भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता / द्विजेन्द्र 'द्विज'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विजेन्द्र 'द्विज' |संग्रह=जन-गण-मन / द्विजेन्द्र 'द्व...)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=जन-गण-मन / द्विजेन्द्र 'द्विज'
 
|संग्रह=जन-गण-मन / द्विजेन्द्र 'द्विज'
 
}}
 
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
+
{{KKCatGhazal}}
 
+
<poem>
बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता
+
 
+
तुम्हें यह सोचकर लोगो, कभी क्या डर नहीं आता
+
 
+
 
+
 
अगर भटकाव लेकर राह में रहबर नहीं आता,
 
अगर भटकाव लेकर राह में रहबर नहीं आता,
 
 
किसी भी क़ाफ़िले की पीठ पर ख़ंजर नहीं आता  
 
किसी भी क़ाफ़िले की पीठ पर ख़ंजर नहीं आता  
 
  
 
तुम्हारे ज़ेह्न में गर फ़िक्र मंज़िल की रही होती
 
तुम्हारे ज़ेह्न में गर फ़िक्र मंज़िल की रही होती
 
 
कभी भटकाव का कोई कहीं मंज़र नहीं आता  
 
कभी भटकाव का कोई कहीं मंज़र नहीं आता  
 
  
 
तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती
 
तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती
 
 
कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता  
 
कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता  
 
  
 
लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी  नहीं  होतीं
 
लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी  नहीं  होतीं
 
+
लहू से तर-ब-तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता  
लहू से तर—ब—तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता  
+
 
+
  
 
अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते
 
अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते
 
 
तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता  
 
तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता  
 
  
 
तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को,
 
तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को,
 
 
अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता
 
अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता
 +
</poem>

09:27, 6 जून 2010 के समय का अवतरण

अगर भटकाव लेकर राह में रहबर नहीं आता,
किसी भी क़ाफ़िले की पीठ पर ख़ंजर नहीं आता

तुम्हारे ज़ेह्न में गर फ़िक्र मंज़िल की रही होती
कभी भटकाव का कोई कहीं मंज़र नहीं आता

तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती
कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता

लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी नहीं होतीं
लहू से तर-ब-तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता

अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते
तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता

तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को,
अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता