भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आते कैसे सूने पल / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो ("आते कैसे सूने पल / सुमित्रानंदन पंत" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत | |संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | आते कैसे सूने पल | ||
+ | जीवन में ये सूने पल! | ||
+ | जब लगता सब विशृंखल, | ||
+ | तृण, तरु, पृथ्वी, नभ-मंडल। | ||
+ | :खो देती उर की वीणा | ||
+ | :झंकार मधुर जीवन की, | ||
+ | :बस साँसों के तारों में | ||
+ | :सोती स्मृति सूनेपन की। | ||
+ | बह जाता बहने का सुख, | ||
+ | लहरों का कलरव, नर्तन, | ||
+ | बढ़ने की अति-इच्छा में | ||
+ | जाता जीवन से जीवन। | ||
+ | :आत्मा है सरिता के भी, | ||
+ | :जिससे सरिता है सरिता; | ||
+ | :जल जल है, लहर लहर रे, | ||
+ | :गति गति, सृति सृति चिर-भरिता। | ||
+ | क्या यह जीवन? सागर में | ||
+ | जल-भार मुखर भर देना! | ||
+ | कुसुमित-पुलिनों की क्रीड़ा- | ||
+ | ब्रीड़ा से तनिक ने लेना? | ||
+ | :सागर-संगम में है सुख, | ||
+ | :जीवन की गति में भी लय; | ||
+ | :मेरे क्षण-क्षण के लघु-कण | ||
+ | :जीवन-लय से हों मधुमय। | ||
− | + | रचनाकाल: जनवरी’ १९३२ | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + |
10:35, 13 मई 2010 के समय का अवतरण
आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल!
जब लगता सब विशृंखल,
तृण, तरु, पृथ्वी, नभ-मंडल।
खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की।
बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन।
आत्मा है सरिता के भी,
जिससे सरिता है सरिता;
जल जल है, लहर लहर रे,
गति गति, सृति सृति चिर-भरिता।
क्या यह जीवन? सागर में
जल-भार मुखर भर देना!
कुसुमित-पुलिनों की क्रीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना?
सागर-संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय;
मेरे क्षण-क्षण के लघु-कण
जीवन-लय से हों मधुमय।
रचनाकाल: जनवरी’ १९३२