भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उम्र की वो नदी / प्रकाश मनु" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रकाश मनु |अनुवादक= |संग्रह=छूटत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 +
{{KKVID|v=GqvQA3ViBUo}}
 
<poem>
 
<poem>
कहां खो गई
+
कहाँ खो गई
 
उम्र की वो नदी
 
उम्र की वो नदी
 
जो खुली धूप में
 
जो खुली धूप में
पंक्ति 21: पंक्ति 22:
 
और वह निधड़क
 
और वह निधड़क
 
पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती
 
पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती
फूलों के संग संग हंसती
+
फूलों के संग संग हँसती
 
अचानक खिलखिला कर
 
अचानक खिलखिला कर
 
खुली रेत पर बिछ जाती थी
 
खुली रेत पर बिछ जाती थी
पंक्ति 29: पंक्ति 30:
 
आकाश हो जाता था
 
आकाश हो जाता था
  
गुनगुनी बांहों में
+
गुनगुनी बाँहों में
 
कचनार कलियों का परस,
 
कचनार कलियों का परस,
सांसों में
+
साँसों में
चटखते गुलाबों की खुशबू
+
चटखते गुलाबों की ख़ुशबू
 
तिर आती थी...
 
तिर आती थी...
  
पंक्ति 42: पंक्ति 43:
 
उजले हंसों की तरह
 
उजले हंसों की तरह
  
अब नहीं हैं वे मुक्त हवाएं
+
अब नहीं हैं वे मुक्त हवाएँ
वे जिद्दी उफान,
+
वे ज़िद्दी उफान,
 
मगर
 
मगर
 
अब भी, कभी-कभी
 
अब भी, कभी-कभी
पंक्ति 50: पंक्ति 51:
 
पूछता है सवाल
 
पूछता है सवाल
  
कि कहां खो गई
+
कि कहाँ खो गई
 
उम्र की वो नदी
 
उम्र की वो नदी
 
जो कुलांचे भरती दौड़ती थी
 
जो कुलांचे भरती दौड़ती थी
और समय उसकी गंुजलक में
+
और समय उसकी गुल्लक में
कैद हो जाता था!
+
क़ैद हो जाता था!
 
</poem>
 
</poem>

19:49, 1 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

कहाँ खो गई
उम्र की वो नदी
जो खुली धूप में
कुलाचें भरती उछलती दौड़ती थी
तो समय
ठिठक जाता था

रोमांचित राहें, पड़ाव
हरे-भरे कछार
मीठे आवेग से भर
छूने को ललकते थे गाल

और वह निधड़क
पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती
फूलों के संग संग हँसती
अचानक खिलखिला कर
खुली रेत पर बिछ जाती थी

उमंगों भरा सीना
उमग कर
आकाश हो जाता था

गुनगुनी बाँहों में
कचनार कलियों का परस,
साँसों में
चटखते गुलाबों की ख़ुशबू
तिर आती थी...

पास
सिर्फ पास रहने की
अतर्कित प्यास लिए
पंख तोलता था मन,
दूर, जादुई उजालों की दिशा में
उजले हंसों की तरह

अब नहीं हैं वे मुक्त हवाएँ
वे ज़िद्दी उफान,
मगर
अब भी, कभी-कभी
पारे की तरह थरथराता एकान्त
अधीर हो
पूछता है सवाल

कि कहाँ खो गई
उम्र की वो नदी
जो कुलांचे भरती दौड़ती थी
और समय उसकी गुल्लक में
क़ैद हो जाता था!