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"शिक्षा वल्ली / तैत्तिरीयोपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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सब, वर्ण, स्वर, मात्राएँ,  संधि, शुद्ध ज्ञान प्रधान हों। <br>
 
सब, वर्ण, स्वर, मात्राएँ,  संधि, शुद्ध ज्ञान प्रधान हों। <br>
 
वर्णों का समवृति उच्चरण हो, गान रीति महान हो,<br>
 
वर्णों का समवृति उच्चरण हो, गान रीति महान हो,<br>
अथ वेद उच्चारण की शिक्षा कथित, इसका ज्ञान हो। <br><br>
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अथ वेद उच्चारण की शिक्षा कथित, इसका ज्ञान हो॥ [ १ ] <br><br>
 
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'''तृतीय अनुवाक'''<br>
 
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हम लोक ज्योति प्रजा विद्या, अध्यात्म पाँच प्रकार की। <br>
 
हम लोक ज्योति प्रजा विद्या, अध्यात्म पाँच प्रकार की। <br>
 
अथ संहिता, महा संहिता, उपनिषद व्याख्या कथित है,<br>
 
अथ संहिता, महा संहिता, उपनिषद व्याख्या कथित है,<br>
भू पूर्व द्यौ नभ संधि उत्तर,  वायु संयोजक अथ रचित है। <br><br>
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भू पूर्व द्यौ नभ संधि उत्तर,  वायु संयोजक अथ रचित है॥ [ १ ] <br><br>
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अग्नि महे अति पूर्व रूप है,आदित्य उत्तर रूप है, <br>
 
अग्नि महे अति पूर्व रूप है,आदित्य उत्तर रूप है, <br>
 
जल मेघ का अस्तित्व दोनों का ही संधि स्वरुप है। <br>
 
जल मेघ का अस्तित्व दोनों का ही संधि स्वरुप है। <br>
 
विद्युत् है इनका संधि सेतु व् संधि संघानं महा,<br>
 
विद्युत् है इनका संधि सेतु व् संधि संघानं महा,<br>
यही ज्योति विषयक संहिता का तथ्य है जाता कहा। <br><br>
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यही ज्योति विषयक संहिता का तथ्य है जाता कहा॥ [ २ ] <br><br>
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गुरु वर्ण पहला पूर्व एवं शिष्य वर्ण है दूसरा,<br>
 
गुरु वर्ण पहला पूर्व एवं शिष्य वर्ण है दूसरा,<br>
 
दोनों के सामंजस्य से, विद्या प्रकाशित है परा। <br>
 
दोनों के सामंजस्य से, विद्या प्रकाशित है परा। <br>
 
यह ज्ञान ही यहॉं संधि है, अस्तित्व मय संधान है,<br>
 
यह ज्ञान ही यहॉं संधि है, अस्तित्व मय संधान है,<br>
यही विद्या विषयक संहिता, उपनिषद कथित विधान है। <br><br>
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यही विद्या विषयक संहिता, उपनिषद कथित विधान है॥ [ ३ ] <br><br>
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अथ पूर्व माता रूप है और पिता उत्तर रूप है,<br>
 
अथ पूर्व माता रूप है और पिता उत्तर रूप है,<br>
 
उन दोनों की ही संधि से, संतान लेती स्वरुप है। <br>
 
उन दोनों की ही संधि से, संतान लेती स्वरुप है। <br>
 
इस संधि के कारण ही प्रजनन प्रजा का अस्तित्व है,<br>
 
इस संधि के कारण ही प्रजनन प्रजा का अस्तित्व है,<br>
अथ प्रजा विषयक संहिता,  उपनिषद कथयति तत्व है। <br><br>
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अथ प्रजा विषयक संहिता,  उपनिषद कथयति तत्व है॥ [ ४ ] <br><br>
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नीचे का जबड़ा पूर्व व् ऊपर का उत्तर रूप है,<br>
 
