"संपादन परिधानों का / महेश सन्तोषी" के अवतरणों में अंतर
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+ | आदिम आदमी! | ||
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+ | एक आईना अनावृत्त आचरणों का, | ||
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− | + | संगीत की मादक ध्वनियों, बहती रोशनियों में उभरतीं छवियों के बीच, | |
− | + | रैम्प पर एक नियोजित होड़ चल रही है सारी सार्वजनिकताओं के बीच, | |
− | + | शालीनता अपना अस्तित्व खोज रही हैं इंच-इंच नपी चिन्दियों में, | |
− | + | नग्नता रास्ते खोज रही है कपड़ों की कतरनों के बीच! | |
− | + | सचमुच परिधानों के निष्पाप संपादन में भी, | |
− | + | रहती है एक पुरुषजन्य पक्षपात की सामयिकी! | |
− | + | आधी दुनिया, औरतों के लिए, | |
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16:28, 4 मई 2017 के समय का अवतरण
सदियाँ लगीं हमें जिन संस्कृतियों को बुनने में, सँवरने में
सभ्यताओं का पत्तों, फूलों के आगे के परिधान देने,
नग्नताओं को शालीनता उढ़ाने में,
फिर भी विकास की सारी परतांे को चीर कर
सभ्यता के इस धरातल पर, पर मोड़ पर,
मन से माँसलताओं के जंगलों में सिमटकर रह गया
आदिम आदमी!
निजी ज़िन्दगियाँ निरन्तर बनती चली गयीं
एक आईना अनावृत्त आचरणों का,
ऐसी मानसिकताओं को फिर जरूरत ही कहाँ रही
किसी सभ्य परिधान की?
संगीत की मादक ध्वनियों, बहती रोशनियों में उभरतीं छवियों के बीच,
रैम्प पर एक नियोजित होड़ चल रही है सारी सार्वजनिकताओं के बीच,
शालीनता अपना अस्तित्व खोज रही हैं इंच-इंच नपी चिन्दियों में,
नग्नता रास्ते खोज रही है कपड़ों की कतरनों के बीच!
सचमुच परिधानों के निष्पाप संपादन में भी,
रहती है एक पुरुषजन्य पक्षपात की सामयिकी!
आधी दुनिया, औरतों के लिए,
कपड़े बुनने और सँवारने में लगी है,
आधी दुनिया, औरतों के कपड़े उतारने या
उतरवाने को आतुर खड़ी है,
यहाँ अब निरा, निजी, नैतिक या निन्दनीय कुछ नहीं है
यह खुल, सामूहिक नग्नताओं के सार्वजनिक
अलंकरण की घड़ी है!...