भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दृश्य : दो / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |संग्रह=कटे अँगूठे का पर्व / कुमार रवींद...)
 
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=कटे अँगूठे का पर्व / कुमार रवींद्र
 
|संग्रह=कटे अँगूठे का पर्व / कुमार रवींद्र
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem> 
 +
[द्रोण का आश्रम। उससे थोड़ी दूर पर पथ के निकट एक वृक्ष की ओट में खड़ा मन्त्रमुग्ध एकलव्य। पृष्ठभूमि में हस्तिनापुर के गवाक्ष और कंगूरे सूर्य-किरणों में नहाए अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे हैं। एकलव्य टकटकी बाँधे उस गेरुए ध्वज को भक्तिभाव से निहार रहा है, जिस पर आचार्य द्रोण का मृगचर्म पर रखे कमंडल के साथ धनुष-बाण का चिह्न  अंकित है। गहरी भाव-तरंगों में डूब-उतरा रहा है वह ]
 +
विचार-स्वर
 +
मैं हूँ आज खड़ा।
 +
यह द्वीप मनोरथ का
 +
मेरी इच्छाओं का
 +
उजला-उजला -
 +
लगता है जैसे मेरे पुण्यों का विहान।
  
 +
असमंजस की वह काली रात समाप्त हुई
 +
जब बार-बार मैं भटका था
 +
सन्देहों में -
 +
यह पूर्णकाम होने की बेला है अनुपम।
  
[द्रोण का आश्रम। उससे थोड़ी दूरी पर पथ के निकट एक वृक्ष की ओट में खड़ा मन्त्रमुग्ध एकलव्य। पृष्ठभूमि में हस्तिनापुर के गवाक्ष और कंगूरे सूर्य-किरणों में नहाए अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे हैं। पर एकलव्य तो टकटकी बाँधे उस गेरुए ध्वज को भक्तिभाव से निहार रहा है, जिस पर आचार्य द्रोण का मृगचर्म पर रखे कमंडल के साथ धनुष-बाण का चिह्न अंकित है। गहरी भाव-तरंगों में डूब-उतरा रहा है वह]<br>
+
है याद मुझे
 +
वर्षों पहले
 +
आचार्यश्रेष्ठ जब आये थे ...
  
विचार-स्वर : अपने सपने के सम्मुख<br>
+
[एक स्मृति-चित्र पारदर्शिका में उभरता है - पर्वत की एक उपत्यका। घने जंगल से ढँके ढाल। रक पतली-सी पहाड़ी नदी तेज गति से बह रही है। कुछ झोंपड़ों के अलावा आसपास कोई बस्ती नहीं है। एक पहाड़ी पर एक गढ़ीनुमा मकान बना है। पहाड़ी पर से उतरते हुए दो पुरुष और एक नवकिशोर। एक पुरुष गौर वर्ण का दीर्घकाय है - सिर पर जटाएँ और शरीर पर यज्ञोपवीत - मृगचर्म सीने पर बँधा हुआ - नीचे श्वेत धोती - कंधे पर तरकश - हाथ में लम्बा धनुष। तपस्या का तेज श्मश्रुपूर्ण चेहरे पर झलक रहा है। दूसरा पुरुष श्यामवर्ण सुगठित शरीर का। मँझोले कद का। घुटने तक का एक अधोवस्त्र पहने है। कमर में एक बड़ा छुरा और हाथ में एक भाला। सिर पर एक पट्टी बँधी है, जिसमें कुछ पंख खुसे हैं। किशोर भी एक छोटी-सी कमान हाथ में पकड़े है। पीठ पर एक छोटा तरकश। सिर पर मोरपंख लगाये है। उसकी मुद्रा उत्साहभरी है। गौर पुरुष को वह श्रद्धा से देख रहा है। श्याम पुरुष गौर पुरुष की बात को पूरे सम्मान और कुछ झिझक के साथ सुन रहा है ]
मैं हूँ आज खड़ा।<br>
+
यह द्वीप मनोरथ का,<br>
+
मेरी इच्छाओं का <br>
+
उजला-उजला; <br>
+
लगता है जैसे मेरे पुण्यों का विहान। <br>
+
असमंजस की वह काली रात समाप्त हुई,<br>
+
जब बार-बार मैं भटका था <br>
+
सन्देहों में;<br>
+
यह पूर्णकाम होने की बेला है अनुपम।<br>
+
याद मुझे <br>
+
वर्षों पहले <br>
+
आचार्यश्रेष्ठ जब आये थे...<br><br>
+
  
