भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"माँ / भाग १५ / मुनव्वर राना" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मुनव्वर राना |संग्रह=माँ / मुनव्वर राना}} {{KKPageNavigation |पीछे=म...)
 
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
|सारणी=माँ / मुनव्वर राना
 
|सारणी=माँ / मुनव्वर राना
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatNazm}}
तो क्या मजबूरियाँ बेजान चीज़ें भी समझती हैं
+
<poem>
 
+
तो क्या मज़बूरियाँ बेजान चीज़ें भी समझती हैं
 
गले से जब उतरता है तो ज़ेवर कुछ नहीं कहता
 
गले से जब उतरता है तो ज़ेवर कुछ नहीं कहता
 
  
 
कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते
 
कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते
 
 
हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते  
 
हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते  
 
  
 
ज़मीं बंजर भी हो जाए तो चाहत कम नहीं होती
 
ज़मीं बंजर भी हो जाए तो चाहत कम नहीं होती
 
 
कहीं कोई वतन से भी महब्बत छोड़ सकता  
 
कहीं कोई वतन से भी महब्बत छोड़ सकता  
 
  
 
ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है
 
ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है
 
 
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती   
 
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती   
 
  
 
पैदा यहीं हुआ हूँ यहीं पर मरूँगा मैं
 
पैदा यहीं हुआ हूँ यहीं पर मरूँगा मैं
 
 
वो और लोग थे जो कराची चले गये  
 
वो और लोग थे जो कराची चले गये  
 
  
 
मैं मरूँगा तो यहीं दफ़्न किया जाऊँगा
 
मैं मरूँगा तो यहीं दफ़्न किया जाऊँगा
 
 
मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली  
 
मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली  
 
  
 
वतन की राह में देनी पड़ेगी जान अगर
 
वतन की राह में देनी पड़ेगी जान अगर
 
 
ख़ुदा ने चाहा तो साबित क़दम ही निकलेंगे  
 
ख़ुदा ने चाहा तो साबित क़दम ही निकलेंगे  
 
  
 
वतन से दूर भी या रब वहाँ पे दम निकले
 
वतन से दूर भी या रब वहाँ पे दम निकले
 
 
जहाँ से मुल्क की सरहद दिखाई देने लगे
 
जहाँ से मुल्क की सरहद दिखाई देने लगे
 +
</poem>

20:39, 14 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

तो क्या मज़बूरियाँ बेजान चीज़ें भी समझती हैं
गले से जब उतरता है तो ज़ेवर कुछ नहीं कहता

कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते
हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते

ज़मीं बंजर भी हो जाए तो चाहत कम नहीं होती
कहीं कोई वतन से भी महब्बत छोड़ सकता

ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती

पैदा यहीं हुआ हूँ यहीं पर मरूँगा मैं
वो और लोग थे जो कराची चले गये

मैं मरूँगा तो यहीं दफ़्न किया जाऊँगा
मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली

वतन की राह में देनी पड़ेगी जान अगर
ख़ुदा ने चाहा तो साबित क़दम ही निकलेंगे

वतन से दूर भी या रब वहाँ पे दम निकले
जहाँ से मुल्क की सरहद दिखाई देने लगे