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देनहार कोउ और हैतैं रहीम मन आपुनो, भेजत सो दिन रैन। कीन्हों चारु चकोर।लोग भरम हम पै धरैंनिसि बासर लागो रहै, याते नीचे नैन॥1॥कृष्णचंद्र की ओर॥1॥
बसि कुसंग चाहत कुसलअच्युत-चरण-तरंगिणी, यह रहीम जिय सोस। शिव-सिर-मालति-माल।महिमा घटी समुन्द्र कीहरि न बनायो सुरसरी, रावन बस्यो परोस॥2॥कीजो इंदव-भाल॥2॥
रहिमन कुटिल कुठार ज्योंअधम वचन काको फल्यो, कटि डारत द्वै टूक। बैठि ताड़ की छाँह।चतुरन को कसकत रहेरहिमन काम न आय है, समय चूक की हूक॥3॥ये नीरस जग माँह॥3॥
अच्युत चरन तरंगिनीअन्तर दाव लगी रहै, शिव सिर मालति माल। हरि धुआँ न बनायो सुरसरीप्रगटै सोइ।कै जिय आपन जानहीं, कीजो इंदव भाल॥4॥कै जिहि बीती होइ॥4॥
अमर बेलि बिनु मूल कीअनकीन्हीं बातैं करै, प्रतिपालत है ताहि। सोवत जागे जोय।रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजिताहि सिखाय जगायबो, खोजत फिरिए काहि॥5॥रहिमन उचित न होय॥5॥
अधम बचन ते को फल्योअनुचित उचित रहीम लघु, बैठि ताड़ की छाह। करहिं बड़ेन के जोर।रहिमन काम न आइहैज्यों ससि के संजोग तें, ये नीरस जग मांह॥6॥पचवत आगि चकोर॥6॥
अनुचित बचन वचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि। है रहीम रहीम रघुनाथ तेतें, सुजस भरत को बाढ़ि॥7॥
अनुचित उचित अब रहीम लघुचुप करि रहउ, करहि बड़ेन के जोर। समुझि दिनन कर फेर।ज्यों ससि के संयोग से, पचवत आगि चकोर॥8॥जब दिन नीके आइ हैं बनत न लगि है देर॥8॥
अब रहीम मुसकिल परीमुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम। सांचे साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥9॥
ऊगत जाही किरण सोंअमर बेलि बिनु मूल की, अथवत ताही कांति। प्रतिपालत है ताहि।त्यों रहीम सुख दुख सबैरहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, बढ़त एक ही भांति॥10॥खोजत फिरिए काहि॥10॥
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल। औरन को रोकत फिरैंअमृत ऐसे वचन में, रहिमन पेड़ बबूल॥11॥आदर घटे नरेस ढिग, बसे रहे कछु नाहिं। रिस की गाँस।जो रहीम कोटिन मिलेजैसे मिसिरिहु में मिली, धिक जीवन जग माहिं॥12॥निरस बाँस की फाँस॥11॥
आवत काज रहीम कहिअरज गरज मानैं नहीं, गाढ़े बंधे सनेह। रहिमन ए जन चारि।जीरन होत न पेड़ ज्योंरिनिया, थामें बरै बरेह॥13॥राजा, माँगता, काम आतुरी नारि॥12॥
अरज गरज मानै नहींअसमय परे रहीम कहि, रहिमन ये जन चारि। माँगि जात तजि लाज।रिनियां राजा मांगताज्यों लछमन माँगन गये, काम आतुरी नारि॥14॥पारासर के नाज॥13॥
एकै साधे सब सधैआदर घटे नरेस ढिंग, सब साधे सब जाय। बसे रहे कछु नाहिं।रहिमन मूलहिं सींचिबोजो रहीम कोटिन मिले, फूलै फलै अघाय॥15॥धिग जीवन जग माहिं॥14॥
अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो आप न जाय। काहू काम के, डार पात फल फूल।जिन आंखिन सों हरि लख्योऔरन को रोकत फिरैं, रहिमन बलि बलि जाय॥16॥पेड़ बबूल॥15॥
अंतर दाव लगी रहैआवत काज रहीम कहि, धुआं न प्रगटै सोय। गाढ़े बंधु सनेह।कै जिय जाने आपुनोजीरन होत न पेड़ ज्यौं, जा सिर बीती होय॥17॥थामे बरै बरेह॥16॥