नीचे का जबड़ा पूर्व व् ऊपर का उत्तर रूप है,<br>
 
जब दोनों की हो संधि, तब ही बनता वाक् स्वरुप है। <br>
 
जब दोनों की हो संधि, तब ही बनता वाक् स्वरुप है। <br>
 
वाणी ही ब्रह्म स्वरुप है, वाणी विलक्षण शक्ति है,<br>
 
वाणी ही ब्रह्म स्वरुप है, वाणी विलक्षण शक्ति है,<br>
अथ आत्म विषयक तथ्य की, उपनिषद में अभिव्यक्ति है। <br><br>
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अथ आत्म विषयक तथ्य की, उपनिषद में अभिव्यक्ति है॥ [ ५ ] <br><br>
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पाँचों महा यह संहिताएँ, उपनिषद में कथित हैं,<br>
 
पाँचों महा यह संहिताएँ, उपनिषद में कथित हैं,<br>
 
जो जानता जीवन उसे, श्री शान्ति मय सुख सहित है। <br>
 
जो जानता जीवन उसे, श्री शान्ति मय सुख सहित है। <br>
 
संतान, पशुधन, ब्रह्म वर्चस, अन्य भोग व् अन्न से,<br>
 
संतान, पशुधन, ब्रह्म वर्चस, अन्य भोग व् अन्न से,<br>
परिपूर्ण जीवन,  पूर्ण श्री एश्वर्य होवें प्रसन्न से। <br><br>
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परिपूर्ण जीवन,  पूर्ण श्री एश्वर्य होवें प्रसन्न से॥ [ ६ ] <br><br>
 
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'''चतुर्थ अनुवाक'''<br>
 
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संपन्न मेघा से करे , प्रभु, इन्द्र नाम प्रसिद्ध  है। <br>
 
संपन्न मेघा से करे , प्रभु, इन्द्र नाम प्रसिद्ध  है। <br>
 
मृदु भाषी स्वस्थ शरीर हो, कल्याण मय वाणी सुनूँ,<br>
 
मृदु भाषी स्वस्थ शरीर हो, कल्याण मय वाणी सुनूँ,<br>
शुभ श्रुतम की स्मृति रहे, सब भाँति कल्याणी बनूँ। <br><br>
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शुभ श्रुतम की स्मृति रहे, सब भाँति कल्याणी बनूँ॥ [ १ ] <br><br>
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मेरे लिए गौएं व् खाद्य पदार्थ, सुख साधन रहे,<br>
 
मेरे लिए गौएं व् खाद्य पदार्थ, सुख साधन रहे,<br>
 
बहु वस्त्र , आभूषण, विविध पशु,  श्री व् संवर्धन रहे। <br>
 
बहु वस्त्र , आभूषण, विविध पशु,  श्री व् संवर्धन रहे। <br>
 
हे! अधिष्ठाता अग्नि के परमेश प्रभु सर्वज्ञ से,<br>
 
हे! अधिष्ठाता अग्नि के परमेश प्रभु सर्वज्ञ से,<br>
श्री संपदा सुख ऋद्धि को, आहुति समर्पित यज्ञ से। <br><br>
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श्री संपदा सुख ऋद्धि को, आहुति समर्पित यज्ञ से॥ [ २ ] <br><br>
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सब ब्रह्मचारी कपट शून्य व् हों पिपासु ज्ञान को,<br>
 
सब ब्रह्मचारी कपट शून्य व् हों पिपासु ज्ञान को,<br>
 
मन दमन की सामर्थ्य समझें, शमन के भी विधान को। <br>
 
मन दमन की सामर्थ्य समझें, शमन के भी विधान को। <br>
 
इस लक्ष्य से आहुति, हे प्रभुवर ! स्वाहा की स्वीकार हो,<br>
 
इस लक्ष्य से आहुति, हे प्रभुवर ! स्वाहा की स्वीकार हो,<br>
स्वीकार, अंगीकार हो तो ब्रह्म एकाकार हो। <br><br>
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स्वीकार, अंगीकार हो तो ब्रह्म एकाकार हो॥ [ ३ ] <br><br>
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मम कीर्ति सौरभ हे प्रभो! सर्वत्र व्यापे समष्टि में,<br>
 
