"धर्म की करामात / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर
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क्यों अँधेरा वहाँ न छा जाता। | क्यों अँधेरा वहाँ न छा जाता। | ||
धर्म-दिया जहाँ नहीं बलता। | धर्म-दिया जहाँ नहीं बलता। | ||
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जो कि पुतले बुराइयों के हैं। | जो कि पुतले बुराइयों के हैं। | ||
क्यों न उन में भलाइयाँ भरता। | क्यों न उन में भलाइयाँ भरता। | ||
देवतापन जिन्हें नहीं छूता। | देवतापन जिन्हें नहीं छूता। | ||
है उन्हें धर्म देवता करता। | है उन्हें धर्म देवता करता। | ||
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जो रहे छीलते पराया दिल। | जो रहे छीलते पराया दिल। | ||
क्यों न वे छल-भरे छली होंगे। | क्यों न वे छल-भरे छली होंगे। | ||
जायगा बल बला न बन वैसे। | जायगा बल बला न बन वैसे। | ||
धर्म-बल से न जो बली होंगे। | धर्म-बल से न जो बली होंगे। | ||
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है बड़ा ही अमोल वह सौदा। | है बड़ा ही अमोल वह सौदा। | ||
मतलबों-हाथ जो न पाया बिक। | मतलबों-हाथ जो न पाया बिक। | ||
मूल है धर्म प्यार-पौधो का। | मूल है धर्म प्यार-पौधो का। | ||
है महल-मेल-जोल का मालिक। | है महल-मेल-जोल का मालिक। | ||
− | है अँधेरा जहाँ पसरता | + | |
+ | है अँधेरा जहाँ पसरता वहाँ। | ||
धर्म की जोत का सहारा है। | धर्म की जोत का सहारा है। | ||
डर-भरी रात की अँधेरी में। | डर-भरी रात की अँधेरी में। | ||
वह चमकता हुआ सितारा है। | वह चमकता हुआ सितारा है। | ||
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धूत-पन-भूत भूतपन भूला। | धूत-पन-भूत भूतपन भूला। | ||
बच बचाये सकी न बेबाकी। | बच बचाये सकी न बेबाकी। | ||
धर्म के एक दो लगे चाँटे। | धर्म के एक दो लगे चाँटे। | ||
भागती है चुड़ैल-चालाकी। | भागती है चुड़ैल-चालाकी। | ||
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धर्म-जल पाकर अगर पलता नहीं। | धर्म-जल पाकर अगर पलता नहीं। | ||
तो न सुख-पौधा पनपता दीखता। | तो न सुख-पौधा पनपता दीखता। | ||
बेलि हित की फैलती फबती नहीं। | बेलि हित की फैलती फबती नहीं। | ||
फूलती फलती नहीं बढ़ती लता। | फूलती फलती नहीं बढ़ती लता। | ||
+ | |||
है जिसे धर्म की गई लग लौ। | है जिसे धर्म की गई लग लौ। | ||
− | हो न | + | हो न उसकी सकी सुरुचि फीकी। |
है नहीं डाह डाहती उस को। | है नहीं डाह डाहती उस को। | ||
है जलाती नहीं जलन जी की। | है जलाती नहीं जलन जी की। | ||
+ | |||
धर्म देता उसे सहारा है। | धर्म देता उसे सहारा है। | ||
जो सहारा कहीं न पाता है। | जो सहारा कहीं न पाता है। | ||
टूटता जी न टूट सकता है। | टूटता जी न टूट सकता है। | ||
दिल गया बैठ वह उठाता है। | दिल गया बैठ वह उठाता है। | ||
− | + | ||
+ | बँधा-तदबीर बाँध देने से। | ||
कब न भरपूर भर गये रीते। | कब न भरपूर भर गये रीते। | ||
ब्योंत कर धर्म के बनाने से। | ब्योंत कर धर्म के बनाने से। | ||
बन गये लाखहा गये बीते। | बन गये लाखहा गये बीते। | ||
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धर्म के सच्चे धुरे के सामने। | धर्म के सच्चे धुरे के सामने। | ||
दाल जग-जंजाल की गलती नहीं। | दाल जग-जंजाल की गलती नहीं। | ||
