भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"माँ / मोहनजीत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=पंजाबी के कवि
 
|रचनाकार=पंजाबी के कवि
 
|संग्रह=आज की पंजाबी कविता / सम्पादक-सुभाष नीरव
 
|संग्रह=आज की पंजाबी कविता / सम्पादक-सुभाष नीरव
}}
+
}}{{KKCatKavita}}
 +
{{KKAnthologyMaa}}
 
[[Category:पंजाबी भाषा]]
 
[[Category:पंजाबी भाषा]]
 +
<poem>
 +
मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ
 +
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी
  
 +
हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
 +
क्या लिखा है?
 +
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!
  
मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ<br>
+
गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी<br><br>
+
माथे को छूते- सवेर होती
 +
दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते
 +
तो चांद निकलता
  
हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-<br>
+
पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
क्या लिखा है?<br>
+
पहले का था
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!<br><br>
+
कितना माँ का
  
गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते<br>
+
माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
माथे को छूते- सवेर होती<br>
+
चलती तो एक लय बनती
दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते<br>
+
तो चांद निकलता<br><br>
+
  
पता नहीं गीत का कितना हिस्सा<br>
+
माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
पहले का था<br>
+
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
कितना माँ का<br><br>
+
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
 +
'रबाब' भी कह लेती थी
  
माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते<br>
+
पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
चलती तो एक लय बनती<br><br>
+
और आह के साथ जो हूक निकलती है
 +
उससे कौन-सा साज़ बना
 +
माँ नहीं जानती थी
  
माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी<br>
+
माँ कहाँ खोजनहार थी !
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'<br>
+
चरखा कातते-कातते सो जाती
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर<br>
+
उठती तो चक्की पर बैठ जाती
'रबाब' भी कह लेती थी<br><br>
+
  
पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है<br>
+
भीगी रात का माँ को क्या पता !
और आह के साथ जो हूक निकलती है<br>
+
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती
उससे कौन-सा साज़ बना<br>
+
माँ नहीं जानती थी<br><br>
+
  
माँ कहाँ खोजनहार थी !<br>
+
मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
चरखा कातते-कातते सो जाती<br>
+
इतना ही तो जानता हूँ
उठती तो चक्की पर बैठ जाती<br><br>
+
माँ साँस लेती तो लगता
 
+
रब जीवित है!
भीगी रात का माँ को क्या पता !<br>
+
</poem>
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती<br><br>
+
 
+
मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ<br>
+
इतना ही तो जानता हूँ<br>
+
माँ सांस लेती तो लगता<br>
+
रब जीवित है!<br>
+

16:32, 26 जून 2017 के समय का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: पंजाबी के कवि  » संग्रह: आज की पंजाबी कविता
»  माँ

मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी

हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
क्या लिखा है?
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!

गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
माथे को छूते- सवेर होती
दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते
तो चांद निकलता

पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
पहले का था
कितना माँ का

माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
चलती तो एक लय बनती

माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
'रबाब' भी कह लेती थी

पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
और आह के साथ जो हूक निकलती है
उससे कौन-सा साज़ बना
माँ नहीं जानती थी

माँ कहाँ खोजनहार थी !
चरखा कातते-कातते सो जाती
उठती तो चक्की पर बैठ जाती

भीगी रात का माँ को क्या पता !
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती

मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
इतना ही तो जानता हूँ
माँ साँस लेती तो लगता
रब जीवित है!