मम कीर्ति सौरभ हे प्रभो! सर्वत्र व्यापे समष्टि में,<br>
 
धनवानों से धनवान अति मैं, बनूँ सबकी दृष्टि में। <br>
 
धनवानों से धनवान अति मैं, बनूँ सबकी दृष्टि में। <br>
 
अब तुझमें मैं और मुझमें तू, होवें समाहित हे प्रभो!<br>
 
अब तुझमें मैं और मुझमें तू, होवें समाहित हे प्रभो!<br>
इस लक्ष्य से यह आहुतियों, स्वीकार करना हे विभो!<br><br>
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इस लक्ष्य से यह आहुतियों, स्वीकार करना हे विभो! [ ४ ]<br><br>
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यथा जल नदियों के अंत में, करते जलधि प्रवेश हैं,<br>
 
यथा जल नदियों के अंत में, करते जलधि प्रवेश हैं,<br>
 
यथा काले मास संवत्सर, समय के गर्भ करते निवेश हैं। <br>
 
यथा काले मास संवत्सर, समय के गर्भ करते निवेश हैं। <br>
 
वैसे ही सब ब्रह्म चारी , स्वस्ति शुभ उपदेश को <br>
 
वैसे ही सब ब्रह्म चारी , स्वस्ति शुभ उपदेश को <br>
अथ ग्रहण कर दैदीप्य हों, वही पाये ब्रह्म महेश को। <br><br>
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अथ ग्रहण कर दैदीप्य हों, वही पाये ब्रह्म महेश को॥ [ ५ ] <br><br>
 
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'''पंचम अनुवाक'''<br>
 
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इसे महाचमस के पुत्र ने, अति प्रथम जाना यह कथा। <br>
 
इसे महाचमस के पुत्र ने, अति प्रथम जाना यह कथा। <br>
 
वह चौथी व्याहृति ब्रह्म भू व् भुवः  स्वः की आत्मा,<br>
 
वह चौथी व्याहृति ब्रह्म भू व् भुवः  स्वः की आत्मा,<br>
यह सूर्य जिससे जग प्रकाशित करता है परमात्मा। <br><br>
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यह सूर्य जिससे जग प्रकाशित करता है परमात्मा॥ [ १ ] <br><br>
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भूः अग्नि व्याहृति, भुवः वायु और स्वः आदित्य है,<br>
 
भूः अग्नि व्याहृति, भुवः वायु और स्वः आदित्य है,<br>
 
यह चन्द्रमा जो मन का देव है ज्योति देता सत्य है। <br>
 
यह चन्द्रमा जो मन का देव है ज्योति देता सत्य है। <br>
 
ऋग्वेद  भूः व् भुवः साम व् यजुः स्वः महः ब्रह्म है,<br>
 
ऋग्वेद  भूः व् भुवः साम व् यजुः स्वः महः ब्रह्म है,<br>
परमेश प्रभु का तत्व तात्विक ,  वेदों से ही गम्य है। <br><br>
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परमेश प्रभु का तत्व तात्विक ,  वेदों से ही गम्य है॥ [ २ ] <br><br>
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भूः प्राण व्याहृति, भुवः अपान व् स्वः व्याहृति व्यान है,<br>
 
