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"उदयपुर में हूँ / रति सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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१.
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उस दरख्त के किनारे
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वह जो मन्दिर है
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जिसमें ढ़ेर से देवी देवता हैं,
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घंटे घड़ियाल हैं
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प्रसाद की चाह में खड़ी गाय
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पूँछ से मक्खियाँ भिनभिनाती रहती है
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उसी के सामने लहरारही है वह झील
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झील, जो मेरे जनम से पहले थी
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झील, जो मेरी मौत के बाद भी रहेगी
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झील, जो मेरे जिगर में जमी है
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झील, जो लगातार पिघलती रहती है
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बून्द बून्द समा गयी है वह मुझ में
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मैं‍- जो कभी झील के किनारे का दरख्त थी
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जिस के तने से ढोर डंगर पीठ रगड़ा करते थे
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तना घिसते- घिसते जल राशी में समा गया
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तभी से स्वप्न में भी तैरती उतरती हूँ
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मैं- जो झील में तैरता लट्ठ थी
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तैरते बच्चे उसे उठाते फिर दूर तक फैंक देते
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ज्यों ही पास आती, कुछ और दूर फैंक दी जाती
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आज तक बार-बार फैंकी जा रही हूँ
 +
कुछ और पास आने को
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वह झील में हूँ और मैं वह झील
 +
बस एक जनम का ही सम्बन्ध है
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मैं उदयपुर में हूँ......
  
१<br>
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२.
उस दरख्त के किनारे<br>
+
शायद इसी पेड़ से फल बन
वह जो मन्दिर है<br>
+
मैं टपक पड़ी थी झील में
जिसमें ढ़ेर से देवी देवता हैं,<br>
+
उस तोते ने लम्बी उड़ान भरी
घंटे घड़ियाल हैं<br>
+
और उठा लिया
प्रसाद की चाह में खड़ी गाय<br>
+
बड़ा स्वाद लेकर चबाया था मुझे
पूँछ से मक्खियाँ भिनभिनाती रहती है<br>
+
आज भी याद है मुझे उसकी चौंच की रगड़
उसी के सामने लहरारही है वह झील<br>
+
उसकी जीभ का सहलाना,
झील, जो मेरे जनम से पहले थी<br>
+
या फिर उस रंग महल की नर्तकी के
झील, जो मेरी मौत के बाद भी रहेगी<br>
+
घुंघरुओं से टपका एक घुंघरु थी मैं
झील, जो मेरे जिगर में जमी है<br>
+
अब भी कोई घुँघरु
झील, जो लगातार पिघलती रहती है<br>
+
लगातार मुझमें बजता रहता है
बून्द बून्द समा गयी है वह मुझ में<br>
+
मेरी जीभ एक आँसू चुभलाती रहती है
मैं‍- जो कभी झील के किनारे का दरख्त थी<br>
+
उस जालीदार झरोखे से
जिस के तने से ढोर डंगर पीठ रगड़ा करते थे<br>
+
कोई बाहर आने को तरसता है
तना घिसते- घिसते जल राशी में समा गया<br>
+
तभी से स्वप्न में भी तैरती उतरती हूँ<br>
+
मैं- जो झील में तैरता लट्ठ थी<br>
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तैरते बच्चे उसे उठाते फिर दूर तक फैंक देते<br>
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ज्यों ही पास आती, कुछ और दूर फैंक दी जाती <br>
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आज तक बार-बार फैंकी जा रही हूँ<br>
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कुछ और पास आने को<br>
+
वह झील में हूँ और मैं वह झील<br>
+
बस एक जनम का ही सम्बन्ध है<br>
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मैं उदयपुर में हूँ......<br><br>
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२<br>
+
३.
शायद इसी पेड़ से फल बन<br>
+
इस झील के किनारे
मैं टपक पड़ी थी झील में<br>
+
किसी सरकारी बाबू के घर मे
उस तोते ने लम्बी उड़ान भरी<br>
+
चौथी बेटी जनमी थी
और उठा लिया<br>
+
न थाली बजी
बड़ा स्वाद लेकर चबाया था मुझे<br>
+
न सोहर गवीं
आज भी याद है मुझे उसकी चौंच की रगड़<br>
+
एक सन्नाटा छा गया
उसकी जीभ का सहलाना,<br>
+
झील में एक तूफान आया
या फिर उस रंग महल की नर्तकी के<br>
+
समुद्र तक ज्वार चला आया
घुंघरुओं से टपका एक घुंघरु थी मैं<br>
+
चोथी बेटी के दिल नहीं होता है
अब भी कोई घुँघरु <br>
+
उसका कोई अपना नहीं होता है
लगातार मुझमें बजता रहता है<br>
+
चौथी बेटी उदयपुर की झील है  
मेरी जीभ एक आँसू चुभलाती रहती है<br>
+
उसकी आँखें लहराती रहती हैं
उस जालीदार झरोखे से<br>
+
चौथी बेटी राजनर्तकी का घुँघरू है
कोई बाहर आने को तरसता है<br><br>
+
बिन-बात खिलखिला उठती है
 +
आज यही चौथी बेटी
 +
झील के किनारे खड़ी है
 +
अपने पुनर्जन्मों को चुभलाती हुई......
  
