"अंतहीन / सुलोचना वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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06:44, 14 जून 2014 के समय का अवतरण
ये कैसा हुनर है तुम्हारा
कि बहते हुए को बचाकर
सहारा देते हो
और फिर बहा देते हो उसे
उसी झरने में ये कहकर
की वो इक नदी है
और तुम फिर आओगे उससे मिलने
उसका सागर बनकर
फिर ये दूरियाँ ख़त्म हो जाएँगी
ताउम्र के लिए
नदी परेशान रही
जलती रही, सुखती रही
सागर की किस्मत में
नदियाँ ही नदियाँ हैं
उसे परवाह नही
जो कोई नदी उस तक ना पहुँचे
और भी नदियाँ हैं
उसकी हमसफ़र बनने को
एक सदी बीत गयी
नदी के सब्र का बाँध
आज टूट सा गया है
नदी में बाढ़ आया है
आज उसमे आवेग है, उत्साह है
चली है मिलने अपने सागर से
बहा ले गयी अपना सब कुछ साथ
नदी सागर तट पर आ चुकी है
कितना कुछ जानना है, कहना है
तभी सागर ने पूछा
कहो कैसे आना हुआ
जम गयी वो ये सुनकर
कुछ देर के लिए, पर
अंदर की ग्लानि ने फिर से पिघला दिया
नदी ने मौन रहना ही ठीक जाना
सागर के करीब से अपना रुख़ मोड़ लिया
और सोच रही है, ऐसे मिलने से तो बेहतर था
वो अंतहीन इंतज़ार, जो उसे अब भी रहेगा