भूः प्राण व्याहृति, भुवः अपान व् स्वः व्याहृति व्यान है,<br>
 
महः अन्न, अथ इस अन्न से ही प्राण होते प्राण हैं। <br>
 
महः अन्न, अथ इस अन्न से ही प्राण होते प्राण हैं। <br>
 
इन चारों व्याहृतियों की सोलह व्याहृति व् भेद है,<br>
 
इन चारों व्याहृतियों की सोलह व्याहृति व् भेद है,<br>
इन्हें तत्व से जो जानता उसे देव देते भेंट हैं। <br><br>
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इन्हें तत्व से जो जानता उसे देव देते भेंट हैं॥ [ ३ ] <br><br>
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'''षष्ठ अनुवाक'''<br>
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इस हृदय के अन्तर अनंतर जो भी यह आकाश है,<br>
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वह ज्योतिरूप विशुद्ध प्रभु परमेश का ही प्रकाश है.<br>
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उसमें विशुद्ध प्रकाश रूपी, ब्रह्म अविनाशी रहे,<br>
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वह मनोमय महिमा महिम है,अमित अविनाशी अहे॥ [ १ ]<br><br>
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दो तालुओं के मध्य में जो कंठ है , स्थित वहॉं,<br>
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पर ब्रह्मरंध्र व् सर कपालों के मध्य से निःसृत जहों<br>
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नाड़ी सुषुम्ना मूल ब्रह्मा का, अंत काले प्राणी को ,<br>
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अग्नि वायु सूर्य में , फ़िर ब्रह्म गति कल्याणी को॥ [ २ ]<br><br>
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जो ब्रह्म में स्थित प्रतिष्ठित, बनता स्वामी स्वयं का,<br>
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फ़िर तो अहंता मुक्त हो, बन जाता शासक अहम का .<br>
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वह मन के स्वामी ब्रह्म का, ज्ञाता विजेता बन सके,<br>
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मन वाणी, चक्षु, श्रोत्र, इन्द्रियों  का भी ज्ञाता बन सके॥ [ ३ ]<br><br>
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उस ब्रह्म का आकाश के सम ,  बृहद व्यापी शरीर है,<br>
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एक मात्र सत्ता मय तथापि , सूक्ष्म अति अशरीर है.<br>
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सब इन्द्रियाँ उस शान्ति निधि में , शान्ति पाती हैं जहाँ,<br>
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हे ब्रह्म वेत्ता !अति पुरातन , अमृत गमय तू हो वहाँ॥ [ ४ ]<br><br>
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'''सप्तम अनुवाक'''<br>
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भू , द्यौ, दिशाएँ, अन्तरिक्षम और आवंतर दिशाएँ ,<br>
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नक्षत्र, अग्नि, वायु, रवि, शशि, व्योम, जल सब, दवाएँ.<br>
 +
अथ प्राण पाँचों  इन्द्रियाँ सब और शरीरी धातु भी,<br>
 +
पांदाक्त हैं निश्चय जिन्हें, करे पूर्ण क्रम से साधु भी॥ [ १ ]<br><br>
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'''अष्टम अनुवाक'''<br>
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यही ॐ ब्रह्म है , ॐ विश्व है, ॐ अनुकृति सिद्ध है,<br>
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शुभ कर्म, अध्धयन यक्ष आदि में, ॐ रिद्धि  प्रसिद्ध है.<br>
 +
कह ॐ ही ऋत्विक अध्वर्युः , मंत्र प्रतिगर का कहें.<br>
 +
वेदों के अध्ययन से प्रथम , ओंकार ही ब्राह्मण कहे.॥ [ १ ]<br><br>
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'''नवं अनुवाक'''<br>
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स्वाध्याय और वेदादि अध्ययन , मानवोचित धर्म भी ,<br>
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शम, दम, नियम, तप, अग्निहोत्र , कुटुंब प्रजनन कर्म भी.<br>
 +
धर्माचरण और सत्य भाषण , तप ही अतिशय श्रेष्ठ है,<br>
 +
मुनि तपोनित्य, पुरुशिष्टि सत्यम, "नाक" मत यही श्रेष्ठ है.॥ [ १ ]<br><br>
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'''दशम अनुवाक'''<br>
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संसार वृक्ष का मैं हूँ उच्छेदक , त्रिशंकु ने कहा,<br>
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अन्नोत्पादक शक्ति रवि सम , कीर्ति मम पर्वत महा .<br>
 +
मैं अमिय सम अतिशय हूँ पावन , ज्योति मय धन मूल हूँ,<br>
 +
है अमिय अभिसिंचित सुमेधा, ज्ञान स्रोत्र समूल हूँ॥ [ १ ]<br><br>
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'''एकादश अनुवाक'''
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शिक्षित करें आचार्य स्व आश्रम निवासी शिष्य को,<br>
 +
दी सत्य वद, स्वाध्याय, धर्मं चर की शिक्षा समष्टि को.<br>
 +
तुम देव पितृ आचार्य ,  धर्म के पंथ पर चलना सदा,<br>
 +
तुम्हें वेदों के पड़ने पढाने में रूचि हो सर्वदा॥ [ १ ]<br><br>
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तुम्हें मातु - पितु , आचार्य अतिथि, देवो भव का भान हो ,<br>
 +
निर्दोष सात्विक आचरण और श्रेष्ठ कर्मों का ज्ञान हो,<br>
 +
उन सबके प्रति अति दान श्रद्धा, सेवा शुभ का विधान हो,<br>
 +
और दंभ हीन विनम्र शुभ निष्काम वृतियां प्रधान हों॥ [ २ ]<br><br>
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यदि हो कदाचित कोई दुविधा मार्ग में कर्तव्य के,<br>
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लो मार्ग दर्शन युक्ति विधि से, जो कुशल गंतव्य के.<br>
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यदि दोष से लांछित कोई तो उससे क्या व्यवहार हो,<br>
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निर्देश लो यदि कोई दुविधा , श्रेष्ठ जो आचार्य हो॥ [ ३ ]<br><br>
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'''द्वादश अनुवाक'''
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विष्णु , बृहस्पति , वरुण, इन्द्र, व् अर्यमा शुभ हो हमें,<br>
 +
आध्यात्मिक , दैविक व् भौतिक, शक्तियां शुभ हों हमें .<br>
 +
हे वायु ! मम परमेश प्राणाधार, पुनि -पुनि नमन है,<br>
 +
प्रत्यक्ष ब्रह्म को ऋतं  सत्यम अणु  में सम्भव गमन है॥ [ १ ]<br><br>
 
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20:57, 5 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण

प्रथम अनुवाक

मम हेतु शुभ हों, इन्द्र, मित्र, वरुण, बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, प्राण वायु देव, तुम, तुमको नमः,
प्रभो! ग्रहण, भाषण, आचरण हो सत्य का हमसे सदा,
ऋत रूप, ऋत के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा॥ [ १ ]

द्वितीय अनुवाक

ऋत भाषा की शिक्षा, विधा और व्याकरण का ज्ञान हो।
सब, वर्ण, स्वर, मात्राएँ, संधि, शुद्ध ज्ञान प्रधान हों।
वर्णों का समवृति उच्चरण हो, गान रीति महान हो,
अथ वेद उच्चारण की शिक्षा कथित, इसका ज्ञान हो॥ [ १ ]

तृतीय अनुवाक

यश ब्रह्म वर्चस वृद्धि हो, सह शिष्य और आचार्य की,
हम लोक ज्योति प्रजा विद्या, अध्यात्म पाँच प्रकार की।
अथ संहिता, महा संहिता, उपनिषद व्याख्या कथित है,
भू पूर्व द्यौ नभ संधि उत्तर, वायु संयोजक अथ रचित है॥ [ १ ]

अग्नि महे अति पूर्व रूप है,आदित्य उत्तर रूप है,
जल मेघ का अस्तित्व दोनों का ही संधि स्वरुप है।
विद्युत् है इनका संधि सेतु व् संधि संघानं महा,
यही ज्योति विषयक संहिता का तथ्य है जाता कहा॥ [ २ ]

गुरु वर्ण पहला पूर्व एवं शिष्य वर्ण है दूसरा,
दोनों के सामंजस्य से, विद्या प्रकाशित है परा।
यह ज्ञान ही यहॉं संधि है, अस्तित्व मय संधान है,
यही विद्या विषयक संहिता, उपनिषद कथित विधान है॥ [ ३ ]

अथ पूर्व माता रूप है और पिता उत्तर रूप है,
उन दोनों की ही संधि से, संतान लेती स्वरुप है।
इस संधि के कारण ही प्रजनन प्रजा का अस्तित्व है,
अथ प्रजा विषयक संहिता, उपनिषद कथयति तत्व है॥ [ ४ ]

नीचे का जबड़ा पूर्व व् ऊपर का उत्तर रूप है,
जब दोनों की हो संधि, तब ही बनता वाक् स्वरुप है।
वाणी ही ब्रह्म स्वरुप है, वाणी विलक्षण शक्ति है,
अथ आत्म विषयक तथ्य की, उपनिषद में अभिव्यक्ति है॥ [ ५ ]

पाँचों महा यह संहिताएँ, उपनिषद में कथित हैं,
जो जानता जीवन उसे, श्री शान्ति मय सुख सहित है।
संतान, पशुधन, ब्रह्म वर्चस, अन्य भोग व् अन्न से,
परिपूर्ण जीवन, पूर्ण श्री एश्वर्य होवें प्रसन्न से॥ [ ६ ]


