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"ग़ालिब / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर

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09:07, 17 दिसम्बर 2007 के समय का अवतरण

ग़ालिब ग़ैर नहीं हैं, अपनों से अपने हैं ।

ग़ालिब की बोली ही आज हमारी बोली

है । नवीन आँखों में जो नवीन सपने हैं

वे ग़ालिब के सपने हैं । ग़ालिब ने खोली
गाँठ जटिल जीवन की । बात और वह बोली
आप तुली थी; हलकेपन का नाम नहीं था ।
सुख की आँखों ने दुख देखा और ठिठोली
की, यों जी बहलाया बेशक दाम नहीं था
उनकी अंटी में । दुनिया से काम नहीं था
लेकिन उनको साँस-साँस पर तोल रहे थे ।
अपना कहने को क्या था । धन धाम नहीं था ।
सत्य बोलता था जब-जब मुँह खोल रहे थे ।


ग़ालिब होकर रहे, जोत कर दुनिया छोड़ी
कवि थे, अक्षर में अक्षर की महिमा जोड़ी ।