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आहटें / विष्णु नागर

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|रचनाकार=विष्णु नागर
}}
{{KKCatKavita}}<poem>मैं क्यों अनजान बना बैठा हूँ<br>जैसे मुर्गा हूँ<br>क्यों कुकड़ू कूँ करता घूम रहा हूँ<br>जैसे मैं बिल्कुल बैचेन नहीं हूँ<br>क्यों अपनी कलगी पर कुछ ज्यादा इतराने लगा हूँ<br>क्यों पिंजड़े में बन्द जब कसाई की दूकान पर<br>ले जाया जा रहा हूँ तो<br>ऐसा बेपरवाह नजर आ रहा हूँ जैसे कि सैर पर जा रहा हूँ<br>क्यों मैं पंख फड़फड़ाने, चीखने और चुपचाप मर जाने में<br>इतना विश्वास करने लगा हूँ<br>क्यों मैं मानकर चल रहा हूँ कि मेरे जिबह होने पर<br>कहीं कुछ होगा नहीं<br>क्यों मैं खाने मे लजीज लगने की तैयारी में जुटा हूँ<br>क्यों मैं बेतरह नस्ल का मुर्गा बनने की प्रतियोगिता मं शामिल हूँ<br>
और क्यों मैं आपसे चाह रहा हूँ कि कृपया आप मुझे मनुष्य ही समझे ।
</poem>
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