर, उनके यहाँ।
चाहता है जी कि सिर के बल चलें।।

भूल जावे कभी न अपनापन।
जान दे पर न मान को दे, खो।
लोग जिस आँख से तुम्हें देखें।
तुम उसी आँख से उन्हें देखो॥

और की खोट देखती बेला।
टकटकी लोग बँधा देते हैं।
पर कसर देखते समय अपनी।
बेतरह आँख मूँद लेते हैं।।

फिर कभी खुलने न पाईं माँद वे।
इस तरह मन के मसोसों से हुईं।
मूँदते ही मूँदते मुख और का।
मदभरी आँखें बहुत सी मुँद गईं॥

छोड़ संजीदगी सजे कूचे।
बन गये जब लोहार की कूँची।
तो बचा रह सका न ऊँचापन।
आँख भी रह सकी नहीं ऊँची।।

कौन बातें बना सका अपनी।
बात बेढंग बढ़ा-बढ़ा कर के।
आँख पर चढ़ गया न कौन भला।
आँख अपनी चढ़ा-चढ़ा कर के।।

बात सुन कर सिखावनों-डूबी।
जो कि है ठीक राह बतलाती।
जब नहीं सूझ बूझ रंग चढ़ा।
तब भला आँख क्यों न चढ़ जाती॥

तुम भली चाल सीख लो चलना।
औ भलाई करो भले जो हो।
धूल में मत बटा करो रस्सी।
आँख में धूल डालते क्यों हो।।

ठीक वैसा न मान ले उस को।
जो कि जैसे लिबास में दीखे।
जी अगर है टटोल लेना तो।
देखना आँख खोल कर सीखे॥

चाह जो यह हैं कि हाथों से पले।
पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें।
तो जिसे हैं आँख में रखते सदा।
चाहिए हम आँख भी उस पर रखें।।

जो न चित का नित बना चाकर रहा।
बान चितवन के नहीं जिस पर चले।
है जिसे पैसा नचा पाता नहीं।
आ सका ऐसा न आँखों के तले।।

किस तरह से सँभल सकेंगे वे।
अपने को जो नहीं सँभालेंगे।
क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे।
आँख का तेल जो निकालेंगे॥

सधा सकेगा काम तब कैसे भला।
हम करेंगे साधने में जब कसर।
काम आयेंगी नहीं चालाकियाँ।
जब करेंगे काम आँखें बंद कर।।

जब कि चालाकी न चालाकी रही।
आँख उस पर तब न क्यों दी जायगी।
लोग उँगली क्यों उठायेंगे न तब।
जब कि उँगली आँख में की जायगी।।

है खटकती किसे नहीं दुनिया।
लग सके कब खुटाइयों के पते।
तब परखते अगर परख वाली।
आँख के सामने उसे रखते॥

क्यों कहें कंगालपन को भी कभी।
हैं खुली आँखें हमारी जाँचती।
सामने जो वे न नाचें आँख के।
भूख से है आँख जिन की नाचती।।

खिल उठें देख चापलूसों को।
देख बेलौस को कुढ़ें काँखें।
क्यों भला हम बिगड़ न जायेंगे।
जब हमारी बिगड़ गईं आँखें।।

है जिसे सूझ ही नहीं उस की।
क्या करेंगे उघार कर आँखें।
है परसता जहाँ अँधेरा वहाँ।
क्या करेंगे पसार कर आँखें॥

ऊब जाओ न उलझनों में पड़।
जंगलों को ख्रगाल कर देखो।
डाल दो हाथ पाँव मत अपना।
आँख में आँख डाल कर देखो।।

ताक में रात रात भर न रहें।
सूइयाँ डालने से मुँह मोड़ें।
और की आँख फोड़ देने को।
आँख अपनी कभी न हम फोड़ें।।

तब टले तो हम कहीं से क्या टले।
डाँट बतला कर अगर टाला गया।
तो लगेगी हाथ मलने आबरू।
हाथ गरदन पर अगर डाला गया॥

है सदा काम ढंग से निकला।
काम बेढंगपन न देगा कर।
चाह रख कर किसी भलाई को।
क्यों भला हों सवार गरदन पर।।

बेहयाई, बहँक बनावट ने।
कस किसे नहिं दिया शिकंजे में।
हित-ललक से भरी लगावट ने।
कर लिया है किसी न पंजे में।

