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"समय का समय / सुषमा गुप्ता" के अवतरणों में अंतर

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तुम्हारे साथ ज़िन्दगी थी
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रात भर वह चेहरा
तुम्हारे बाद जिंदा हूँ?
+
मेरे हाथों में था
शायद
+
उसकी आँखों में दिख रही थी  
 +
मुझे अपनी उदास आँखें
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बीते हुए वक्त की राख
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और
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दर्द से उबलते पलों का धुआँ।
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बहुत चाहा मन ने
 +
समय लौट आए बीता
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पर
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समय का समय बदलना
 +
आसाँ होता
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तो क्या बात थी
  
तुम्हारे साथ मुस्कुराती थी
+
एक रोज़
तुम्हारे बाद हँसती हूँ
+
एक ठंड़ी-सी शाम
वो भी खिलखिला कर।
+
जब अचानक चले गए थे तुम
कि यकीं दिला सकूँ
+
उस रात मौसम से ज़्यादा सर्द
देखो
+
ज़हन था मेरा
वाकई
+
ठंड़ा ठहरा
मैं हँस रही हूँ
+
और लगभग मरा हुआ।
 +
बहुत महीनों और बहुत सालों
 +
के सूरज ने मिल कर
 +
जद्दोजहद की
 +
तब कहीं कुछ गरमाहट
 +
मेरे वजूद के हिस्से आई
 +
पर प्राण फूँके कि नही
 +
ये अब भी नहीं पता
 +
जड़ को चेतन करना
 +
आसाँ होता
 +
तो क्या बात थी
  
तुम्हारे साथ बहुत-सी बातें थी
+
तुमने चाहा था कभी
तुम्हारे बाद
+
मेरा
सिर्फ़ संवाद हैं
+
मुझ जैसा न होना
ठहरे हुए
+
कुछ ख्वाहिशें जताई थीं
सँभाले नापे-तोले
+
और कुछ बंदिशें
लफ्जों को बैलेंस करते
+
जोड़ दी उनके पीछे
खुलते है होंठ
+
जैसे यूँ ही आदतन
समझदारी की चूनर
+
छोड़ दी जाए थाल में रोटी
ओढ़ ली है ठीक से  
+
तृप्ति के बाद
अब
+
कि जो बचा है
 +
लो
 +
वो बस तुम्हारा
 +
पर मन का पेट
 +
बचे टुकड़ों से भरना
 +
आसाँ होता
 +
तो क्या बात थी
  
तुम्हारे साथ चाव थे
+
मेरे पास कल भी
तुम्हारे बाद खानापूर्ति है
+
नही थी
निरंतरता बनाए रखना
+
मेरे पास आज भी
ज़रूरत है  
+
नही है  
या मजबूरी
+
वो जादुई स्याही
ये सत्य नगण्य है
+
जो ज़िन्दगी के पन्नों से
शाश्वत सच बस एक है
+
सहूलियत अनुसार
देखो अभी भी
+
मिटा दे
जिंदा ही हूँ
+
आने जाने वाले
 +
खानाबदोशों के
 +
बेतरतीब से लिखे हर्फ़
 +
और फिर से कोरा कर दे
 +
उसे नई कहानी के लिए
 +
काले रंग पर रंग भरना
 +
आसाँ होता
 +
तो क्या बात थी
  
तुम्हारे साथ शृंगार थे
+
समय का समय बदलना
तुम्हारे बाद बंजरपन ढकना मात्र
+
आसाँ होता
रह गई है
+
तो क्या बात थी।
ये साज-सजावट की चीजें
+
ज्यों खंडहर पर
+
काढ़ दिए
+
चंद बेल-बूटे
+
भम्रित करने को
+
देखो कितना सुंदर है अब भी
+
 
+
कामयाब हुई
+
या नहीं हुई
+
इस सारे आडंबर के नीचे
+
दबी हुई
+
पर जिंदा तो हूँ ही
+
जैसे चाहा था तुमने
+
मैं रहूँ
+
जिंदा भी
+
खुश भी
+
 
+
तुम्हारे साथ से
+
तुम्हारे बाद तक
+
'तुम्हारी जिंदगी'
+
 
+
हाँ!
+
'तुम्हारी जिंदगी'
+
यहीं तो कहते थे
+
तुम मुझे
+
 
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14:50, 16 मई 2018 के समय का अवतरण

रात भर वह चेहरा
मेरे हाथों में था
उसकी आँखों में दिख रही थी
मुझे अपनी उदास आँखें
बीते हुए वक्त की राख
और
दर्द से उबलते पलों का धुआँ।
बहुत चाहा मन ने
समय लौट आए बीता
पर
समय का समय बदलना
आसाँ होता
तो क्या बात थी

एक रोज़
एक ठंड़ी-सी शाम
जब अचानक चले गए थे तुम
उस रात मौसम से ज़्यादा सर्द
ज़हन था मेरा
ठंड़ा ठहरा
और लगभग मरा हुआ।
बहुत महीनों और बहुत सालों
के सूरज ने मिल कर
जद्दोजहद की
तब कहीं कुछ गरमाहट
मेरे वजूद के हिस्से आई
पर प्राण फूँके कि नही
ये अब भी नहीं पता
जड़ को चेतन करना
आसाँ होता
तो क्या बात थी

तुमने चाहा था कभी
मेरा
मुझ जैसा न होना
कुछ ख्वाहिशें जताई थीं
और कुछ बंदिशें
जोड़ दी उनके पीछे
जैसे यूँ ही आदतन
छोड़ दी जाए थाल में रोटी
तृप्ति के बाद
कि जो बचा है
लो
वो बस तुम्हारा
पर मन का पेट
बचे टुकड़ों से भरना
आसाँ होता
तो क्या बात थी

मेरे पास कल भी
नही थी
मेरे पास आज भी
नही है
वो जादुई स्याही
जो ज़िन्दगी के पन्नों से
सहूलियत अनुसार
मिटा दे
आने जाने वाले
खानाबदोशों के
बेतरतीब से लिखे हर्फ़
और फिर से कोरा कर दे
उसे नई कहानी के लिए
काले रंग पर रंग भरना
आसाँ होता
तो क्या बात थी

समय का समय बदलना
आसाँ होता
तो क्या बात थी।