"माँ / भाग १६ / मुनव्वर राना" के अवतरणों में अंतर
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ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़—ए—सुखन आया है | ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़—ए—सुखन आया है | ||
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पाँव दाबे हैं बुज़र्गों के तो फ़न आया है | पाँव दाबे हैं बुज़र्गों के तो फ़न आया है | ||
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हमें बुज़ुर्गों की शफ़क़त कभी न मिल पाई | हमें बुज़ुर्गों की शफ़क़त कभी न मिल पाई | ||
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नतीजा यह है कि हम लोफ़रों के बेच रहे | नतीजा यह है कि हम लोफ़रों के बेच रहे | ||
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हमीं गिरती हुई दीवार को थामे रहे वरना | हमीं गिरती हुई दीवार को थामे रहे वरना | ||
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सलीके से बुज़ुर्गों की निशानी कौन रखता है | सलीके से बुज़ुर्गों की निशानी कौन रखता है | ||
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रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में | रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में | ||
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ज़रूरतन भी ‘सख़ी’ की तरफ़ नहीं देखा | ज़रूरतन भी ‘सख़ी’ की तरफ़ नहीं देखा | ||
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सड़क से जब गुज़रते हैं तो बच्चे पेड़ गिनते हैं | सड़क से जब गुज़रते हैं तो बच्चे पेड़ गिनते हैं | ||
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बड़े बूढ़े भी गिनते हैं वो सूखे पेड़ गिनते हैं | बड़े बूढ़े भी गिनते हैं वो सूखे पेड़ गिनते हैं | ||
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हवेलियों की छतें गिर गईं मगर अब तक | हवेलियों की छतें गिर गईं मगर अब तक | ||
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मेरे बुज़ुर्गों का नश्शा नहीं उतरता है | मेरे बुज़ुर्गों का नश्शा नहीं उतरता है | ||
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बिलख रहे हैं ज़मीनों पे भूख से बच्चे | बिलख रहे हैं ज़मीनों पे भूख से बच्चे | ||
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मेरे बुज़ुर्गों की दौलत खण्डर के नीचे है | मेरे बुज़ुर्गों की दौलत खण्डर के नीचे है | ||
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मेरे बुज़ुर्गों को इसकी ख़बर नहीं शायद | मेरे बुज़ुर्गों को इसकी ख़बर नहीं शायद | ||
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पनप नहीं सका जो पेड़ बरगदों में रहा | पनप नहीं सका जो पेड़ बरगदों में रहा | ||
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इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती | इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती | ||
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आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती | आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती | ||
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मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर | मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर | ||
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मैं अपनी उम्र से छोटा दिखाई देता था | मैं अपनी उम्र से छोटा दिखाई देता था | ||
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बड़े—बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं | बड़े—बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं | ||
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कुएँ में छुप के आख़िर क्यों ये नेकी बैठ जाती है | कुएँ में छुप के आख़िर क्यों ये नेकी बैठ जाती है | ||
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मुझे इतना सताया है मरे अपने अज़ीज़ों ने | मुझे इतना सताया है मरे अपने अज़ीज़ों ने | ||
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कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता | कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता | ||
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20:40, 14 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़—ए—सुखन आया है
पाँव दाबे हैं बुज़र्गों के तो फ़न आया है
हमें बुज़ुर्गों की शफ़क़त कभी न मिल पाई
नतीजा यह है कि हम लोफ़रों के बेच रहे
हमीं गिरती हुई दीवार को थामे रहे वरना
सलीके से बुज़ुर्गों की निशानी कौन रखता है
रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में
ज़रूरतन भी ‘सख़ी’ की तरफ़ नहीं देखा
सड़क से जब गुज़रते हैं तो बच्चे पेड़ गिनते हैं
बड़े बूढ़े भी गिनते हैं वो सूखे पेड़ गिनते हैं
हवेलियों की छतें गिर गईं मगर अब तक
मेरे बुज़ुर्गों का नश्शा नहीं उतरता है
बिलख रहे हैं ज़मीनों पे भूख से बच्चे
मेरे बुज़ुर्गों की दौलत खण्डर के नीचे है
मेरे बुज़ुर्गों को इसकी ख़बर नहीं शायद
पनप नहीं सका जो पेड़ बरगदों में रहा
इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती
मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर
मैं अपनी उम्र से छोटा दिखाई देता था
बड़े—बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं
कुएँ में छुप के आख़िर क्यों ये नेकी बैठ जाती है
मुझे इतना सताया है मरे अपने अज़ीज़ों ने
कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता