"हल्लाड़ी / असंगघोष" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=खामोश न...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 21: | पंक्ति 21: | ||
सुबह-शाम, दोपहर। | सुबह-शाम, दोपहर। | ||
भरी दोपहरी में | भरी दोपहरी में | ||
− | जब सूरज आसमान | + | जब सूरज आसमान में |
ठीक सिर के ऊपर | ठीक सिर के ऊपर | ||
टँगा होता | टँगा होता | ||
पंक्ति 34: | पंक्ति 34: | ||
निकालती थी ज्वार रात में | निकालती थी ज्वार रात में | ||
हम दिखाते दिनभर धूप | हम दिखाते दिनभर धूप | ||
+ | |||
+ | माँ | ||
+ | कभी रात में | ||
+ | कभी अलसुबह | ||
+ | अलगनी के नीचे रखी घट्टि में | ||
+ | पीसती थी ज्वार | ||
+ | बनाती थी रोटी हम सबके लिए | ||
+ | कभी-कभी ले आती थी | ||
+ | दो-एक अलुरे फंुकड़े | ||
+ | जो सेंके जाते चूल्हे की आग में | ||
+ | और हम एक-एक दाना निकाल खाते थे | ||
+ | |||
+ | अब हम पोस्त नहीं खरीद सकते | ||
+ | ज्वार भी महँगी है | ||
+ | माँ से मजूरी भी नहीं होती | ||
+ | मेरा बचपन भी चला गया | ||
+ | हल्लाड़ी घर के पीछे | ||
+ | बेकार पड़ी है। | ||
</poem> | </poem> | ||
{{KKMeaning}} | {{KKMeaning}} |
01:49, 10 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
एक हल्लाड़ी<ref>पत्थर की शिला</ref>
घर में थी
जिस पर पीसा करती थी
माँ प्रतिदिन
काँदा, लहसन, खड़ी मिर्च
पोस्त के साथ पानी मिला
ज्वार की रोटी खाने, चटनी
चटनी जिसमें
हम पाते थे स्वाद
लजीज दाल सब्जी का एक साथ
सुबह-शाम, दोपहर।
भरी दोपहरी में
जब सूरज आसमान में
ठीक सिर के ऊपर
टँगा होता
फसल काटती माँ
दोपहरी की छुट्टी में
उसी चटनी से
खाती ज्वार की एक रोटी
पानी पी फिर काम में लग जाती
शाम को मजदूरी में मिलते
ज्वार के गिने-चुने फंकड़े<ref>ज्वार की बाल/गुच्छा</ref>
जिन्हें घर ला माँ झाड़ती डण्डे से
निकालती थी ज्वार रात में
हम दिखाते दिनभर धूप
माँ
कभी रात में
कभी अलसुबह
अलगनी के नीचे रखी घट्टि में
पीसती थी ज्वार
बनाती थी रोटी हम सबके लिए
कभी-कभी ले आती थी
दो-एक अलुरे फंुकड़े
जो सेंके जाते चूल्हे की आग में
और हम एक-एक दाना निकाल खाते थे
अब हम पोस्त नहीं खरीद सकते
ज्वार भी महँगी है
माँ से मजूरी भी नहीं होती
मेरा बचपन भी चला गया
हल्लाड़ी घर के पीछे
बेकार पड़ी है।