फल बहुत ही दूर, छाया कुछ नहीं।
क्यों भला हम इस तरह के ताड़ हों।
आदमी हों और हों हित से भरे।
क्यों न मूठी भर हमारे हाड़ हों।

काम आये, लोक के हित में लगे।
ठीक पानी की तरह दुख में बहे।
धान रहा पर-हाथ में तो क्या रहा।
रह सके तो हाथ में अपने रहे।

बीनना सीना, परोना, कातना।
गूँधाना, लिखना न आता है कहे।
काम की यह बात है, हर काम में।
बैठता है हाथ बैठाते रहे।।

जाय जिस से कुल कसर जी की निकल।
बोलने वाले बचन वे बोल दें।
खोलने वाले अगर खोले खुले।
तो किवाड़े छातियों के खोल दें॥

दूसरा कोई अधम वैसा नहीं।
पाप जिससे हैं करातीं पूरियाँ।
वे पतित हैं पेट पापी के लिए।
छातियों में भोंक दें जो छूरियाँ।।

रह सका काम का सुखी सुन्दर।
कौन सा अंग दुख ऍंगेजे पर।
भूल है जल गरम अगर छिड़कें।
फूल जैसे नरम कलेजे पर।।

इस जगत का जीव वह है ही नहीं।
लुट गये धन जी लुटा जिस का नहीं।
हाथ की पूँजी गँवा, पड़ टूट में।
है कलेजा टूटता किस का नहीं॥

बेतरह बेधा बेधा क्यों देवे।
भेद है जीभ और नेजे में।
बात से छेद छेद कर के क्यों।
छेद कर दे किसी कलेजे में।।

पढ़ गये हाथ आ गया पारस।
कढ़ गये गुन गया ऍंगेजा है।
चढ़ गये चाव चित गया चढ़ बढ़।
बढ़ गये बढ़ गया कलेजा है।

मिल न पाया मान मनमानी हुई।
मोतियों के चूर का चूना हुआ।
दिलचलों के सामने बन दिलचले।
दून की ले दिल अगर दूना हुआ।

रंग उस का बहुत निराला है।
हम न उस रंग को बदल देवें।
फूल से वह कहीं मुलायम है।
चाहिए दिल न मल मसल देवें।

हम उसे ठीक ठीक ही रक्खें।
औ उसे ठीक राह बतलावें।
चाहिए दिल उड़ा उड़ा न फिरे।
दिल पकड़ लें अगर पकड़ पावें।

प्रभु महक से हैं उसी के रीझते।
पी उसी का रस रसिक भौंरे जिए।
चार फल केवल उसी से मिल सके।
तोड़ते दिल-फूल को हैं किसलिए।

है निराली प्रभु-कला जिस में बसी।
वह निराला आईना है फूटता।
टूटती है प्यार की अनमोल कली।
तोड़ने से दिल अगर है टूटता।

जीभ को कस में रखें, काया कसें।
क्यों लहू कर के किसी का सुख लहें।
मारना जी का बहुत ही है बुरा
जी न मारें मारते जी को रहें।

काम करते हैं मकर कर किसलिए।
इस मकर से प्यार प्यारा है कहीं।
क्यों हमारा जी गिना जी जायगा।
हम अगर जी को समझते जी नहीं।

बात बनती नहीं बचन से ही।
काम सधा कब सका सदा धन से।
मानते क्यों न मानने वाले।
वे मनाये गये नहीं मन से।

क्या बचन मीठे नहीं हम बोलते।
क्या हमारे पास सुन्दर तन नहीं।
पर भला कैसे रिझायें हम उसे।
रीझ जिस का रीझ पाता मन नहीं।

बिष-बटी होवे न क्यों हीरे जड़ी।
जान उसको खा, गई खोई नहीं।
हाथ जो आ जाय सोने की छुरी।
पेट तो है मारता कोई नहीं।

हैं कुदिन में किसे मिले मेवे।
जो मिले, आँख मूँद कर खा लें।
भूख में साग पात क्यों देखे।
जो सके डाल पेट में डालें।

चाहिए सारे बखेड़े दूर कर।
बात आपस की बिठाने को उठे।
आँख उठती दीन दुखियों पर रहे।
पाँव गिरतों के उठाने को उठे।

भक्ति अंधी भली नहीं होती।
भाव होते भले नहीं लूँजे।
है अगर पाँव पूजना ही तो।
पूजने जोग पाँव ही पूजे।