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18:16, 15 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
इस साल फिर फिर
बिखेर दूंगी उम्मीदों के बीज
कामनाओँ के जंगल में
शायद कुछ नमी बची रह जाये
धरती की कोंख में
और अँखुआ जाएँ
मेरी कुछ कामनाएँ
प्रार्थनाओं और शुभकामनाओं के
पानी से सिंचित ले लें फूटन
आ जाएँ फोड़ कर जमीन का सीना
वो चिर-प्रतीक्षित लाल लाल कोंपले
मेरे आँचल से छन छन कर
रोशनी के वृत और हम सबकी
उत्सर्जित कार्बनडाईऑक्साइड
दे दे इतनी ऊर्जा
जो ज़रूरी है जीवन में
प्रकाश संश्लेषण के लिए
मुझे विश्वाश है इसी से पनपेगा
वो पौधा जिसे पोषने के लिए
पृथ्वी सदियों से लगा रही चक्कर सूर्य के
इसी से हाँ इसी से
आएगी नई सभ्यता
जहाँ थम जायेंगे कत्ले-आम
मिट जाएँगी दुर्भावनाएँ
छल हो जायेंगे ओझल
सारे कांटे हो जायेंगे इकट्ठे
बना लेंगे एक मज़बूत बाड़
जिसे पार कर कोमल फूलों तक
न पहुँच सकेंगी नोचने वाली उँगलियाँ
हाँ मुझे यकीन है
इस बार मेरे बीज
अंकुरित होंगे ज़रूर