चतुर्थ अनुवाक

ओंकार वेदों से निःसृत अति श्रेष्ठ अमृत सिद्ध है,
संपन्न मेघा से करे , प्रभु, इन्द्र नाम प्रसिद्ध है।
मृदु भाषी स्वस्थ शरीर हो, कल्याण मय वाणी सुनूँ,
शुभ श्रुतम की स्मृति रहे, सब भाँति कल्याणी बनूँ॥ [ १ ]

मेरे लिए गौएं व् खाद्य पदार्थ, सुख साधन रहे,
बहु वस्त्र , आभूषण, विविध पशु, श्री व् संवर्धन रहे।
हे! अधिष्ठाता अग्नि के परमेश प्रभु सर्वज्ञ से,
श्री संपदा सुख ऋद्धि को, आहुति समर्पित यज्ञ से॥ [ २ ]

सब ब्रह्मचारी कपट शून्य व् हों पिपासु ज्ञान को,
मन दमन की सामर्थ्य समझें, शमन के भी विधान को।
इस लक्ष्य से आहुति, हे प्रभुवर ! स्वाहा की स्वीकार हो,
स्वीकार, अंगीकार हो तो ब्रह्म एकाकार हो॥ [ ३ ]

मम कीर्ति सौरभ हे प्रभो! सर्वत्र व्यापे समष्टि में,
धनवानों से धनवान अति मैं, बनूँ सबकी दृष्टि में।
अब तुझमें मैं और मुझमें तू, होवें समाहित हे प्रभो!
इस लक्ष्य से यह आहुतियों, स्वीकार करना हे विभो! [ ४ ]

यथा जल नदियों के अंत में, करते जलधि प्रवेश हैं,
यथा काले मास संवत्सर, समय के गर्भ करते निवेश हैं।
वैसे ही सब ब्रह्म चारी , स्वस्ति शुभ उपदेश को
अथ ग्रहण कर दैदीप्य हों, वही पाये ब्रह्म महेश को॥ [ ५ ]

पंचम अनुवाक

ॐ भूः, भुर्वः, स्वः, तीन चौथी महः व्याहृतियों यथा,
इसे महाचमस के पुत्र ने, अति प्रथम जाना यह कथा।
वह चौथी व्याहृति ब्रह्म भू व् भुवः स्वः की आत्मा,
यह सूर्य जिससे जग प्रकाशित करता है परमात्मा॥ [ १ ]

भूः अग्नि व्याहृति, भुवः वायु और स्वः आदित्य है,
यह चन्द्रमा जो मन का देव है ज्योति देता सत्य है।
ऋग्वेद भूः व् भुवः साम व् यजुः स्वः महः ब्रह्म है,
परमेश प्रभु का तत्व तात्विक , वेदों से ही गम्य है॥ [ २ ]

भूः प्राण व्याहृति, भुवः अपान व् स्वः व्याहृति व्यान है,
महः अन्न, अथ इस अन्न से ही प्राण होते प्राण हैं।
इन चारों व्याहृतियों की सोलह व्याहृति व् भेद है,
इन्हें तत्व से जो जानता उसे देव देते भेंट हैं॥ [ ३ ]

षष्ठ अनुवाक

इस हृदय के अन्तर अनंतर जो भी यह आकाश है,
वह ज्योतिरूप विशुद्ध प्रभु परमेश का ही प्रकाश है.
उसमें विशुद्ध प्रकाश रूपी, ब्रह्म अविनाशी रहे,
वह मनोमय महिमा महिम है,अमित अविनाशी अहे॥ [ १ ]

दो तालुओं के मध्य में जो कंठ है , स्थित वहॉं,
पर ब्रह्मरंध्र व् सर कपालों के मध्य से निःसृत जहों
नाड़ी सुषुम्ना मूल ब्रह्मा का, अंत काले प्राणी को ,
अग्नि वायु सूर्य में , फ़िर ब्रह्म गति कल्याणी को॥ [ २ ]