असमय परे रहीम कहिउरग, मांगि जात तजि लाज। तुरंग, नारी, नृपति, नीच जाति, हथियार।ज्यों लछमन मांगन गएरहिमन इन्हें सँभारिए, पारसार के नाज॥18॥पलटत लगै न बार॥17॥
अंड न बौड़ ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही कॉंति।त्यौं रहीम कहि, देखि सचिककन पान। हस्ती ढकका कुल्हड़िनसुख दुख सवै, सहैं ते तरुवर आन॥19॥बढ़त एक ही भाँति॥18॥
उरग तुरग नारी नृपतिएक उदर दो चोंच है, नीच जाति हथियार। पंछी एक कुरंड।रहिमन इन्हें संभारिएकहि रहीम कैसे जिए, पलटत लगै न बार॥20॥जुदे जुदे दो पिंड॥19॥
करत निपुनई, गुण बिनाएकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।रहिमन निपुन हजीर। मानहु टेरत बिटप चढ़िमूलहिं सींचिबो, मोहिं समान को कूर॥21॥फूलै फलै अघाय॥20॥
ओछो काम बड़ो करैं, तो न बड़ाई होय। ज्यों ए रहीम हनुमंत कोदर दर फिरहिं, गिरधर कहै न कोय॥22॥माँगि मधुकरी खाहिं।कमला थिर न यारो यारी छोड़िये वे रहीम कहि, यह जानत सब कोय। पुरूष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय॥23॥अब नाहिं॥21॥
कमला थिर ओछो काम बड़े करैं तौ न बड़ाई होय।ज्यों रहीम कहिहनुमंत को, लखत अधम जे कोय। प्रभु की सो अपनी गिरधर कहै, क्यों न फजीहत होय॥24॥कोय॥22॥
करमहीन रहिमन लखोअंजन दियो तो किरकिरी, धसो बड़े घर चोर। सुरमा दियो न जाय।चिंतत ही बड़ लाभ केजिन आँखिन सों हरि लख्यो, जगत ह्रैगो भोर॥25॥रहिमन बलि बलि जाय॥23॥
कहि अंड न बौड़ रहीम धन बढ़ि घटेकहि, जात धनिन की बात। देखि सचिक्कन पान।घटै बढ़े उनको कहाहस्ती-ढक्का, कुल्हड़िन, घास बेचि जे खात॥26॥सहैं ते तरुवर आन॥24॥
कहि रहीम संपति सगेकदली, बनत बहुत बहु रीत। सीप, भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।बिपति कसौटी जे कसेजैसी संगति बैठिए, तेई सांचे मीत॥27॥तैसोई फल दीन॥25॥
कमला थिर न रहीम कहि रहीम या जगत तें, प्रीति गई दै टेर। यह जानत सब कोय।रहि रहीम नर नीच मेंपुरुष पुरातन की बधू, स्वारथ स्वारथ टेर॥28॥क्यों न चंचला होय॥26॥
कहु कमला थिर न रहीम केतिक रहीकहि, केतिक गई बिहाय। लखत अधम जे कोय।माया ममता मोह परिप्रभु की सो अपनी कहै, अन्त चले पछिताय॥29॥क्यों न फजीहत होय॥27॥
कहि रहीम इक दीप तेंकरत निपुनई गुन बिना, प्रगट सबै दुति होय। रहिमन निपुन हजूर।तन सनेह कैसे दुरै, दूग दीपक जरु होय॥30॥मानहु टेरत बिटप चढ़ि मोहि समान को कूर॥28॥
कहु रहीम कैसे बनैकरम हीन रहिमन लखो, अनहोनी ह्रै जाय। धँसो बड़े घर चोर।मिला रहै औ ना मिलैचिंतत ही बड़ लाभ के, तासों कहा बसाय॥31॥जागत ह्वै गौ भोर॥29॥
काज परे कछु और हैकहि रहीम इक दीप तें, काज सरे कछु और। प्रगट सबै दुति होय।रहिमन भंवरी के भएतन सनेह कैसे दुरै, नदी सिरावत मौर॥32॥दृग दीपक जरु दोय॥30॥
कहु कहि रहीम कैसे निभैधन बढ़ि घटे, बेर केर को संग। जात धनिन की बात।वे डोलत रस आपनेघटै बढ़ै उनको कहा, उनके फाटत अंग॥33॥कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय। रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय॥34॥घास बेंचि जे खात॥31॥
काम न काहू आवई, मोल कहि रहीम न लेई। य जगत तैं, प्रीति गई दै टेर।बाजू टूटे बाज कोरहि रहीम नर नीच में, साहब चारा देई॥35॥स्वारथ स्वारथ हेर॥32॥
