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"अरक्षित / कुमार विकल" के अवतरणों में अंतर

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अरक्षित
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|रचनाकार=कुमार विकल
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वे रोज़ आते हैं
 
वे रोज़ आते हैं
  
काले नक़ाबों में,चिकने शरीर ,लम्बे बलिष्ठ
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काले नक़ाबों में, चिकने शरीर ,लम्बे बलिष्ठ
  
 
पहचाने नहीं जाते.
 
पहचाने नहीं जाते.
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काले नक़ाबपोशों के रहस्य बतलाती है
 
काले नक़ाबपोशों के रहस्य बतलाती है
  
और उनसे लड़ने के तरीक़े सिखाती है.
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और उनसे लड़ने के तरीक़े सिखाती है.
 
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लेकिन इस बार
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हाँ, पहले भी ऐसे—
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कई बार हो चुका है.
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हर बार वह
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एक खण्डहर मकान
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काटे हुए पेड़
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फ्हटे हुए झंडे
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एक सूख रहे दरिया की तरह वापस आया है.
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पहले हर बार—
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वह अपना दुख किताबों को सुनाता था
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उनसे कुछ ताक़त पाता था
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इस बार वह
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केवल एक पुरानी कविता गुनगुनाता है
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एक लंबी… बहुत लम्बी कविता
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दुनिया की सबसे बड़ी नदी जैसी कविता
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दुनिया की सबसे ऊँची मीनार जैसी कविता
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एक विशाल दीवार जैसी कविता….
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शायद यही कविता उसे बचा रही है
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दरिया की ओर बड़ते रेगिस्तान को पीछे हटा रही है
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वरना उसके शरीर से जो बदबू आ रही है
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वह तो उसे—
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उस गर्त की ओर बढ़ा रही है
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जिसका इंतज़ाम उसी दिन हो गया था
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जब उसने अपना पहला क़दम
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उनकी सुरक्षित दुनिया में बघ्ह़्आया था
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और ज़ोर से एक ठहाका लगाया था.
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उसने समझा था
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वे उसके ठहाके से डरने लगे,
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यह उसका भ्रम था
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दरअसल वे डरने का नाटक करने लगे,
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क्योंकि वे उसके चोर मन को जानते थे
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रोशनी के शराबी बिम्बों वाली कविता के प्रति
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उसके मोह को पहचानते थे
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वे जानते थे
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कुछ कहने के लिए जब वह अपना मुँह खोलेगा
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उसका चोर उसके खिलाफ़ बोलेगा.
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वे जानते थे—
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ज़िन्दा आदमी को किस तरह
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गर्त में उतारा जाता है
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जो आदमी ज़हर से नहीं मरता
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उसे किस तरह मोह से मारा जाता है.
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हाँ, पहले भी ऐसे कई बार हो चुका है
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कि वह पराजित लौट कर आया है
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लेकिन इस बार…
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वह अपने शरीर में
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एक मरे हुए मोह की बदबू लाया है.
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इस बदबू से उसे
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अब वही पुरानी अनगढ़ कविता ही बचाएगी
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खुरदरे हाथों वाली एक श्रमजीवी कविता
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जो ऊँची मीनार पर
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एक मशाल की तरह जलती है
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एक विशाल दीवार पर
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मज़बूत क़दमों से चलती है.
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रंग— भेद
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कभी—कभी यह शहर
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मेरा भी होता है
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कम से कम उस रोज़
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जब कसौली की सुरमई पहाड़ियों पर पर पड़ी बर्फ़
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एक साँवली लड़की के दूधिया दाँतों की तरह चमकती है
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और शहर की धूप से अठखेलियाँ करती है.
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मैं अपने कविता वर्ष से पहले की कविता लिखता हूँ
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और सारे शहर म्रें फैल जाता हूँ
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शराबखानों दोस्तों के अड्डों,प्रियजनों के घर
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न जाने
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कहाँ —कहाँ अपनी नवजात कवित को लिए फिरता हूँ.
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जी मेरी कविता गौरवर्णा नहीं
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ज़रा साँवली —सी है
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एक संथाल बच्ची की तरह खुरदरी
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जो बड़ी हो कर
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गुलाबी फ़्राक नहीं पहनेगी
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आइसक्रीम नहीं खाएगी
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तितली नहीं कहलाएगी
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नंगे पाँव ही अपने लोगोम के बीच भाग जाएगी.
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…. लेकिन यह अपने लोग कौन होते हैं
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किस तरह के घरों में रहते हैं
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एक नंग —धडंग संथाल कविता के बारे में
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किस तरह  से सोचते हैं.
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यह मुझे अगली सुबह
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पता चलता है
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जब अख़बार में
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कसौली की बर्फ़  और मेरी कविता के बारे  में
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ख़बरें एक साथ छपती हैं
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कसौली की बर्फ़ तो श्वेता बन जाती है
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लेकिन मेरी कविता
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एक शराबी पिता की
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काली कलूटी बेटी कहलाती है
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जिसके शरीर से संभ्रांत लोगों को
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घटिया शराब की बदबू आती है.
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उस समय मुझे पहली बार
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अहसास होता है
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कि इस शहर में ताँगे क्यों नहीं चलते
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मैं किसी घोड़े की गरदन से लिपट कर रोना चाहता हूँ
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और बहुत रोना चाहता हूँ
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कि जब भी कोई कवि
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अपनी कस्विता को
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शहर के संभ्रांत हिस्से में लेकर जाता है,
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वह हमेशा टूट कर वापिस आता है.
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लेकिन मेरी कविता—
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मेरी बच्ची
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मुझे अपनी साँवली मुस्कान से हर्षाती है
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उसकी आँखों में कोई सपना नहीं
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एक विश्वास भरी भाषा है
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वह मेरी छाती से चिपक जाती है
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और उसके अँगों की मज़बूती
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मेरी चेतना में फैल जाती है.
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समझदार पाँव
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वक्त के साथ
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मेरे पाँव बहुत समझदार हो गये हैं
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और अब
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वे मेरे चाहने के बावजूद
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उन घरॊं में नहीं जाते
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जहाँ कमरों के क़ीमती कालीन
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मेरी बातों से ख़राब हो जाते हैं.
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वे उन घरॊं में नहीं जाते
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जहाँ लोग
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चुप्पी की शलीन भाषा में
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कला औ’ साहित्य चर्चाते हैं
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और एक अच्छी कविता पर
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आधा इंच से भी कम मुस्काते हैं.
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वे उन घरों गोष्ठियों में नहीं जाते
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जहाँ निर्मल वर्मा की कहानी—
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‘डेढ़ इंच ऊपर’ पढ़ी तो जाती है
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लेकिन उसके शराबी पात्र का
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डेढ़ इंच से अधिक हँसना पसंद नहीं कर पाते .
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मेरे पाँव जानते हैं
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मैं केवल हँसता ठीक नहीं
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गज़ भर लंबे ठहाके लगाता हूँ
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और डेढ़ इंच उफर उठ कर
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अपनी कविता सुनाता हूँ.
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मेरे पाँव जानते हैं—
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जब मेरी कविता
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ऐसी जगहों में जाती है
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हमेशा लड़खड़ाती हुई वापस आती है.
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और कीचड़ सनी चप्पलों की भाषा वाली कविता कहलाती है
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मेरे पाँव मेरी कविता से अधिक संवेदनशील हो चुके हैं.
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अज्ञातवास का अंतिम दिन
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आज मेरे अज्ञातवास का अंतिम दिन है
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यह उन भूमिगत दिनों जैसा अज्ञातवास नहीं
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जब
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मैं और मेरे साथी
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जेबों में बीड़ियाँ और दियासिलाई की डिब्बियाँ
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झोलों में किताबें
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और दिमागों में कुछ विचार—
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रखने के अपराध में
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ख़तरनाक घोषित कर दिये गये थे
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नहीं
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यह एक थकन भरी यात्रा का विश्राम—खंड नहीं
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जिसमें मैं
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इस यात्रा के अनुभव —बिम्बों को
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अपने बचपन के खिलुअनों
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किशोर दिनों के ग़रीब कपड़ों
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और जवानी के संकल्पों
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के साथ संजोना चाहता हूँ
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दरसल यह मेरी एक चोर यात्रा का
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आखिरी पड़ाव है
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जहँ मैं उन लोगों की ठीक पहचान करता हूँ
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जो इस यात्रा में
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ख़रगोशों की तरह मेरे पास आए
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छोटी—मोटी झूठी— सच्ची
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सुख—सुविधाएँ लाए
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लेकिन जब—
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मेरे झोलों की किताबों को देखा
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दिमाग़ के विचारों को समझा
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तो एक दम भेड़ियों की तरह गुर्राए
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उस वक़्त मुझे—
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कवि सर्वेश्वर बहुत याद आए
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‘तुम मशाल जलाओ
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भेड़िया भाग जाएगा’
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तब मैंने अपनी बीड़ी सुलगाई
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और मेरे विचार मशालों की तरह जल उठे.
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19:07, 8 सितम्बर 2008 के समय का अवतरण

