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"एक बूँद / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर

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ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
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थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
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सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
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आह! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी?
  
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से<br>
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देव!! मेरे भाग्य में क्या है बदा,
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी<br>
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मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में?
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,<br>
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या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?<br><br>
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चू पडूँगी या कमल के फूल में?
  
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,<br>
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बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?<br>
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वह समुन्दर ओर आई अनमनी
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,<br>
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एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?<br><br>
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वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।
  
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा<br>
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लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
वह समुन्दर ओर आई अनमनी<br>
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जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला<br>
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किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।<br><br>
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बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।
 
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लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते<br>
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जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर<br>
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किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें<br>
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बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।<br><br>
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14:28, 8 मई 2015 के समय का अवतरण

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी?

देव!! मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।