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सन्नाटा स्थापत्य है | सन्नाटा स्थापत्य है | ||
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स्मृतियों का | स्मृतियों का | ||
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विचारों के झुरमुट में | विचारों के झुरमुट में | ||
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भावों की बरसात के बाद | भावों की बरसात के बाद | ||
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वन नहीं जानते | वन नहीं जानते | ||
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उसका सौन्दर्यशास्त्र | उसका सौन्दर्यशास्त्र | ||
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वे शब्दों को पहुँचाते हैं | वे शब्दों को पहुँचाते हैं | ||
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ज़हन के गतिमान यंत्र तक | ज़हन के गतिमान यंत्र तक | ||
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छन कर आते हैं अर्थ | छन कर आते हैं अर्थ | ||
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और रक्त घूमने लगता है | और रक्त घूमने लगता है | ||
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धमनियों में | धमनियों में | ||
− | + | आवाज़ें तो हैं स्मृतियों की | |
− | + | रंग-बिरंगी पोषाकें | |
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− | रंग-बिरंगी | + | |
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पहन वे उतरती हैं | पहन वे उतरती हैं | ||
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चेतना के मंच पर | चेतना के मंच पर | ||
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पलों की बाँसुरियाँ | पलों की बाँसुरियाँ | ||
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करतीं निनाद | करतीं निनाद | ||
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नाचती हैं स्मृतियाँ | नाचती हैं स्मृतियाँ | ||
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स्वचालित पुतलियों की तरह | स्वचालित पुतलियों की तरह | ||
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झनझना जाती हैं | झनझना जाती हैं | ||
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संगतकार | संगतकार | ||
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स्नायविक तंत्रियाँ | स्नायविक तंत्रियाँ | ||
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कभी सरोद, कभी वीणा | कभी सरोद, कभी वीणा | ||
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कभी रुदनशील | कभी रुदनशील | ||
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वॉयलन की तरह | वॉयलन की तरह | ||
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जीने लगता है पुन: आदमी | जीने लगता है पुन: आदमी | ||
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अतीत के गलियारों में | अतीत के गलियारों में | ||
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सुख के तराशे स्तम्भों को गिनता | सुख के तराशे स्तम्भों को गिनता | ||
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जादुई से अन्दाज़ में | जादुई से अन्दाज़ में | ||
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और समय होता है | और समय होता है | ||
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इस तरह पुनर्जीवित | इस तरह पुनर्जीवित | ||
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छत्ता बदलती हैं | छत्ता बदलती हैं | ||
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गुजरे हुए पल की मधुमक्खियाँ | गुजरे हुए पल की मधुमक्खियाँ | ||
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प्रेम के नन्दन उद्यान में | प्रेम के नन्दन उद्यान में | ||
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होता है परागण | होता है परागण | ||
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प्रयास करती हैं वे | प्रयास करती हैं वे | ||
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महकते मौसम में | महकते मौसम में | ||
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अगले मधुसंचय का। | अगले मधुसंचय का। | ||
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18:44, 12 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
सन्नाटा स्थापत्य है
स्मृतियों का
झींगुरों सा बजता है
विचारों के झुरमुट में
भावों की बरसात के बाद
वन नहीं जानते
उसका सौन्दर्यशास्त्र
वे शब्दों को पहुँचाते हैं
ज़हन के गतिमान यंत्र तक
छन कर आते हैं अर्थ
और रक्त घूमने लगता है
धमनियों में
आवाज़ें तो हैं स्मृतियों की
रंग-बिरंगी पोषाकें
पहन वे उतरती हैं
चेतना के मंच पर
पलों की बाँसुरियाँ
करतीं निनाद
नाचती हैं स्मृतियाँ
स्वचालित पुतलियों की तरह
झनझना जाती हैं
संगतकार
स्नायविक तंत्रियाँ
कभी सरोद, कभी वीणा
कभी रुदनशील
वॉयलन की तरह
जीने लगता है पुन: आदमी
अतीत के गलियारों में
सुख के तराशे स्तम्भों को गिनता
जादुई से अन्दाज़ में
और समय होता है
इस तरह पुनर्जीवित
छत्ता बदलती हैं
गुजरे हुए पल की मधुमक्खियाँ
प्रेम के नन्दन उद्यान में
होता है परागण
प्रयास करती हैं वे
महकते मौसम में
अगले मधुसंचय का।