कैसे निबहैं निबल जनकहि रहीम संपति सगे, करि सबलन सों गैर। बनत बहुत बहु रीत।रहिमन बसि सागर बिषेबिपति कसौटी जे कसे, करत मगस सों बैर॥36॥ते ही साँचे मीत॥33॥
काह कामरी पागरीकहु रहीम केतिक रही, जाड़ गए से काज। केतिक गई बिहाय।रहिमन भूख बुताइएमाया ममता मोह परि, कैस्यो मिलै अनाज॥37॥अंत चले पछिताय॥34॥
कहा करौं बैकुंठ लैकहु रहीम कैसे निभै, कल्प बृच्छ की छांह। बेर केर को संग।रहिमन ढाक सुहावनैवे डोलत रस आपने, जो गल पीतम बांह॥38॥उनके फाटत अंग॥35॥
कुटिलत संग कहु रहीम कहिकैसे बनै, साधू बचते नांहि। अनहोनी ह्वै जाय।ज्यों नैना सैना करेंमिला रहै औ ना मिलै, उरज उमेठे जाहि॥39॥तासों कहा बसाय॥36॥
कागद को रहीम पर द्वार पैसो पूतरा, जात न जिय सकुचात। सहजहि मैं घुलि जाय।संपति के सब जात हैंरहिमन यह अचरज लखो, बिपति सबै लै जात॥40॥सोऊ खैंचत बाय॥37॥
गगन चढ़े फरक्यो फिरैकाज परै कछु और है, काज सरै कछु और।रहिमन बहरी बाज। फेरि आई बंधन परै, अधम पेट भँवरी के काज॥41॥भए नदी सिरावत मौर॥38॥
खरच बढ़यो उद्द्म घटयोकाम न काहू आवई, नृपति निठुर मन कीन। कहु मोल रहीम कैसे जिएन लेई।बाजू टूटे बाज को, थोरे जल की मीन॥42॥साहब चारा देई॥39॥
खैर खून खासी खुसीकहा करौं बैकुंठ लै, बैर प्रीति मदपान। कल्प बृच्छ की छाँह।रहिमन दाबे न दबैंदाख सुहावनो, जानत सकल जहान॥43॥जो गल पीतम बाँह॥40॥
खीरा को मुंह काटि केकाह कामरी पामरी, मलियत लोन लगाय। जाड़ गए से काज।रहिमन करुए मुखन कोभूख बुताइए, चहियत इहै सजाय॥44॥गति रहीम बड़ नरन की, ज्यों तुरंग व्यवहार। दाग दिवावत आप तन, सही होत असवार॥45॥कैस्यो मिलै अनाज॥41॥
गहि सरनागत राम कीकुटिलन संग रहीम कहि, भव सागर की नाव। साधू बचते नाहिं।रहिमन जगत उधार करज्यों नैना सैना करें, और न कछु उपाव॥46॥उरज उमेठे जाहिं॥42॥
गुरुता फबै रहीम कहिकैसे निबहैं निबल जन, फबि आई है जाहि। करि सबलन सों गैर।उर पर कुच नीके लगैंरहिमन बसि सागर बिषे, अनत बतौरी आहिं॥47॥करत मगर सों वैर॥43॥
गुनते लेत कोउ रहीम जनजनि काहु के, सलिल कूपते काढ़ि। द्वार गये पछिताय।कूपहु ते कहुं होत है, मन काहू संपति के बाढ़ि॥48॥सब जात हैं, विपति सबै लै जाय॥44॥
गरज आपनी आप सोंकौन बड़ाई जलधि मिलि, रहिमन कही न जाय। गंग नाम भो धीम।जैसे कुल केहि की कुलवधुप्रभुता नहिं घटी, पर घर जात लजाय॥49॥गये रहीम॥45॥
चढ़िबो मोम तुरंग परखरच बढ्यो, चलिबो पावक मांहि। उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन।प्रेम पंथ ऐसो कठिनकहु रहीम कैसे जिए, सब कोउ निबहत नाहिं॥50॥थोरे जल की मीन॥46॥
चित्रकूट में रमि रहेखीरा सिर तें काटिए, रहिमन अवध नरेस। मलियत नमक बनाय।जापर विपदा पड़त हैरहिमन करुए मुखन को, सो आवत यहि देस॥51॥चहिअत इहै सजाय॥47॥
छोटेन सों सोहैं बड़ेखैंचि चढ़नि, कहि रहीम ढीली ढरनि, कहहु कौन यह लेख। प्रीति।सहसन को हय बांधियतआज काल मोहन गही, लै दमरी बंस दिया की मेख॥52॥रीति॥48॥
चरन छुए मस्तक छुएखैर, तेहु नहिं छांड़ति पानि। खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।हियो छुवत प्रभु छोड़ि दैरहिमन दाबे ना दबैं, कहु रहीम का जानि॥53॥जानत सकल जहान॥49॥