भूलती है नटखटों की नटखटी। | भूलती है नटखटों की नटखटी। | ||
हैकड़ों की हैकड़ी चलती नहीं। | हैकड़ों की हैकड़ी चलती नहीं। | ||
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धर्म उस का रंग देता है बदल। | धर्म उस का रंग देता है बदल। | ||
जाति जो दुख-दलदलों में है फँसी। | जाति जो दुख-दलदलों में है फँसी। | ||
बेकसों की बेकसी को चूर कर। | बेकसों की बेकसी को चूर कर। | ||
दूर करके बेबसों की बेबसी। | दूर करके बेबसों की बेबसी। | ||
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खल नहीं सकता उन्हें खलपन दिखा। | खल नहीं सकता उन्हें खलपन दिखा। | ||
छल नहीं सकता उन्हें कोई छली। | छल नहीं सकता उन्हें कोई छली। | ||
खलबली उन में कभी पड़ती नहीं। | खलबली उन में कभी पड़ती नहीं। | ||
धर्म-बल जिन को बनाता है बली। | धर्म-बल जिन को बनाता है बली। | ||
+ | |||
किस लिए अंधी न हित-आँखें बनें। | किस लिए अंधी न हित-आँखें बनें। | ||
धर्म का दीया गया बाला नहीं। | धर्म का दीया गया बाला नहीं। | ||
− | क्यों न | + | क्यों न वहाँ अँधेरा-अंधियाला घिरे। |
− | है जहाँ पर धर्म- | + | है जहाँ पर धर्म-उजियाला नहीं। |
+ | |||
पाप से पेचपाच पचड़ों से। | पाप से पेचपाच पचड़ों से। | ||
प्यार के साथ पाक रखती है। | प्यार के साथ पाक रखती है। |
14:42, 18 मार्च 2014 के समय का अवतरण
जब भलाई मिली नहीं उस में।
किस तरह घर भली तरह चलता।
क्यों अँधेरा वहाँ न छा जाता।
धर्म-दिया जहाँ नहीं बलता।
जो कि पुतले बुराइयों के हैं।
क्यों न उन में भलाइयाँ भरता।
देवतापन जिन्हें नहीं छूता।
है उन्हें धर्म देवता करता।
जो रहे छीलते पराया दिल।
क्यों न वे छल-भरे छली होंगे।
जायगा बल बला न बन वैसे।
धर्म-बल से न जो बली होंगे।
है बड़ा ही अमोल वह सौदा।
मतलबों-हाथ जो न पाया बिक।
मूल है धर्म प्यार-पौधो का।
है महल-मेल-जोल का मालिक।
है अँधेरा जहाँ पसरता वहाँ।
धर्म की जोत का सहारा है।
डर-भरी रात की अँधेरी में।
वह चमकता हुआ सितारा है।
धूत-पन-भूत भूतपन भूला।
बच बचाये सकी न बेबाकी।
धर्म के एक दो लगे चाँटे।
भागती है चुड़ैल-चालाकी।
धर्म-जल पाकर अगर पलता नहीं।
तो न सुख-पौधा पनपता दीखता।
बेलि हित की फैलती फबती नहीं।
फूलती फलती नहीं बढ़ती लता।
है जिसे धर्म की गई लग लौ।
हो न उसकी सकी सुरुचि फीकी।
है नहीं डाह डाहती उस को।
है जलाती नहीं जलन जी की।
धर्म देता उसे सहारा है।
जो सहारा कहीं न पाता है।
टूटता जी न टूट सकता है।
दिल गया बैठ वह उठाता है।
बँधा-तदबीर बाँध देने से।
कब न भरपूर भर गये रीते।
ब्योंत कर धर्म के बनाने से।
बन गये लाखहा गये बीते।
धर्म के सच्चे धुरे के सामने।
दाल जग-जंजाल की गलती नहीं।
भूलती है नटखटों की नटखटी।
हैकड़ों की हैकड़ी चलती नहीं।
धर्म उस का रंग देता है बदल।
जाति जो दुख-दलदलों में है फँसी।
बेकसों की बेकसी को चूर कर।
दूर करके बेबसों की बेबसी।
खल नहीं सकता उन्हें खलपन दिखा।
छल नहीं सकता उन्हें कोई छली।
खलबली उन में कभी पड़ती नहीं।
धर्म-बल जिन को बनाता है बली।
किस लिए अंधी न हित-आँखें बनें।
धर्म का दीया गया बाला नहीं।
क्यों न वहाँ अँधेरा-अंधियाला घिरे।
है जहाँ पर धर्म-उजियाला नहीं।
पाप से पेचपाच पचड़ों से।
प्यार के साथ पाक रखती है।
धाक है और धाक से न रही।
धर्म की धाक धाक रखती है।