३<br>
+
.
इस झील के किनारे<br>
+
बेटी होने मात्र से
किसी सरकारी बाबू के घर मे<br>
+
अपने कर्तव्यों से बरी हो गई मैं?  
चौथी बेटी जनमी थी<br>
+
चुल्लू भर पित्रांजलि देने भर की भी
न थाली बजी<br>
+
हकदारनी नहीं रही मैं?
न सोहर गवीं<br>
+
गोया बेटी नहीं , झरबेरी का बेर हूँ
एक सन्नाटा छा गया<br>
+
झट से झर पड़ी  
झील में एक तूफान आया<br>
+
काँटों से छिद गई मैं?
समुद्र तक ज्वार चला आया<br>
+
गोया बेटी नहीं , करोन्दे की झाड़ हूँ  
चोथी बेटी के दिल नहीं होता है<br>
+
खट्टी -पकी यादें हूँ
उसका कोई अपना नहीं होता है<br>
+
गोया बेटी नहीं
चौथी बेटी उदयपुर की झील है <br>
+
खाली झील हूँ
उसकी आँखें लहराती रहती हैं<br>
+
चौथी बेटी राजनर्तकी का घुँघरू है<br>
+
बिन-बात खिलखिला उठती है<br>
+
आज यही चौथी बेटी <br>
+
झील के किनारे खड़ी है<br>
+
अपने पुनर्जन्मों को चुभलाती हुई......<br><br>
+
 
+
४<br>
+
बेटी होने मात्र से<br>
+
अपने कर्तव्यों से बरी हो गई मैं? <br>
+
चुल्लू भर पित्रांजलि देने भर की भी<br>
+
हकदारनी नहीं रही मैं?<br>
+
गोया बेटी नहीं , झरबेरी का बेर हूँ<br>
+
झट से झर पड़ी <br>
+
काँटों से छिद गई मैं?<br>
+
गोया बेटी नहीं , करोन्दे की झाड़ हूँ <br>
+
खट्टी -पकी यादें हूँ<br>
+
गोया बेटी नहीं<br>
+
खाली झील हूँ<br>
+
 
सागरी झील हूँ.......
 
सागरी झील हूँ.......
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18:11, 29 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

१.
उस दरख्त के किनारे
वह जो मन्दिर है
जिसमें ढ़ेर से देवी देवता हैं,
घंटे घड़ियाल हैं
प्रसाद की चाह में खड़ी गाय
पूँछ से मक्खियाँ भिनभिनाती रहती है
उसी के सामने लहरारही है वह झील
झील, जो मेरे जनम से पहले थी
झील, जो मेरी मौत के बाद भी रहेगी
झील, जो मेरे जिगर में जमी है
झील, जो लगातार पिघलती रहती है
बून्द बून्द समा गयी है वह मुझ में
मैं‍- जो कभी झील के किनारे का दरख्त थी
जिस के तने से ढोर डंगर पीठ रगड़ा करते थे
तना घिसते- घिसते जल राशी में समा गया
तभी से स्वप्न में भी तैरती उतरती हूँ
मैं- जो झील में तैरता लट्ठ थी
तैरते बच्चे उसे उठाते फिर दूर तक फैंक देते
ज्यों ही पास आती, कुछ और दूर फैंक दी जाती
आज तक बार-बार फैंकी जा रही हूँ
कुछ और पास आने को
वह झील में हूँ और मैं वह झील
बस एक जनम का ही सम्बन्ध है
मैं उदयपुर में हूँ......

२.
शायद इसी पेड़ से फल बन
मैं टपक पड़ी थी झील में
उस तोते ने लम्बी उड़ान भरी
और उठा लिया
बड़ा स्वाद लेकर चबाया था मुझे
आज भी याद है मुझे उसकी चौंच की रगड़
उसकी जीभ का सहलाना,
या फिर उस रंग महल की नर्तकी के
घुंघरुओं से टपका एक घुंघरु थी मैं
अब भी कोई घुँघरु
लगातार मुझमें बजता रहता है
मेरी जीभ एक आँसू चुभलाती रहती है
उस जालीदार झरोखे से
कोई बाहर आने को तरसता है

३.
इस झील के किनारे
किसी सरकारी बाबू के घर मे
चौथी बेटी जनमी थी
न थाली बजी
न सोहर गवीं
एक सन्नाटा छा गया
झील में एक तूफान आया
समुद्र तक ज्वार चला आया
चोथी बेटी के दिल नहीं होता है
उसका कोई अपना नहीं होता है
चौथी बेटी उदयपुर की झील है
उसकी आँखें लहराती रहती हैं
चौथी बेटी राजनर्तकी का घुँघरू है
बिन-बात खिलखिला उठती है
आज यही चौथी बेटी
झील के किनारे खड़ी है
अपने पुनर्जन्मों को चुभलाती हुई......

४.
बेटी होने मात्र से
अपने कर्तव्यों से बरी हो गई मैं?
चुल्लू भर पित्रांजलि देने भर की भी
हकदारनी नहीं रही मैं?
गोया बेटी नहीं , झरबेरी का बेर हूँ
झट से झर पड़ी
काँटों से छिद गई मैं?
गोया बेटी नहीं , करोन्दे की झाड़ हूँ
खट्टी -पकी यादें हूँ
गोया बेटी नहीं
खाली झील हूँ
सागरी झील हूँ.......