[एक स्मृति-चित्र पारदर्शिका के रूप में उभरता है। पर्वत की एक उपत्यका। घने जंगल से ढँके ढाल। एक पतली-सी पहाड़ी नदी तेज गति से बह रही है। कुछ झोंपड़ों के अलावा आसपास कोई बस्ती नहीं है। एक पहाड़ी पर एक गढ़ीनुमा मकान बना है। पहाड़ी पर से उतरते हुए दो पुरुष और एक नवकिशोर। एक पुरुष गौर वर्ण का दीर्घकाय है। सिर पर जटाएँ और शरीर पर यज्ञोपवीत। तपस्या का तेज श्मश्रुपूर्ण चेहरे पर झलक रहा है। मृगचर्म सीने पर बँधा हुआ। नीचे धोती पहने हैं। कन्धे पर तरकश; हाथ में लम्बा धनुष है। दूसरा पुरुष श्याम वर्ण सुगठित शरीर का। मँझोले कद का। घुटने तक का एक अधोवस्त्र पहने हैं। कमर में एक बडा छुरा और हाथ में एक भाला। सिर पर एक पट्टी बँधी है, जिसमें कुछ पंख खुसे हैं। किशोर भी एक छोटी-सी कमान हाथ में पकड़े है। पीठ पर छोटा तरकश। सिर पर मोरपंख लगाये हैं। उसकी मुद्रा उत्साहभरी है। गौर पुरुष को वह श्रद्धा से देख रहा है। श्याम पुरुष गौर पुरुष की बात को पूरे सम्मान और कुछ झिझक के साथ सुन रहा है।]
+
गौर पुरुष: भीलराज !
<br><br>
+
मैं चाहूँगा कि एकलव्य
गौर पुरुष : भीलराज !<br>
+
इस घाटी से बाहर निकले।
मैं चाहूँगा कि एकलव्य <br>
+
बाँधो मत इसको
इस घाटी से बाहर निकले।<br>
+
अपनी इन सीमाओं में -
बाँधों मत इसको <br>
+
बनने दो इसको प्रश्न अभी।
अपनी इन सीमाओं में;<br>
+
कालान्तर में
बनने दो इसको प्रश्न अभी।<br>
+
जब दूर-दूर के देशों का अनुभव लेकर
कालान्तर में<br>
+
यह उत्तर बनकर आएगा
जब दूर-दूर के देशों का अनुभव लेकर <br>
+
तब तुमको मेरी बात समझ में आएगी।
यह उत्तर बन कर आएगा,<br>
+
तब तुमको मेरी बात समझ में आएगी।<br><br>
+
  
मैं देख रहा इसका भविष्यः<br>
+
मैं देख रहा इसका भविष्य -
दक्षिणावर्त का<br>
+
दक्षिणावर्त का
यह त्राता होगा समर्थ। <br><br>
+
यह त्राता होगा समर्थ।
  