चारा प्यारा जगत मेंगरज आपनी आपसों, छाल हित कर लेइ। रहिमन कही न जाय।ज्यों रहीम आटा लगेजैसे कुल की कुलबधू, त्यों मृदंग सुर देह॥54॥पर घर जाय लजाय॥50॥
छमा बड़ेन को चाहिएगहि सरनागति राम की, छोटेन को उत्पात। भवसागर की नाव।का रहीम हरि जो घट्योरहिमन जगत उधार कर, जो भृगु मारी लात॥55॥जलहिं मिलाइ रहीम ज्यों, कियों आपु सग छीर। अगवहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर॥56॥और न कछू उपाव॥51॥
जब लगि जीवन जगत मेंगुन ते लेत रहीम जन, सुख-दु:ख मिलन अगोट। सलिल कूप ते काढ़ि।रहिमन फूटे गोट ज्योंकूपहु ते कहुँ होत है, परत दुहुन सिर चोट॥57॥मन काहू को बाढ़ि॥52॥
जहां गांठ तहं रस नहीं, यह गुरुता फबै रहीम जग जोय। कहि, फबि आई है जाहि।मंडप तर की गांठ मेंउर पर कुच नीके लगैं, गांठ गांठ रस होय॥58॥अनत बतोरी आहि॥53॥
जब लगि विपुने न आपनुचरन छुए मस्तक छुए, तब लगि मित्त न कोय। तेहु नहिं छाँड़ति पानि।रहिमन अंबुज अंबु बिनहियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, रवि ताकर रिपु होय॥59॥कहु रहीम का जानि॥54॥
जाल परे जल जात बहिचारा प्यारा जगत में, तजि मीनन को मोह। छाला हित कर लेय।रहिमन मछरी नीर कोज्यों रहीम आटा लगे, तऊ न छांड़ति छोह॥60॥त्यों मृदंग स्वर देय॥55॥
जे अनुचितकारी तिन्हेचाह गई चिंता मिटी, लगे अंक परिनाम। मनुआ बेपरवाह।लखे उरज उर बेधिए, क्यों जिनको कछू न होहि मुख स्याम॥61॥चाहिए, वे साहन के साह॥56॥
जे गरीब सों हित करैचित्रकूट में रमि रहे, धनि रहीम वे लोग। रहिमन अवध-नरेस।कहा सुदामा बापुरोजा पर बिपदा पड़त है, कृष्ण मिताई जोग॥62॥सो आवत यह देस॥57॥
जेहि रहीम तन मन लियोचिंता बुद्धि परेखिए, कियो हिय बिचमौन। टोटे परख त्रियाहि।तासों सुख-दुख कहन कीउसे कुबेला परखिए, रही बात अब कौन॥63॥ठाकुर गुनी किआहि॥58॥
जेहि अंचल दीपक दुरयोछिमा बड़न को चाहिए, हन्यो सो ताही गात। छोटेन को उतपात।का रहिमन असमय के परेहरि को घट्यो, मित्र शत्रु है जात॥64॥जो भृगु मारी लात॥59॥
जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि। चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत ते बाढ़ि॥65॥ जैसी परै छोटेन सो सहि रहैसोहैं बड़े, कहि रहीम यह देह। रेख।धरती ही पर परत हैं, सीत घाम और मेह॥66॥जो पुरुषारथ ते कहूं, संपति मिलत रहीम। पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम॥67॥ जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं। रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं॥68॥ जो घर ही में घुसि रहै, कदली सुपत सुडील। तो रहीम तिन ते भले, पथ के अपत करील॥69॥ जो बड़ेन सहसन को लघु कहेहय बाँधियत, नहिं रहीम घटि जांहि। गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि॥70॥ जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को यही हवाल। तो काहे कर पर धरयो, गोबर्धन गोपाल॥71॥ जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥72॥ जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ ही इतराय। प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥73॥ जो मरजाद चली सदा, सोइ तो ठहराय। जो जल उमगें पार तें, सो रहीम बहि जाय॥74॥ जो रहीम गति दीप लै दमरी की, कुल कपूत गति सोय। बारे उजियारे लगै, बढ़े अंधेरो होय॥75॥ जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट। समय परे ते होत है, वाही पट की चोट॥76॥ जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ। राम न जाते हरिन संग, सीय न रावण साथ॥77॥जो रहीम मन हाथ है, तो मन कहुं किन जाहि। ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं॥78॥ जो रहीम होती कहूं, प्रभु गति अपने हाथ। तो काधों केहि मानतो, आप बढ़ाई साथ॥79॥ जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस। निठुरा आगे रोयबो, आंसु गारिबो खीस॥80॥ जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात। ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात॥81॥ टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार। रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥82॥ जो रहीम रहिबो चहो, कहौ वही को ताउ। जो नृप वासर निशि कहे, तो कचपची दिखाउ॥83॥ ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात। अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपने हाथ॥84॥ तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान। कहि रहीम परकाज हित, संपति-सचहिं सुजान॥85॥ तैं रहीम मन आपनो, कीन्हो चारु चकोर। निसि वासर लाग्यो रहै, कृष्ण्चन्द्र की ओर॥86॥ तन रहीम है करम बस, मन राखौ वहि ओर। जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर॥87॥ तै रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय। खस काजद को पूतरा, नमी मांहि खुल जाय॥88॥तबहीं लो जीबो भलो, दीबो होय न धीम। जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम॥89॥ तासो ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस। रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास॥90॥ दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि। पै रहीम चाकत रटनि, सरवर को कोउ नाहि॥91॥ थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात। धनी पुरुष निर्धन भए, करे पाछिली बात॥92॥ दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अन्धु। भली विचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु॥93॥ दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय। जो रहीम दीनहिं लखत, दीबन्धु सम होय॥94॥ दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि। सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि॥95॥ दीरघ दोहा अरथ के, आरवर थोरे आहिं। ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहि॥96॥ दुरदिन परे रहीम कहि, दुश्थल जैयत भागि। ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि॥97॥ दु:ख नर सुनि हांसि करैं, धरत रहीम न धीर। कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर॥98॥ धनि रहीम जलपंक को, लघु जिय पियत अघाय। उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥99॥ धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात। जैसे कुल की कुलवधु, चिथड़न माहि समात॥100॥मेख॥60॥
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