जो ब्रह्म में स्थित प्रतिष्ठित, बनता स्वामी स्वयं का,
फ़िर तो अहंता मुक्त हो, बन जाता शासक अहम का .
वह मन के स्वामी ब्रह्म का, ज्ञाता विजेता बन सके,
मन वाणी, चक्षु, श्रोत्र, इन्द्रियों का भी ज्ञाता बन सके॥ [ ३ ]

उस ब्रह्म का आकाश के सम , बृहद व्यापी शरीर है,
एक मात्र सत्ता मय तथापि , सूक्ष्म अति अशरीर है.
सब इन्द्रियाँ उस शान्ति निधि में , शान्ति पाती हैं जहाँ,
हे ब्रह्म वेत्ता !अति पुरातन , अमृत गमय तू हो वहाँ॥ [ ४ ]

सप्तम अनुवाक

भू , द्यौ, दिशाएँ, अन्तरिक्षम और आवंतर दिशाएँ ,
नक्षत्र, अग्नि, वायु, रवि, शशि, व्योम, जल सब, दवाएँ.
अथ प्राण पाँचों इन्द्रियाँ सब और शरीरी धातु भी,
पांदाक्त हैं निश्चय जिन्हें, करे पूर्ण क्रम से साधु भी॥ [ १ ]

अष्टम अनुवाक

यही ॐ ब्रह्म है , ॐ विश्व है, ॐ अनुकृति सिद्ध है,
शुभ कर्म, अध्धयन यक्ष आदि में, ॐ रिद्धि प्रसिद्ध है.
कह ॐ ही ऋत्विक अध्वर्युः , मंत्र प्रतिगर का कहें.
वेदों के अध्ययन से प्रथम , ओंकार ही ब्राह्मण कहे.॥ [ १ ]

नवं अनुवाक

स्वाध्याय और वेदादि अध्ययन , मानवोचित धर्म भी ,
शम, दम, नियम, तप, अग्निहोत्र , कुटुंब प्रजनन कर्म भी.
धर्माचरण और सत्य भाषण , तप ही अतिशय श्रेष्ठ है,
मुनि तपोनित्य, पुरुशिष्टि सत्यम, "नाक" मत यही श्रेष्ठ है.॥ [ १ ]

दशम अनुवाक

संसार वृक्ष का मैं हूँ उच्छेदक , त्रिशंकु ने कहा,
अन्नोत्पादक शक्ति रवि सम , कीर्ति मम पर्वत महा .
मैं अमिय सम अतिशय हूँ पावन , ज्योति मय धन मूल हूँ,
है अमिय अभिसिंचित सुमेधा, ज्ञान स्रोत्र समूल हूँ॥ [ १ ]

एकादश अनुवाक

शिक्षित करें आचार्य स्व आश्रम निवासी शिष्य को,
दी सत्य वद, स्वाध्याय, धर्मं चर की शिक्षा समष्टि को.
तुम देव पितृ आचार्य , धर्म के पंथ पर चलना सदा,
तुम्हें वेदों के पड़ने पढाने में रूचि हो सर्वदा॥ [ १ ]

तुम्हें मातु - पितु , आचार्य अतिथि, देवो भव का भान हो ,
निर्दोष सात्विक आचरण और श्रेष्ठ कर्मों का ज्ञान हो,
उन सबके प्रति अति दान श्रद्धा, सेवा शुभ का विधान हो,
और दंभ हीन विनम्र शुभ निष्काम वृतियां प्रधान हों॥ [ २ ]

यदि हो कदाचित कोई दुविधा मार्ग में कर्तव्य के,
लो मार्ग दर्शन युक्ति विधि से, जो कुशल गंतव्य के.
यदि दोष से लांछित कोई तो उससे क्या व्यवहार हो,
निर्देश लो यदि कोई दुविधा , श्रेष्ठ जो आचार्य हो॥ [ ३ ]

द्वादश अनुवाक

विष्णु , बृहस्पति , वरुण, इन्द्र, व् अर्यमा शुभ हो हमें,
आध्यात्मिक , दैविक व् भौतिक, शक्तियां शुभ हों हमें .
हे वायु ! मम परमेश प्राणाधार, पुनि -पुनि नमन है,
प्रत्यक्ष ब्रह्म को ऋतं सत्यम अणु में सम्भव गमन है॥ [ १ ]