श्याम पुरुष : भगवान् ! <br>
+
श्याम पुरुष: भगवन !
समर्थ हैं आप<br>
+
समर्थ हैं आप
किन्तु....<br>
+
किन्तु ...
हम तो हैं बर्बर भील;<br>
+
हम तो हैं बर्बर भील -
हमारी दृष्टि नहीं जा पाती है।<br>
+
हमारी दृष्टि नहीं जा पाती है
अपनी इस पर्वत-गुहा पार।<br>
+
अपनी इस पर्वत-गुहा पार।
हम हैं वन-पुत्र, <br>
+
हम हैं वनपुत्र
हमारी सीमा निश्चित है।<br>
+
हमारी सीमा निश्चित है।
आदेश हमें है नहीं <br>
+
आदेश हमें है नहीं
कि हम पर्वत छोड़ें;<br>
+
कि हम पर्वत छोड़ें -
हम तो उद्गम हैं नदियों के;<br>
+
हम तो उद्गम हैं नदियों के -
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश। <br>
+
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश।
 +
 
 +
फिर ...
 +
ज्ञात आपको
 +
हमें मानते हैं अन्त्यज
 +
उत्तर भारत के आर्य लोग।
 +
वे बली-वीर-उद्धत-समर्थ -
 +
हम संकोचों से घिरे हुए असमर्थ लोग।
 +
 
 +
यह एकलव्य है सरल
 +
बालमन है अबोध -
 +
इसकी इच्छाओं को सीमित ही रहने दें।
 +
 
 +
हैं आप स्वयं इतने उदार -
 +
अपने परिचित।
 +
पर सभी नहीं सह पायेंगे
 +
इस बालक का सीमोल्लंघन -
 +
दंडित होगा यह
 +
और तिरस्कृत-अपमानित -
 +
हो जायेंगी इसकी इच्छाएँ
 +
एक दुखी अपराध-बोध।
 +
 
 +
गौर पुरुष: मैं भारद्वाज का पुत्र द्रोण हूँ कहता  यह -
 +
यह जाति-भेद
 +
यह द्वेष नहीं हैं सच्चाई  -
 +
इनकी सीमाएँ झूठी है
 +
इनके बंधन हैं अर्थहीन -
 +
जो वीर नहीं
 +
वे ही इनसे सकुचाते हैं।
 +
 
 +
है नहीं कोई अंतर  -
 +
मानव हैं सारे एक
 +
यही है सिर्फ सत्य -
 +
सूर्योदय की है जाति न होती कोई भी;
 +
मैं एकलव्य को उगे सूर्य-सा कर दूँगा।
 +
क्षत्रिय का लक्षण
 +
सिर्फ़ वीरता होती है -
 +
वह ही है उसका संस्कार।
 +
जो हैं समर्थ
 +
वे सभी सूर्यकुल के ही हैं-
 +
सामर्थ्य बनेगा वही तुम्हारा वीर पुत्र।
 +
 
 +
आतिथ्य तुम्हारा मुझे मिला परिवार सहित
 +
जो इतने दिन
 +
उसने मुझको है दिया एक विश्वास नया -
 +
आभारी हूँ।
 +
मैं वही आस्था लिये हस्तिनापुर जाता  -
 +
हैं कृपाचार्य, मेरी पत्नी के बन्धु वहाँ
 +
पर...
 +
मैं खोजूँगा स्वयं भूमिका अपनी शुभ।
 +
कुछ दिनों बाद संदेश तुम्हें मैं भेजूँगा
 +
तब एकलव्य को मेरे पास भेज देना।
 +
 
 +
[बात करते-करते वे लोग घाटी के सिरे पर आ गये हैं। पहाड़ों के बीच में एक सँकरा रास्ता दीखता है, जिससे थोड़ी दूर पर एक शकट खड़ा दिखाई देता है, जिसमें द्रोण-पत्नी कृपी एक छह-सात वर्ष के बालक के साथ बैठी हैं। पास ही अस्त्र-शस्त्र, पुस्तकें और मृगचर्म रखे हें। फलों से भरे कई टोकरे भी रखे हैं। निकट पहुँचकर भीलराज और एकलव्य कृपी को प्रणाम करते हैं। आचार्य के पैरों को छूता है एकलव्य, रुँधे कंठ से कहता है]
 +
 
