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उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,
जहाँ पथिक जल की झांकी झाँकी में एक बूँद के लिए विकल है।
घर-घर देखा धुआं धुआँ पर, सुना, विश्व में आग लगी है,
'जल ही जल' जन-जन रटता है, कंठ-कंठ में प्यास जगी है।
बैलों के ये बंधू वर्ष भर, क्या जाने, कैसे जीते हैं?
बंधी जीभ, आँखे विषष्ण, गम खा, शायद आंसू आँसू पीते हैं।
पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू आँसू पीना?चूस-चूस सुखा सूखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।
विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती,
'दूध-दूध!' फिर 'दूध!' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे?
'दूध-दूध!' मरकर भी क्या टीम तुम बिना दूध के सो न सकोगे?
वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं।
हटो व्योम के मेघ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
'दूध, दूध! ...' ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं!
(१९३७ ई०)
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