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"कमाल की औरतें ४ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर

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<poem>जब नदी के पास नहीं बचेगा पानी
 
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चूल्हे में बुझी होगी बीते दिनों की आग
 
चूल्हे में बुझी होगी बीते दिनों की आग

14:51, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण

जब नदी के पास नहीं बचेगा पानी
चूल्हे में बुझी होगी बीते दिनों की आग
हवा के गर्भ में अंतिम सांसें लेगी पुरुआ पछुआ
नानी के होंठ तक आकर कहानी
रास्ता भूल जाएगी

पिता के कंधे पर बैठ
मेले का आकाश नहीं छू पाएंगीं नन्ही हथेलियां
मां की पुकार पर पत्ते झरने लग जायेंगे
बेटियों की तस्वीर से लापता हो चुकी होगी खिलखिलाहट
पाजेब में ƒघूँघरू खो देना चाहेंगे
अपने छमकने का अस्तित्व
आंधियों में शैतान बच्चों की टोली
नहीं बटोरेगी टिकोरा अपनी बंद आंखों से

जब कुछ नहीं बचना चाहेगा
जब सब ख़त्म होने को होगा
समय
धरती के सीने पर कर रहा होगा
अपने जाते कदमों से हस्ताक्षर

रात की डिबिया में बंद
इ‹तजार में पगी उन आंखों का यकीन
सम‹दर को धरती की कहानी सुनाएगा
सम‹दर मीठा हो जायेगा
हवा लौट आएगी
चूल्हा जलने लगेगा
एक लड़की बनाएगी एक चिडिय़ा की तस्वीर
आसमान नीला रंग जायेगा
एक प्रेम
ठूंठ पेड़ों पर घोंसला बनाएगा
शाखें गुलजार हो जायेंगी

नदी पर कसी जा रही है पालों वाली नाव
किनारे गीत गा रहे हैं
मिट्टी पानी में मिल आकार ले रही है
हम Œप्यार कर रहे हैं
हम धरती, पेड़, नदी, आकाश, बादल हैं
हम बगिया पछुआ पुरुआ बयार हैं
नानी की कहानी के मीठे पात्र हैं हम
कहानी के अंत में
'सब सुख से राजपाट करने लगे' पर यकीन करते हैं हम
Œप्यार करते हैं

हममें बची हुई धरती
सांस ले रही है।