 +
एकलव्य: गुरुवर!
 +
मुझको आदेश करें।
 +
जब तक न आपका मुझे मिले सन्देश
 +
करूँ क्या...
 +
होने को उपयुक्त पात्र।
 +
 
 +
द्रोण: अभ्यास
 +
सतत अभ्यास
 +
और अभ्यास और...
 +
हाँ, यही सिद्धि का परम मन्त्र।
 +
 
 +
[पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। एकलव्य का विचार-स्वर फिर उठता है]
 +
 
 +
विचार-स्वर:  हो गयी प्रतीक्षा कुछ दिन की
 +
वह लम्बी ही -
 +
दिन बीते
 +
महीने बीते
 +
और वर्ष बीते।
 +
सन्देश नहीं आया पर गुरुवर का कोई।
 +
असहाय हुआ मैं ... उद्वेलित
 +
उद्विग्न बड़ा।
 +
 
 +
[एक और पारदर्शिका उभरती है। एक टीले पर नवयुवा हुआ एकलव्य सिर झुकाए बैठा है। चिंतित-उद्विग्न-विचारों में खोया हुआ]
 +
 
 +
विचार-स्वर:  हो गये आज हैं सात वर्ष
 +
पर नहीं कोई सन्देश मिला है गुरुवर का -
 +
क्या भूल गये वे सच मुझको?
 +
 
 +
कहते हैं पिता -
 +
महानगरी हस्तिनापुरी है दूर बहुत;
 +
वे कभी वहाँ पर गये नहीं
 +
पर सुनते हैं -
 +
सब हो जाते हैं अन्य वहाँ जाकर।
 +
 
 +
वे दुख से समझाते हैं मुझको कई बार
 +
हैं व्यर्थ महत्त्वाकांक्षी मेरे सब सपने
 +
जो गुरुवर ने थे दिये मुझे
 +
वर्षों पहले।
 +
 
 +
अक्सर वे दोहराते हैं वचन पूर्वजों के -
 +
'हम हैं वनपुत्र
 +
हमारी सीमा निश्चित है।
 +
आदेश हमें हैं नहीं
 +
कि हम पर्वत छोड़ें;
 +
अपने बांधव हैं पशु-पक्षी - हिसक पशु भी;
 +
इस जंगल के हम पार नहीं जा सकते हैं;
 +
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश।'
 +
 
 +
पर मैं क्या करूँ -
 +
हृदय मेरा उत्कंठित है;
 +
मेरी बाँहों में पलता है उत्सुक अब भी
 +
गुरु का अंतिम आदेश-मन्त्र -
 +
"अभ्यास, सतत अभ्यास और अभ्यास और"।
 +
है जाप किया इन बाँहों से मैंने इसका।
 +
पर यही नियति है क्या मेरी?
 +
क्या सिद्धि नहीं मिल पायेगी
 +
मेरी इस सतत साधना को?
 +
 
 +
यह छोटी-सी घाटी
 +
ये घोर घने जंगल
 +
ये पर्वत ही
 +
क्या क्षितिज बनेंगे मेरी पुण्य साधना के?
 +
मैं पार न कर पाऊँगा
 +
इनको क्या जीवन भर?
 +
वह नया अर्थ जो धनुष-बाण ने मुझे दिया
 +
रह जायेगा क्या अर्थहीन...
 +
असमर्थ यहीं?
 +
पर नहीं...
 +
महत्त्वाकांक्षा मुझको टेर रही
 +
हस्तिनापुरी- मेरा गन्तव्य - बुलाती है।
 +
 
 +
मैं जाऊँगा...
 +
सारी सीमाएँ लाँघ
 +
वहाँ अब जाऊँगा।
 +
 
 +
हो आज रात
 +
मेरे निश्चय का सूर्योदय,
 +
जंगल यह सीमाहीन मित्र मेरे मन का -
 +
मैं खोजूँगा
 +
इसमें ही अपने सपनों को;
 +
हाँ, पार जाऊँगा इसके भी।
 +
 
