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"विदा के बाद प्रतीक्षा / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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परदे हटाकर करीने से<br>
 
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रोशनदान खोलकर<br>
 
रोशनदान खोलकर<br>
कमरे का फनीर्चर सजाकर<br>
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कमरे का फर्नीचर सजाकर<br>
 
और स्वागत के शब्दों को तोलकर<br>
 
और स्वागत के शब्दों को तोलकर<br>
 
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ<br>
 
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ<br>
 
और देखता रहता हूँ मैं। <br><br>
 
और देखता रहता हूँ मैं। <br><br>
  
सडको पर धूप चिलचिलाती है<br>
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सड़कों पर धूप चिलचिलाती है<br>
चिडिया तक दिखायी नही देती<br>
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चिड़िया तक दिखायी नही देती<br>
 
पिघले तारकोल में<br>
 
पिघले तारकोल में<br>
 
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,<br>
 
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,<br>
किन्तु इस गमीर् के विषय में किसी से<br>
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किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से<br>
 
एक शब्द नही कहता हूँ मैं। <br><br>
 
एक शब्द नही कहता हूँ मैं। <br><br>
  
 
सिर्फ़ कल्पनाओं से<br>
 
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सूखी और बंजर जमीन को खरोंचता हूँ<br>
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सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ<br>
 
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में<br>
 
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में<br>
 
उनके बारे में सोचता हूँ<br>
 
उनके बारे में सोचता हूँ<br>
 
कितनी अजीब बात है कि आज भी<br>
 
कितनी अजीब बात है कि आज भी<br>
 
प्रतीक्षा सहता हूँ। <br><br>
 
प्रतीक्षा सहता हूँ। <br><br>

02:39, 11 जून 2008 के समय का अवतरण

परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।

सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूँ मैं।

सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में
उनके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ।