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तब फ़िक्र मैं करूँगा ज़ख़्मों को भी रफू का।
  
यह ऐश के नहीं हैं या रंग और कुछ है<br>
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यह ऐश के नहीं हैं या रंग और कुछ है
हर गुल है इस चमन में साग़र भरा लहू का<br><br>
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बुलबुल ग़ज़ल सराई, आगे हमारे मत कर<br>
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बुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर
सब हमसे सीखते हैं, अंदाज़ गुफ़्तगू का
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सब हमसे सीखते हैं, अंदाज़ गुफ़्तगू का।
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20:46, 23 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

 
अपने तड़पने की मैं तदबीर पहले कर लूँ
तब फ़िक्र मैं करूँगा ज़ख़्मों को भी रफू का।

यह ऐश के नहीं हैं या रंग और कुछ है
हर गुल है इस चमन में साग़र भरा लहू का।

बुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर
सब हमसे सीखते हैं, अंदाज़ गुफ़्तगू का।