 +
[पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। एकलव्य फिर वर्तमान में आ जाता है]
 +
 
 +
यह आश्रम मेरा तीर्थ
 +
आज मेरे सम्मुख;
 +
यह पुण्यभूमि -
 +
मेरे मन का स्वीकार अमल-
 +
मेरा भविष्य होगा सुन्दर।
 +
यह धर्मक्षेत्र
 +
जिसमें परिभाषा मुझे मिलेगी
 +
सपनों की।
 +
 
 +
हो चुकी दोपहर है अब तो -
 +
विश्राम-काल।
 +
है आश्रम शान्त
 +
मौन हैं सारे पशु-पक्षी
 +
गरमी से व्याकुल सभी, लग रहा, सोते हैं।
 +
कुछ धूप ढले
 +
तब आश्रम में मैं जाऊँगा;
 +
तब तक यह वट का वृक्ष बने मेरा आश्रय -
 +
यह मेरे सपनों का प्रतीक।
 +
 
 +
[सोचते-सोचते वृक्ष की शाखा से टिके-टिके सो जाता है]
 +
</poem>

04:13, 15 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

  
[द्रोण का आश्रम। उससे थोड़ी दूर पर पथ के निकट एक वृक्ष की ओट में खड़ा मन्त्रमुग्ध एकलव्य। पृष्ठभूमि में हस्तिनापुर के गवाक्ष और कंगूरे सूर्य-किरणों में नहाए अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे हैं। एकलव्य टकटकी बाँधे उस गेरुए ध्वज को भक्तिभाव से निहार रहा है, जिस पर आचार्य द्रोण का मृगचर्म पर रखे कमंडल के साथ धनुष-बाण का चिह्न अंकित है। गहरी भाव-तरंगों में डूब-उतरा रहा है वह ]
विचार-स्वर
मैं हूँ आज खड़ा।
यह द्वीप मनोरथ का
मेरी इच्छाओं का
उजला-उजला -
लगता है जैसे मेरे पुण्यों का विहान।

असमंजस की वह काली रात समाप्त हुई
जब बार-बार मैं भटका था
सन्देहों में -
यह पूर्णकाम होने की बेला है अनुपम।

है याद मुझे
वर्षों पहले
आचार्यश्रेष्ठ जब आये थे ...

[एक स्मृति-चित्र पारदर्शिका में उभरता है - पर्वत की एक उपत्यका। घने जंगल से ढँके ढाल। रक पतली-सी पहाड़ी नदी तेज गति से बह रही है। कुछ झोंपड़ों के अलावा आसपास कोई बस्ती नहीं है। एक पहाड़ी पर एक गढ़ीनुमा मकान बना है। पहाड़ी पर से उतरते हुए दो पुरुष और एक नवकिशोर। एक पुरुष गौर वर्ण का दीर्घकाय है - सिर पर जटाएँ और शरीर पर यज्ञोपवीत - मृगचर्म सीने पर बँधा हुआ - नीचे श्वेत धोती - कंधे पर तरकश - हाथ में लम्बा धनुष। तपस्या का तेज श्मश्रुपूर्ण चेहरे पर झलक रहा है। दूसरा पुरुष श्यामवर्ण सुगठित शरीर का। मँझोले कद का। घुटने तक का एक अधोवस्त्र पहने है। कमर में एक बड़ा छुरा और हाथ में एक भाला। सिर पर एक पट्टी बँधी है, जिसमें कुछ पंख खुसे हैं। किशोर भी एक छोटी-सी कमान हाथ में पकड़े है। पीठ पर एक छोटा तरकश। सिर पर मोरपंख लगाये है। उसकी मुद्रा उत्साहभरी है। गौर पुरुष को वह श्रद्धा से देख रहा है। श्याम पुरुष गौर पुरुष की बात को पूरे सम्मान और कुछ झिझक के साथ सुन रहा है ]

