भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दम घुटता है मगर अभी तक ज़िन्दा हूँ / डी .एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=डी. एम. मिश्र |संग्रह=समकाल की आवाज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | दम घुटता है मगर अभी तक ज़िन्दा हूँ | ||
+ | भीड़ खड़ी है साथ मगर मैं तन्हा हूँ | ||
+ | तफ़रीहन खैरियत यहाँ पूछी जाती | ||
+ | कहना पड़ता है बिल्कुल मैं चंगा हूँ | ||
+ | |||
+ | बेटे की भी मुझको सुननी डांट पड़ी | ||
+ | सोच के यह खामोश रहा अब बूढ़ा हूँ | ||
+ | |||
+ | खुद अपनी खुशियों को आग लगा देता | ||
+ | अपनी तरह का एक अकेला बंदा हूँ | ||
+ | |||
+ | अगर ज़माने से हटकर कुछ सोचूँ तो | ||
+ | लोग समझ लेते इंसां बेढंगा हूँ | ||
+ | |||
+ | कैसे मानूँ खुद को सच्चा और खरा | ||
+ | आँखों वाला होकर भी गर अंधा हूँ | ||
+ | |||
+ | ख़ूँ होते देखा , वह भी ख़ामोशी से | ||
+ | कितना कायर हूँ , मैं कितना ठंडा हूँ | ||
</poem> | </poem> |
15:14, 15 दिसम्बर 2022 के समय का अवतरण
दम घुटता है मगर अभी तक ज़िन्दा हूँ
भीड़ खड़ी है साथ मगर मैं तन्हा हूँ
तफ़रीहन खैरियत यहाँ पूछी जाती
कहना पड़ता है बिल्कुल मैं चंगा हूँ
बेटे की भी मुझको सुननी डांट पड़ी
सोच के यह खामोश रहा अब बूढ़ा हूँ
खुद अपनी खुशियों को आग लगा देता
अपनी तरह का एक अकेला बंदा हूँ
अगर ज़माने से हटकर कुछ सोचूँ तो
लोग समझ लेते इंसां बेढंगा हूँ
कैसे मानूँ खुद को सच्चा और खरा
आँखों वाला होकर भी गर अंधा हूँ
ख़ूँ होते देखा , वह भी ख़ामोशी से
कितना कायर हूँ , मैं कितना ठंडा हूँ