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बसें / रोहित ठाकुर

3 bytes added, 06:17, 14 अप्रैल 2018
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धूप सबकी होती कितनी बसें हैं जो छूटती है धूप इस देश में खड़ी औरत बस यही सोचती है पर उसे तो जीवन - काल कितने लोग इन बसों में चढ़ कर संतुलन बनाए रखना है अपने स्थान को छोड़ जाते हैं अपनी इच्छाओं और वृहत्तर संसार हवा भी इन बसों के बीच अंदर पसीने में बदल जाती है इस लिये औरत धूप इन बसों में चढ़ कर जाते लोग बिल्कुल सीधी खड़ी होती है जेल से रिहा हुए लोगों की तरह भाग्यशाली नहीं होते मार्क्स ये लोग मनुष्य की व्याख्या तरह नहीं सामान की तरह यात्रा में हैं औरत सर्वहारा होती है ये लोग एक जैसे होते हैं इस युग की धूप औरत मामूली से चेहरे / कपड़े / उम्मीद के लिये नहीं है साथ पर धूप जिस शहर में खड़ी औरत यह नहीं जानती है ये लोग जाते हैं वह तो सीधी खड़ी होकर शहर इनका नाम नहीं पुकारता भरी हुई बसों में सफर करता सर्वहारा किसी और नाम के हिस्से की लिए नहीं मामूली सी नौकरी के लिए शहर आता है धूप को बचाना चाहती ये बसें यंत्रवत चलती है किसी और जिसके अंदर बैठे हुए लोगों के हिस्से की धूप को बचाती औरत की परछाई दिवार पर सीधी पड़ती भीतर कुछ भींगता रहता है दिवार पर औरत की सीधी पड़ती परछाई दूर से घंटाघर की घड़ी की सुई की तरह लगती है और पास से सारस की गर्दन की तरह पर धूप में खड़ी औरत यह नहीं जानती कुछ दरकता सा रहता है
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