गौर पुरुष: भीलराज !
मैं चाहूँगा कि एकलव्य
इस घाटी से बाहर निकले।
बाँधो मत इसको
अपनी इन सीमाओं में -
बनने दो इसको प्रश्न अभी।
कालान्तर में
जब दूर-दूर के देशों का अनुभव लेकर
यह उत्तर बनकर आएगा
तब तुमको मेरी बात समझ में आएगी।

मैं देख रहा इसका भविष्य -
दक्षिणावर्त का
यह त्राता होगा समर्थ।

श्याम पुरुष: भगवन !
समर्थ हैं आप
किन्तु ...
हम तो हैं बर्बर भील -
हमारी दृष्टि नहीं जा पाती है
अपनी इस पर्वत-गुहा पार।
हम हैं वनपुत्र
हमारी सीमा निश्चित है।
आदेश हमें है नहीं
कि हम पर्वत छोड़ें -
हम तो उद्गम हैं नदियों के -
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश।

फिर ...
ज्ञात आपको
हमें मानते हैं अन्त्यज
उत्तर भारत के आर्य लोग।
वे बली-वीर-उद्धत-समर्थ -
हम संकोचों से घिरे हुए असमर्थ लोग।

यह एकलव्य है सरल
बालमन है अबोध -
इसकी इच्छाओं को सीमित ही रहने दें।

हैं आप स्वयं इतने उदार -
अपने परिचित।
पर सभी नहीं सह पायेंगे
इस बालक का सीमोल्लंघन -
दंडित होगा यह
और तिरस्कृत-अपमानित -
हो जायेंगी इसकी इच्छाएँ
एक दुखी अपराध-बोध।

गौर पुरुष: मैं भारद्वाज का पुत्र द्रोण हूँ कहता यह -
यह जाति-भेद
यह द्वेष नहीं हैं सच्चाई -
इनकी सीमाएँ झूठी है
इनके बंधन हैं अर्थहीन -
जो वीर नहीं
वे ही इनसे सकुचाते हैं।

है नहीं कोई अंतर -
मानव हैं सारे एक
यही है सिर्फ सत्य -
सूर्योदय की है जाति न होती कोई भी;
मैं एकलव्य को उगे सूर्य-सा कर दूँगा।
क्षत्रिय का लक्षण
सिर्फ़ वीरता होती है -
वह ही है उसका संस्कार।
जो हैं समर्थ
वे सभी सूर्यकुल के ही हैं-
सामर्थ्य बनेगा वही तुम्हारा वीर पुत्र।

आतिथ्य तुम्हारा मुझे मिला परिवार सहित
जो इतने दिन
उसने मुझको है दिया एक विश्वास नया -
आभारी हूँ।
मैं वही आस्था लिये हस्तिनापुर जाता -
हैं कृपाचार्य, मेरी पत्नी के बन्धु वहाँ
पर...
मैं खोजूँगा स्वयं भूमिका अपनी शुभ।
कुछ दिनों बाद संदेश तुम्हें मैं भेजूँगा
तब एकलव्य को मेरे पास भेज देना।

[बात करते-करते वे लोग घाटी के सिरे पर आ गये हैं। पहाड़ों के बीच में एक सँकरा रास्ता दीखता है, जिससे थोड़ी दूर पर एक शकट खड़ा दिखाई देता है, जिसमें द्रोण-पत्नी कृपी एक छह-सात वर्ष के बालक के साथ बैठी हैं। पास ही अस्त्र-शस्त्र, पुस्तकें और मृगचर्म रखे हें। फलों से भरे कई टोकरे भी रखे हैं। निकट पहुँचकर भीलराज और एकलव्य कृपी को प्रणाम करते हैं। आचार्य के पैरों को छूता है एकलव्य, रुँधे कंठ से कहता है]

एकलव्य: गुरुवर!
मुझको आदेश करें।
जब तक न आपका मुझे मिले सन्देश
करूँ क्या...
होने को उपयुक्त पात्र।