वे रोज़ आते हैं

काले नक़ाबों में, चिकने शरीर ,लम्बे बलिष्ठ

पहचाने नहीं जाते.

मैं उन्हें पकड़ने की कोशिश करता हूँ

तो हाठॊं से फिसल जाते हैं

और भाग जाते हैं अँधेरे में अचीन्हे,

इस तरह वे रोज़ आते हैं.


और मैं भयातुर प्रतीक्षा में

अपनी सुरक्षा के उपाय सोचता हूँ

जबकि मैं जानता हूँ

कि आत्मरक्षा के समूचे शस्त्र

जो मुझको विरासत में मिले थे

पुराने पड़ गये हैं,कुण्ठित हो चुके हैं

अब मेरा सब कुछ अरक्षित है

मेरा शरीर शरीर की संभावनाएँ

मेरे संकल्प, आकांक्षाएँ,स्थापनाएँ

अस्तित्व की सहजताएँ

इस तरह वे रोज़ मेरी नंगी भुजाओं से निकल जाते हैं

और मेरे हाथों में

अपने चिकने शरीरों की मतली—भरी दुर्गंध छोड़ जाते हैं

इस दुर्गंध को लेकर मैं किधर जाऊँ


बाहर जाऊँगा तो लोग भाग जाएँगे

बच्चे दूध पीना छोड़ देंगे.


और जब पार्क के सारे गुलाबों पर

मेरे हाथों की दुर्गंध फैल जाएगी

तो लड़कियाँ उदास हो जाएँगी

और जब मेरी माँ को

मेरे शरीर से अपने दूध की गंध नहीं आएगी

तो वह मुझको पहचानने से इन्कार कर देगी


नहीं,मैं बाहर नहीं जाऊँगा

भीतर तो मैं अरक्षित हूँ

बाहर अजनबी बन जाऊँगा.

लेकिन—

मैं इन सारी आशंकाओं के साथ

बाहर आता हूँ

और एक जलूस में शामिल हो जाता हूँ

नारे लगाता हूँ

और अपने शरीर को सुरक्षित पाता हूँ.


मेरी माँ मुझे स्वीकार लेती है

काले नक़ाबपोशों के रहस्य बतलाती है

और उनसे लड़ने के तरीक़े सिखाती है.