द्रोण: अभ्यास
सतत अभ्यास
और अभ्यास और...
हाँ, यही सिद्धि का परम मन्त्र।

[पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। एकलव्य का विचार-स्वर फिर उठता है]

विचार-स्वर: हो गयी प्रतीक्षा कुछ दिन की
वह लम्बी ही -
दिन बीते
महीने बीते
और वर्ष बीते।
सन्देश नहीं आया पर गुरुवर का कोई।
असहाय हुआ मैं ... उद्वेलित
उद्विग्न बड़ा।

[एक और पारदर्शिका उभरती है। एक टीले पर नवयुवा हुआ एकलव्य सिर झुकाए बैठा है। चिंतित-उद्विग्न-विचारों में खोया हुआ]

विचार-स्वर: हो गये आज हैं सात वर्ष
पर नहीं कोई सन्देश मिला है गुरुवर का -
क्या भूल गये वे सच मुझको?

कहते हैं पिता -
महानगरी हस्तिनापुरी है दूर बहुत;
वे कभी वहाँ पर गये नहीं
पर सुनते हैं -
सब हो जाते हैं अन्य वहाँ जाकर।

वे दुख से समझाते हैं मुझको कई बार
हैं व्यर्थ महत्त्वाकांक्षी मेरे सब सपने
जो गुरुवर ने थे दिये मुझे
वर्षों पहले।

अक्सर वे दोहराते हैं वचन पूर्वजों के -
'हम हैं वनपुत्र
हमारी सीमा निश्चित है।
आदेश हमें हैं नहीं
कि हम पर्वत छोड़ें;
अपने बांधव हैं पशु-पक्षी - हिसक पशु भी;
इस जंगल के हम पार नहीं जा सकते हैं;
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश।'

पर मैं क्या करूँ -
हृदय मेरा उत्कंठित है;
मेरी बाँहों में पलता है उत्सुक अब भी
गुरु का अंतिम आदेश-मन्त्र -
"अभ्यास, सतत अभ्यास और अभ्यास और"।
है जाप किया इन बाँहों से मैंने इसका।
पर यही नियति है क्या मेरी?
क्या सिद्धि नहीं मिल पायेगी
मेरी इस सतत साधना को?

यह छोटी-सी घाटी
ये घोर घने जंगल
ये पर्वत ही
क्या क्षितिज बनेंगे मेरी पुण्य साधना के?
मैं पार न कर पाऊँगा
इनको क्या जीवन भर?
वह नया अर्थ जो धनुष-बाण ने मुझे दिया
रह जायेगा क्या अर्थहीन...
असमर्थ यहीं?
पर नहीं...
महत्त्वाकांक्षा मुझको टेर रही
हस्तिनापुरी- मेरा गन्तव्य - बुलाती है।

मैं जाऊँगा...
सारी सीमाएँ लाँघ
वहाँ अब जाऊँगा।

हो आज रात
मेरे निश्चय का सूर्योदय,
जंगल यह सीमाहीन मित्र मेरे मन का -
मैं खोजूँगा
इसमें ही अपने सपनों को;
हाँ, पार जाऊँगा इसके भी।

[पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। एकलव्य फिर वर्तमान में आ जाता है]

यह आश्रम मेरा तीर्थ
आज मेरे सम्मुख;
यह पुण्यभूमि -
मेरे मन का स्वीकार अमल-
मेरा भविष्य होगा सुन्दर।
यह धर्मक्षेत्र
जिसमें परिभाषा मुझे मिलेगी
सपनों की।

हो चुकी दोपहर है अब तो -
विश्राम-काल।
है आश्रम शान्त
मौन हैं सारे पशु-पक्षी
गरमी से व्याकुल सभी, लग रहा, सोते हैं।
कुछ धूप ढले
तब आश्रम में मैं जाऊँगा;
तब तक यह वट का वृक्ष बने मेरा आश्रय -
यह मेरे सपनों का प्रतीक।

[सोचते-सोचते वृक्ष की शाखा से टिके-टिके सो जाता है]